विशेष :भारतीय जनमानस में क्रांति का बिगुल फूंकने वाले कवि: रामधारी सिंह दिनकर
” है नमन उनको कि जो यश काय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए है,
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय ,
जो धरा पर गिर पड़े और आसमानी हो गए “

रामधारी सिंह दिनकर जी का जन्म 23 सितम्बर 1908 को एक निर्धन भूमिहार ब्राह्मण परिवार में बिहार के बेगुसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था | उनके पिता श्री रवि सिंह थे तथा माता का नाम मनरूपी देवी था । छोटी उम्र में ही उनके पिताजी की मृत्यु हो गई थी |
1929 में, मोकामा में हाई स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद दिनकर जी ने पटना कॉलेज में दाखिला लिया और बी.ए. इतिहास विषय में 1932 में पटना विश्वविद्यालय से ही शिक्षा पूर्ण किया | उन्होंने अंग्रेजी, मैथिली, उर्दू, बंगाली, हिंदी और संस्कृत की पढाई की थी।
इसके बाद अगले ही साल उन्हें एक स्कूल में ‘प्रधानाध्यापक’ नियुक्त किया गया। वह 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्ट्रार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक के रूप में भी कार्यरत रहे ।
दिनकर जी का राजनीतिक जीवन भी था, वे तीन बार राज्यसभा के लिए चुने गए, और उन्होंने 3 अप्रैल 1952 से 26 जनवरी 1964 तक राज्यसभा के सदस्य के रूप में कार्य किया। वह 1960 के दशक की शुरुआत में भागलपुर विश्वविद्यालय (भागलपुर, बिहार) के कुलपति भी थे।

हालंकि आजादी से पूर्व ‘दिनकर’ जी अपनी उत्कृष्ट और उल्लेखनीय राष्ट्रवादी कविता के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें पहले रचना करने में रुचि थी, लेकिन अंततः उन्होंने खुद को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में समर्पित कर दिया ।
भारतीय आज़ादी के आंदोलन के समय में दिनकर जी की कविताओ ने देश के युवाओ को काफी प्रभावित किया था। एक छात्र के रूप में दिनकर जी, रोजमर्रा की समस्याओं से लड़ते थे, जिनमें कुछ समस्याएं उनके परिवार की आर्थिक स्थिति से भी संबंधित थी। बाद में उन्होंने अपनी कविताओ के माध्यम से गरीबी के प्रभाव को समझाया। ऐसे ही वातावरण में दिनकर जी पले-बढे और आगे चलकर राष्ट्रकवि बने।
1920 में दिनकर जी ने महात्मा गाँधी को पहली बार देखा था। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के समय दिनकर क्रांतिकारी आंदोलन की सहायता करने लगे थे लेकिन बाद में वे गाँधी जी के विचारों पर चलने लगे थे, जबकि बहुत बार वे खुद को बुरा गांधियन भी कहते थे। क्योंकि वे अपनी कविताओं के माध्यम से देश के युवाओ में अपमान का बदला लेने की भावना को जगा रहे थे।” कुरुक्षेत्र” में उन्होंने स्वीकार किया कि निश्चित ही युद्ध विनाशकारी चीज होती है लेकिन आज़ादी की रक्षा करने के लिये वह बहुत जरुरी भी है।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में दिनकर जी ने देशभक्ति की जोशवर्धक कवितायें लिखी जिससे वो विद्रोही कवि कहलाये | ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वर उठाने वाले इस वीर रस के कवि को उचित ही “राष्ट्रकवि” कहा गया | रामधारी सिंह दिनकर जी को राष्ट्रकवि के नाम से उनके कविता लेखन के लिए उनके अतुलनीय योगदान, उत्साह और जुनून के कारण ही ” राष्ट्रकवि” नाम से सम्मानित किया गया।
स्वतंत्रता संघर्ष के काल में दिनकर जी भारतीय राजनीति के प्रतिष्ठित जाने-माने नेताओं के सम्पर्क में आये, जैसे राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा और ब्रज किशोर प्रसाद आदि | वो अंग्रेजो और उनके गलत नीति के विरुद्ध थे तथा उनके मन में रोष तथा बदले की भावना उत्पन्न हो गयी थी | उनकी कविताओं तथा लेखन ने भारतीय जनमानस को आकृष्ट किया था |
दिनकर जी की पहली कविता 1924 में छात्र सहोदर (‘छात्रों का भाई’) नामक पत्र में प्रकाशित हुई थी। दिनकर जी की पहली कविता संग्रह रेणुका नवंबर 1935 में प्रकाशित हुई थी ।
*रेणुका* में उन्होंने अतीत के गौरव के प्रति कवि का सहज आदर और आकर्षण परिलक्षित होता है, पर साथ ही वर्तमान परिवेश की नीरसता से त्रस्त मन की वेदना भी दिखाई देती है ।
उनकी और एक कविता जो पूरे जनमानस के दिलों में एक अलग छाप छोड़ गई है, वह आज़ादी के बाद उत्पन्न समस्याओं पर इंगित करते हुए है — कविता समर शेष –
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।
कविवर रामधारी सिंह दिनकर जी ने भारत आजाद होने के बाद भारत देश की स्थिति को देखते हुए कहा कि धनुष की डोरी को ढीला कर दो और तरकश का कस खोल दो,
किसने कहा किसने कहा युद्ध की बेला चली गई और शांति से बोलो।
रामधारी सिंह दिनकर कहना चाहते थे, कि भारत देश आजाद होने के बाद भी विभिन्न समस्याओं का गुलाम है, इसलिए हमें अब उन समस्याओं से लड़ना है, उनका सामना करना है, इसलिए यह समय आनंद और उल्लास का नहीं है, यहाँ पर एक दूसरे के गले में फूल माला डालकर और कुमकुम का टीका लगाने का अवसर नहीं है, अभी भारत देश को विभिन्न समस्याओं का सामना करना है और उनसे युद्ध करना है, क्योंकि तुम्हारे सामने है भूखा हिंदुस्तान अभी तड़प रहा है।
परशुराम की प्रतीक्षा दिनकर जी की सुप्रसिद्ध काव्यकृति है। कवि का स्वाभिमान सौभाग्य पौरुष से मिलकर नए भावी व्यक्ति की प्रतीक्षा में रत दिखाई देता है। सतत् जागरूकता परिस्थितियों के संदर्भ में समकालीनता एवं व्यावहारिक चिंतन एक कवि के लिए आवश्यक है। यह रचना भारत-चीन युद्ध के पश्चात लिखी गई थी।
दिनकर जी ने सामाजिक और आर्थिक असमानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की ।
सन् 1962 के चीनी आक्रमण के परिणाम स्वरूप भारत को मिली पराजय से क्षुब्ध होकर दिनकर जी के मन में जो तिलमिलाहट पैदा हुई उसका उद्बोधन ,आत्म अभिव्यंजना ही “परशुराम की प्रतीक्षा” के रूप में उन्होंने किया है। इस कविता में उन्होंने कवि सूरदार एवं अग्नि धर्म को ही वरेण्य बताया है। जीवन की प्रत्येक परिस्थितियों में क्रांति का राग अलापने वाले कवि दिनकर जी इस रचना में परशुराम की प्रतीक्षा करते हैं। कविता सूर धर्म ही यहां परशुराम धर्म में बदल गया है। एक समय था जब उन्हें अर्जुन एवं भीम जैसे वीरों की आवश्यकता थी। किंतु आज उन्हें लगता है कि देश पर जो संकटकाल मंडरा रहा है उसके घने बादलों में छिपे परशुराम का कुठार ही बाहर ला सकता है। इसलिए दिनकर जी ने प्रस्तुत कविता में परशुराम धर्म अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। उनकी सोच उनके विश्वास का साथ देती हुई यही निष्कर्ष निकालती है।
“वे पीयें शीत तुम आतम घाम पियो रें। वे जपें नाम तुम बनकर राम जी ओ रे॥”
तीन खंडों में लिखी गई यह कविता -” *परशुराम की प्रतीक्षा* ” का (शक्ति और कर्तव्य) कुछ भाग अधिक प्रिय लगा इसलिए मैंने यहां उद्धृत किया।
परशुराम की प्रतीक्षा के ये अंश जो कालजयी है…आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि अपने रचनाकाल में थे।
दिनकर जी की कविताओं की हर पंक्ति में कुछ-न-कुछ संदेश है, जीवन का पाठ है. कड़वी सच्चाई की धार है. गहराई इतनी कि उनकी कविता की पंक्तियों की व्याख्या करने बैठें, तो हर कविता पर एक किताब लिख जाए. लेकिन पूर्वाग्रह से प्रदूषित मौजूदा माहौल में दिनकर जी की कविताओं का मर्म और संदर्भ आप दूसरों से क्यों समझें? मेरा मानना है आप अगर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना चाह्ते हैं तो आप उन्हें खुद पढ़ें. बार-बार पढ़ें. उनके कहे को वक्तसे जोड़ें। शपथ लें कि खुद को उस जमात से अलग करने की कोशिश करेंगे, जिनके लिए राष्ट्रकवि दिनकर जी ने कहा था-
जब नाश मनुज पर छाता है
*पहले विवेक मर जाता है।
एक बार फिर इस महान रचनाकार को शत्* *शत् नमन् ।*
— सूरज कुमार
जमशेदपुर