देवानंद सिंह
भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद जिन चार स्तंभों पर टिकी है, उनमें से मीडिया को ‘चौथा स्तंभ’ कहा गया है। एक ऐसा स्तंभ जो सत्ता के तीन पारंपरिक अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) की जवाबदेही तय करने का सामाजिक माध्यम रहा है। परंतु बीते दो दशकों में मीडिया, विशेषकर टेलीविज़न न्यूज़ मीडिया, जिस दिशा में बढ़ा है, वह न केवल उसके मूल सिद्धांतों से भटकाव को दर्शाता है, बल्कि जनमत निर्माण की प्रक्रिया को भी विकृत कर रहा है। सूचना की जगह अब सनसनी ने ले ली है, निष्पक्षता की जगह पक्षधरता ने, और संवाद की जगह अब सिर्फ़ शोरगुल रह गया है।
1990 के दशक तक भारत में मीडिया की भूमिका अपेक्षाकृत ज़िम्मेदार और भरोसेमंद थी। दूरदर्शन के सीमित समय वाले समाचार बुलेटिन हों या एनडीटीवी, आजतक जैसे शुरुआती निजी चैनल। सूचना का प्रमुख उद्देश्य सत्य, वस्तुनिष्ठता और समाज को जागरूक करना था। खबरों के लिए तथ्यों की पुष्टि ज़रूरी मानी जाती थी। पत्रकार और एंकर एक विवेकशील संवाददाता की भूमिका में होते थे, न कि राय सुनाने वाले प्रचारक की तरह। इस युग में पत्रकारिता को मिशन कहा जाता था, वह मिशन, जो भ्रष्टाचार को उजागर करता, प्रशासन की जवाबदेही तय करता और जनता को सशक्त बनाता। रामनाथ गोयनका, पी. साईनाथ, कुलदीप नैयर जैसे नाम उस युग की निष्ठा और साख का प्रतीक माने जाते थे।2000 के बाद जब टेलीविज़न मीडिया में निजी खिलाड़ियों की बाढ़ आई, तब से न्यूज़ एक उत्पाद बन गया और दर्शक उपभोक्ता बन गए हैं। इसी दौर में 24×7 न्यूज़ चैनल का चलन शुरू हुआ, जिससे कंटेंट की भूख लगातार बनी रही।
अब जब हर मिनट कुछ नया दिखाना ज़रूरी हो गया, तो गहराई, गंभीरता और तथ्यों की पुष्टि जैसे पहलुओं की बलि चढ़ने लगी। टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट) ने संपादकीय विवेक को अपदस्थ कर दिया। धीरे-धीरे वह समय भी आया, जब चैनलों के लिए खबर का मतलब यह हो गया कि कौन-सी घटना अधिक भावनात्मक या उग्र प्रतिक्रियाएं दिला सकती है। आज न्यूज़ चैनलों की प्राइम टाइम डिबेट महज़ एक सर्कस में तब्दील हो चुकी है। पांच से छह पैनलिस्ट्स को आमंत्रित किया जाता है, जिन्हें बोलने का पूरा अवसर कभी नहीं मिलता। एंकर स्वयं सबसे ज़्यादा चिल्लाते हैं। मानो निष्पक्ष संचालन करने की बजाय वह स्वयं बहस का पक्षकार बन गए हों। यह प्रवृत्ति खासकर, तब और बढ़ जाती है, जब राजनीतिक दलों से जुड़ी घटनाएं सामने आती हैं।
बहस का उद्देश्य विश्लेषण या समाधान प्रस्तुत करना नहीं रह गया है, बल्कि एक ऐसा माहौल बनाना हो गया है, जिसमें दर्शक भावनात्मक रूप से किसी एक पक्ष के साथ
तथ्यों की बिना परवाह किए खड़े हो जाएं। समस्या तब और गंभीर हो जाती है, जब चैनल विशुद्ध रूप से किसी राजनीतिक दल या विचारधारा के प्रति झुकाव प्रदर्शित करने लगते हैं। उदाहरणस्वरूप, जब किसी एक पार्टी के नेता पर गंभीर आरोप लगते हैं, तो पूरा चैनल उसे बिना तथ्यात्मक पुष्टि के देशद्रोह या षड्यंत्र की साजिश बताता है, वहीं दूसरी ओर, जब विरोधी पार्टी पर घोटाले या गंभीर प्रश्न उठते हैं, तो वही चैनल उस मुद्दे को या तो दरकिनार कर देता है या स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने में जुट जाता है।
इस दोहरे मापदंड ने जनता में व्यापक अविश्वास पैदा कर दिया है। सब बिके हुए हैं जैसे जुमले अब आम हो चुके हैं।
मीडिया के इस गिरते स्तर के बीच एक नई प्रवृत्ति सामने आई है। स्वतंत्र पत्रकारिता, यूट्यूब चैनल्स, पॉडकास्ट्स और सोशल मीडिया-आधारित सूचना स्रोतों की। इन माध्यमों की सबसे बड़ी ताक़त है, दर्शकों से सीधी बातचीत, पारदर्शिता, और आमतौर पर तथ्य आधारित रिपोर्टिंग। यद्यपि ये सभी पूरी तरह निष्पक्ष हों। यह दावा भी संदेह से परे नहीं, परंतु पारंपरिक चैनलों के मुकाबले इन पर दर्शकों को नियंत्रण और संवाद की अधिक सुविधा है।
समाचार का काम है, सत्ता को चुनौती देना, सच्चाई को उजागर करना, और आमजन को जागरूक बनाना। अगर, मीडिया यह काम करना बंद कर दे और केवल सत्ताधारी वर्ग का भोंपू बन जाए, तो यह सिर्फ पत्रकारिता का पतन नहीं, लोकतंत्र की बुनियाद पर हमला है। मौजूदा संकट से बाहर निकलने के लिए जनता, पत्रकार और नीतिनिर्माताओं, तीनों को ही आत्मचिंतन और सुधार की आवश्यकता है। तभी हम फिर उस पत्रकारिता को पा सकेंगे, जो खबर को राजनीति से ऊपर रखती थी, और जिसका उद्देश्य सिर्फ टीआरपी नहीं, बल्कि सच्चाई तक पहुँचना था। यही हमारी लोकतांत्रिक विरासत को जीवित रखने का एकमात्र रास्ता है।


