डॉक्टर कल्याणी कबीर
साहित्य और सियासत के बीच के संबंध पर बात करने से पहले इस प्रसंग की चर्चा करना विषयांतर नहीं होगा । प्रसंग यह है कि एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रकवि दिनकर किसी समारोह से शिरकत कर लौट रहे थे । सीढ़ियों से उतरते वक्त अचानक नेहरू जी के पाँव लड़खड़ा गए । पर इससे पहले कि वे गिरते दिनकर जी ने उन्हें यह कहते हुए सँभाल लिया कि — ” जब राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे रास्ता दिखाती है ।” अब इस घटना से भी थोड़ा और पीछे जाकर इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो हम पाएँगे कि पुरातन काल में भी राजाओं के दरबार में कवियों , लेखकों की काफी पूछ और आवभगत हुआ करती थी । गोया उस जमाने में भी कलमकार और उनके लेखन क्षमता और बौद्धिक क्षमता की कद्र की जाती थी ।राजा अपने सिंहासन से उतरकर ज्ञानी, बुद्धिजीवी, ऋषि- मुनियों का आवभगत करता था । शासन – प्रशासन संबंधी गंभीर मसलों पर उनसे सलाह मशविरा की जाती थी । यह माना जाता था कि राज्य और राष्ट्र की संवेदनशीलता और संस्कार को जीवित रखने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग का होना आवश्यक है । अब नज़र डालें अपने राज्य झारखंड पर जहाँ सियासती तापमान हर दिन चढ़ता उतरता रहता है, उम्मीद से ज्यादा सक्रिय दिखता है पर साहित्य जगत की जरूरत और उसके अस्तित्व की आवश्यकता को दरकिनार करते हुए ।
किसी भी राज्य की पहचान महज उस राज्य से जुड़े नेताओं या खिलाड़ियों से ही नहीं होती बल्कि उस राज्य के साहित्यकार , कलाकार, कलमकार और उनके रचनाओं की तीक्ष्णता से भी होती है । यह अकाट्य सत्य है कि साहित्य समाज का आईना है और समाज किसी राज्य का आईना है । यदि किसी आईने पर उपेक्षा की धूल जम जाए तो विकास की गति का डगमगाना स्वाभाविक ही है ।
अपने राज्य झारखंड में प्रकृति की सौंदर्य की तरह साहित्य की संपदा भी भरपूर है ।जयनंदन , स्वर्गीय बच्चन पाठक सलिल , निर्मला पुतल , अनुज लुगुन, स्वर्गीय प्रेमचंद मंधान , कमल ,निर्मला ठाकुर, दिनेश्वर प्रसाद सिंह दिनेश , स्वर्गीय बालेन्दु शेखर तिवारी जैसे कई ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी लेखनक्षमता का लोहा मनवाया है । लोकगीत की हस्ताक्षर शांति सुमन, कवियों और कवयित्रियों में श्यामल सुमन , शैलेंद्र पांडे शैल , उदय प्रताप हयात , प्रतिभा प्रसाद, संध्या सिन्हा, गीता नूर ने अपनी काव्य प्रतिभा का पताका दूसरे कई राज्यों में भी लहराया है । परन्तु शासन द्वारा लेखन का यह हुनर नज़रअंदाज किया जा रहा है फलत: कहीं न कहीं साहित्य और सियासत के बीच के संबंधों में खटास सी आ गई है । खेल और अभिनय की कला के प्रति तो सरकार उदार मन रख रही है, उसे प्रश्रय भी दे रही है पर कलमकारों के साथ ये रूखापन क्यों है, समझना मुश्किल है ।
विकास के मापदंडों और प्रतिमानों की बात की जाए तो दूसरे राज्यों की अपेक्षा इस राज्य की विकास दर अधिक बताई जा रही है । इस बात का ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि झारखंड उन्नति की ओर अग्रसर है और पड़ोसी राज्यों की अपेक्षा काफी तेजी से अग्रसर हो रहा है । तो क्या किसी राज्य के विकास के आकलन के लिए उसके पास स्थित बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक नहीं । क्या कोई राज्य सिर्फ अपने प्राकृतिक संपदाओं, राजनीतिक गलियारों के दाँव पेंच और आर्थिक विकास के लुभावने वादे के सहारे ही आगे बढ़ने के दावे कर सकता है ।
विषय पर अपना पक्ष रखते हुए प्रसिद्ध लेखिका महुआ माझी ने कहा कि “सामाजिक शांति और सद्भावना के लिए संस्कार का होना आवश्यक है और साहित्य ही संस्कृति और संस्कार को जीवित रखने का प्रयास करता है । आर्थिक विकास अपने साथ कई बुराइयों को लाता है जबकि साहित्यिक विकास समाज के लिए बौद्धिक क्षमता का मार्ग प्रशस्त करता है । इन बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार को जल्द से जल्द साहित्य अकादमी के गठन की पहल करनी चाहिए।”
बिहार , छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश , हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान , पश्चिम बंगाल इत्यादि राज्यों में रचनाधर्मिता और लेखनकर्म को गतिशील रखने और प्रोत्साहन देने के लिए प्रसिद्ध कवियों और लेखकों के नाम पर युवा उभरते कलमकारों को पुरस्कृत किया जाता है । पुस्तकों के संपादन और प्रकाशन में भी राज्य सरकार यथासंभव सहयोग करती है ।अमूमन सभी राज्य सरकार साहित्य को समृद्ध करने की जरूरत को महसूस कर रही हैं । तभी तो बिहार सरकार की तरफ से नए कलमकारों को प्रोत्साहन देने के लिए महादेवी वर्मा सम्मान , निराला सम्मान , फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान , राजभाषा सम्मान दिया जाता है जिसके अन्तर्गत तीन से चार लाख की पुरस्कार राशि भी प्रदान की जाती है ।मध्य प्रदेश में भी साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए हिंदी साहित्य सम्मान दिया जाता है । उत्तर प्रदेश में प्रवासी साहित्यकार सम्मान , हिंदी सेवा सम्मान , दिया जाता है। छत्तीसगढ में भी छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण पुरस्कार देकर रचनाधर्मिता को प्रोत्साहन दिया जाता है ।
कलमकार अनुज लुगुन ने भी अपनी बात रखते हुए कहा कि झारखंड की स्थानीय भाषा को भी संवर्द्धित करने की जरूरत है साथ ही मातृभाषा हिंदी को भी ।
प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है । पर शायद बिरसा आबा की इस धरती की राजनीति को अपने आगे मशाल या अपने पीछे कोई सहारा नहीं चाहिए ।तभी तो राज्य सरकार की तरफ से राज्य में अभी तक साहित्य अकादमी और कला अकादमी के गठन की पहल नहीं की गई है ।इसका सीधा मतलब यह है कि राज्य सरकार की दृष्टि में सृजनात्मक सोच , रचनाधर्मिता की संवेदनशीलता की कोई अहमियत नहीं है । अर्थात हम यह मानकर चलें कि प्रेमचंद , जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर की परंपरा को हम आगे बढ़ाने के इच्छुक कतई नहीं है ।न ही वरिष्ठ साहित्यकारों को सम्मानित कर उनके रचनाकर्म का अभिनंदन किया गया और न ही नए युवा कलमकारों को प्रोत्साहन देने की जहमत उठाई गई । क्या सरकार यह मान बैठी है कि साहित्यिक संस्कृति की समाज के लिए कोई प्रासंगिकता नहीं रही है ।
इस विषय पर बात करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार नंद कुमार उनमन जी ने कहा कि “झारखंड राज्य में साहित्य अकादमी के गठन की जरूरत है पर साथ ही यह भी जरूरी है कि इस की स्वायत्तता कायम रहे । साहित्यिक भूमि पर राजनीति हस्तक्षेप न कायम हो ।ताकि साहित्य की समृद्धि का जो उद्देश्य है वह पूरा किया जा सके । ”
राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त कहानीकार कमल जी ने कहा कि “साहित्य अकादमी का गठन तो एक प्रारंभिक कदम है साहित्य सेवा की तरफ , पर झारखंड राज्य में इस पर भी निर्णय नहीं लिया गया है । राज्य के गठन को सोलह साल बीत गए पर अभी तक सरकार की ओर से इस बात पर चर्चा नही की गई है कि बहुभाषीय समाज से सुसज्जित इस राज्य का साहित्यिक विकास कैसे हो ? ”
उर्दू के कलमकार अहमद बद्र साहब ने भी कहा कि स्थानीय भाषा और मातृभाषा हिंदी के विकास के लिए साहित्य अकादमी का गठन जरूरी है । चिंताजनक है कि सरकार को शब्दों की ताकत और जरूरत का अहसास नहीं जबकि बौद्धिक संपदा किसी भी सुसंस्कृत समाज की पहली शर्त होती है ।
साहित्य अकादमी के गठन के प्रति निश्चेषट , उदासीन , बेपरवाह सरकारी रवैया एक वैचारिक और चेतनशील समाज के लिए घातक है । यह स्मरण रहे कि लेखक और कलाकार एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग है जो समाज में मनुष्यता , दया, प्रेम, सौहार्द और करूणा की भावना को जागृत रखने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं । बौद्धिक क्षमता से विहीन समाज गूँगे, बहरों और दृष्टिहीनों की फौज से बढ़कर कुछ नहीं है । साहित्यिक भूमि पर ही किसी सुसंस्कृत समाज की नींव मजबूत होती है ।
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार अरविंद विद्रोही ने भी अपनी चिंता जाहिर की और कहा कि उम्मीद है कि सरकार जल्द ही साहित्य संसार के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेगी ।
उभरते कलमकार वरूण प्रभात ने अपनी बात रखते हुए कहा कि ” सत्रह वर्ष हो गए झारखंड को अस्तित्व मे आए अर्थात किशोरावस्था को पार कर युवावस्था की दहलीज पर दस्तक दे रहा है हमारा राज्य झारखंड! परन्तु अब तक अपने सृजन अपने मूल से वंचित है! किसी भी माननीय की दृष्टि मानवीयता के मूल कला , साहित्य , संस्कृति की ओर नही गई , जो मनुष्य होने की पहली शर्त है! प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य वह मशाल है जो राजनीति का मार्ग प्रशस्त करती है । इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जिस राज्य को प्रकृति ने अकूत संसाधन दे रखी है वह राज्य प्रकृति के साध्य रूप कला , साहित्य , संस्कृति को स्थापित करने मे असफल है! अभी तक हमारे राज्य मे साहित्य अकादमी की स्थापना नही हो सकी ! राज्य की सरकारों को यह सुध लेने की भी फुर्सत नही कि उनके राज्य मे कला साहित्य संस्कृति के मानक गढ़ने वालों की स्थिति क्या है? आश्चर्य तब और बढ़ जाता है जब माननीय मुख्यमंत्री की तपोभूमि जमशेदपुर मे साहित्य के शलाका पुरूष जिन्होंने राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर झारखंड का मान सम्मान बढ़ाया, जिनके अनेक शिष्य – शिष्या अपने कर्मक्षेत्र मे एक मानक गढ़ रहे है, आदरणीय स्वर्गीय डॉक्टर बच्चन पाठक सलिल की मृत्यु उपरांत सरकार के मुख से संवेदना श्रध्दांजलि के दो शब्द नही निकले! इस गैर जिम्मेदाराना व्यवस्था की जितनी भर्त्सना की जाए कम है! कला साहित्य संस्कृति को सम्मान न देकर उन्हे उनका उचित स्थान न देकर सरकार अपने मूल से कट रही है! और मूल से कटना यानी विनाश को आमंत्रित करना है! साहित्य वह चिराग है जो सर्वत्र प्रकाशित करता है आन्तरिक संवेदना को जागृत करता है! और संवेदनशीलता मानवीय पक्षधरता की अगुवाई करती है! अनुरोध है अपने राज्य की सरकार से कि यथाशीघ्र राज्य हित मे साहित्य /कला अकादमी की स्थापना करने की कृपा करे! ”
संताली भाषा के लेखक और सफल राजनीतिज्ञ रहे सूर्य सिंह बेसरा ने भी साहित्यिक विकास के प्रति सरकार की उदासीनता के प्रति अपनी चिंता जाहिर की और उम्मीद जताई कि जल्द ही इस दिशा में सरकारी पहल की जाएगी ताकि राज्य के साहित्यकार उचित स्थान पा सकें और बौद्धिक क्षमता पल्लवित पुष्पित हो सके ।
कुल मिलाकर यह बात कही जा सकती है कि प्रकृति की गोद में साँस लेता और आर्थिक विकास के नगाड़े बजाता झारखंड के लिए जरूरी है कि वह साहित्यिक भूमि को पुख्ता करने की दिशा में गंभीर होकर फैसला करे । साहित्य अकादमी के गठन से राज्य में लिखने – पढ़ने की परम्परा समृद्ध होगी और यह परम्परा समाज में एकता की नींव मजबूत करेगी । आखिर साहित्य ही हम सबों को वह जमीन मुहैया कराती है जहाँ मानवीय मूल्य और संवेदनाओं के बीज पनपते हैं ।