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    Home » इतिहास को मरोड़ने से नाकारापन नहीं छिपती
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    इतिहास को मरोड़ने से नाकारापन नहीं छिपती

    News DeskBy News DeskJune 8, 2025No Comments6 Mins Read
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    निशिकांत ठाकुर

    कभी कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि हमारा देश संभवत: आदिम युग में पहुंच गया है और चूंकि देश अभी सौ फीसदी शिक्षित नहीं हो पाया है, इसलिए समाज को चाहे जैसे भी हो, इतिहास की अच्छी बुरी बातों से उसे भ्रमित करके रखा जाए। यही बात राजनीतिज्ञों को लाभ पहुंचाती है और सही जानने और बताने वाला बगलें झांकने लगता है। आज यह एक आम बात हो गई कि अपनी भाषा प्रवाह में प्रवाहित करके जो समाज का जितना मस्तिष्क ‘साफ’ कर सकता है, कर दे। और, इतना साफ कर दे कि उसमें कभी कोई सच की बात भी करना चाहे, तो ऐसी कोशिश की जाए कि उसके मस्तिष्क में वह सच घुसने ही न पाए। अभी तक हमारा देश यह समझने से इनकार करता आ रहा है कि प्रधानमंत्री यदि सरदार बल्लभ भाई पटेल होते तो ऐसा नहीं होता, वैसा नहीं होता। जबकि, इतिहास साक्षी है कि सरदार पटेल की मृत्यु 15 दिसंबर, 1950 में ही हो चुकी थी। फिर भारतीय लोकतंत्र घोषित होने के बाद जो चुनाव हुआ, वह 1951-52 में हुआ। अब तो यह भी कहा जा रहा है कि वीर सावरकर यदि नहीं होते तो 1857 की  क्रांति ही नहीं हुई होती । जबकि सच्चाई यह है कि वीर सावरकर का जन्म ही 1883 में हुआ था । यही सच है और आजादी के बाद का सच्चा  इतिहास  भी है। अब इस पर कोई कितना भी मंथन कर ले, लेकिन जो बीता हुआ काल है, कतई वापस नहीं लौट सकता। ठीक उसी तरह, जिस तरह आप गंगा को समुद्र से वापस नहीं ला सकते हैं, वैसे ही वर्षों पूर्व मृत व्यक्ति को जीवित नहीं कर सकते।

    आइए, आजादी के इतने दिन गुजर जाने के बावजूद हम उन्हीं लम्हों को बार-बार याद करते रहते हैं कि आजादी के उपरांत यदि ऐसा होता, तो यह नहीं होता, वैसा होता तो वह नहीं होता। आप इतिहास को जानना चाहते हैं, तो सच यह है कि अंग्रेज बहुत ही चतुर और विभेदकारी नीति पर चलते थे। यही कारण था कि उसने भारत ही नहीं, विश्व के कई देशों पर वर्षों तक शासन किया। भारत पर लगभग पौने दो सौ साल तक अंग्रेजों द्वारा राज्य करने का एक कारण यह भी है। उनकी नीति इतनी सोची-समझी और परिपक्व होती थी कि कोई उस नीति को तोड़ना भी चाहे, तो आसानी से न तो उसे तोड़ सकता था, न ही उसकी नीतियों की काट बना सकता था। ऐसा ही उसने भारत को गुलाम बनाने के बाद किया था। इसलिए सबसे पहले उसने भारतीय परंपरागत शिक्षा नीति में घुसकर उसे नष्ट करने के लिए मैकाले जैसा शिक्षाविद् से भारतीय शिक्षा नीति में बदलाव करने को कहा। साथ ही, यह भी कहा कि नीति कुछ इस तरह बनाई जाए कि हिंदू-मुसलमान रेल की पटरी की तरह चले तो साथ-साथ, लेकिन जुड़े कहीं भी नहीं। ऐसा इसलिए किया, क्योंकि भारत में वर्चस्व केवल हिंदुओं और मुसलमानों का था, जो साथ-साथ रहते थे और अंग्रेजों के लिए कभी भी खतरा बन सकते थे। इसलिए उसने विचारधाराओं को बदलने का निर्देश शिक्षा में परिवर्तन लाकर करने का दिया। मैकाले ने भारत में रहकर ही दोनों के बीच असली मुद्दों से भटकाकर फूट डालने के लिए अपनी सबसे बड़ी योजना को लागू किया। इसके कारण जहां कभी हिन्दू-मुस्लिम साथ-साथ रहते थे, साथ बैठकर खाते थे, वही अब फूट डालकर एक-दूसरे को जानी दुश्मन बनाकर अपना पहला नियम लंबे समय तक भारत में  लागू किया। जिसमें वह सफल भी रहा।

    भारत में हिंदू-मुसलमान अनावश्यक लड़ते रहे और अंग्रेज आराम से लंदन में बैठकर वंशी बजाते रहे। उनकी नीति इतनी कामयाब थी कि भारत को दो टुकड़ों में बांटने के बावजूद हम आज भी लड़ते रहते हैं और यदि हमने अपने देशहित के लिए समझदारी का परिचय नहीं दिया, तो पता नहीं कितने दिनों तक एक दूसरों को दिग्भ्रमित करके मरने मिटने के लिए सदैव तैयार रहेंगे। यहां यह भी जानना जरूरी है कि यह देश भारतीयों कहिए या भरतवंशियों का है, लेकिन मुगल भी हमें लूटते रहे, पर वह अपने को भारतीय होना ही स्वीकार किया तथा जिन्होंने भारत को अपना दुश्मन माना, वे हमारे देश को बांटकर अलग देश बनाकर चले गए। यहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए उन्होंने भारत की धरती को ही सलाम किया और भारतीय होकर अपने को गौरवान्वित महसूस करते हुए आज भी हमारे सुख-दुख में खड़े रहते हैं तथा वे अपने होने का अहसास कराते रहते हैं। हम किसी भी दशा में उनके इस भाईचारे को नकार नहीं सकते और न ही उन्हें अपने से अलग कर सकते हैं। आज भी आजादी के साक्षी के रूप में मुंबई  स्थित गेटवे ऑफ़ इंडिया और दिल्ली के इंडिया गेट पर खुदे उन शहीदों की सूची देख सकते हैं।

    हां, कुछ बहके हुए दहशतगर्द आज भी हमारे देश में मौजूद हैं, जो बार-बार हमें डराने-धमकाने का कार्य करते रहते हैं, पर इस बार जिसकी सजा उनके साथ-साथ ही उनकी दहशतगर्दी के ठिकानों पर हमला करके हमारे सैनिकों ने नष्ट कर दिया है। उन दहशतगर्दों ने हमारे देश के मनोरम स्थान पहलगाम में 26 निर्दोषों को मौत की नींद सुलाकर देश में हाहाकार मचा दिया। वैसे, निर्दोषों की कायराना हत्या करके वह बच नहीं सके और भारत ने ऑपरेशन ‘सिंदूर’ के जरिये उनके अधिकांश ठिकानों को नष्ट कर दिया, लेकिन कुत्ते की दुम सीधी कहां हो सकती है ! अपनी अकड़ में वह आज भी है और आगे भी रहेगा। भारत ने अपनी साफ-सुथरी छवि को बनाए रखने  के लिए अपने एक योग्य संसदीय दल को विश्व के अनेक देशों में भेजकर पाकिस्तानी अकड़ को ढीला करने का प्रयास किया है। इसी क्रम में कई देश, जो भारतीय नीति से सहमत नहीं थे, उन्होंने भारत के निर्दोष होने की बात को स्वीकार किया और अपना पक्ष भारत के प्रति साझा किया। इसका भी असर भारत की अगली विदेश नीति पर पड़ेगा, फिर इसका लाभ भी उसे मिलेगा।

    भारत अपनी नीति में सफल रहा है और आगे भी रहेगा, लेकिन अब आजादी के इतने वर्षों बाद यह कहना कि यदि सरदार वल्लभ भाई पटेल होते, तो भारत को इन आतंकियों से जूझना नहीं पड़ता। किसी भी तरह से उचित नहीं माना जा सकता कि हम वर्षों बाद एक मृतात्मा को कोसते हुए सार्वजनिक रूप से बिना समझे अपमानित करते रहें। यह प्रश्न बड़ा टेढ़ा है, लेकिन शासन करने के लिए समाज को गुमराह करना भी एक नीतिगत विषय भी है। इसलिए आजादी के इतने लंबे वर्षों बाद उसे अपमानित किया जाए, जिसका बंटवारे में कम-से-कम योगदान रहा था। ऐसा इसलिए, क्योंकि बंटवारा एक मजबूरी थी, अन्यथा उस समय क्या स्थिति हो सकती थी, इसकी आज केवल कल्पना की जा सकती है; क्योंकि उस काल का कोई गवाह आपके सामने आज नहीं है। हमारे राष्ट्रपिता ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि यदि बंटवारा होता है, तो उनकी लाश पर ही होगा, लेकिन अंग्रेजों की नीति के आगे उनकी भी नहीं चली, ऐसे में बंटवारा तो होना ही था। चूंकि सरदार वल्लभ भाई पटेल जीवित नहीं थे, इसलिए महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी पं. जवाहरलाल नेहरू जिन्होंने गांधी, सरदार पटेल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी के लिए काम किया था और पढ़े-लिखे राजनीति के उद्भट विद्वान तथा उस काल के भारत के रग-रग से वाकिफ होने के कारण जनता ने उन्हें हाथों हाथ लिया और स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में  कार्यभार संभाला ।

    (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)

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