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    Home » भारत की जनसंख्या के डिजिटल और सामाजिक पुनर्मूल्यांकन के मायने
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    भारत की जनसंख्या के डिजिटल और सामाजिक पुनर्मूल्यांकन के मायने

    News DeskBy News DeskJune 12, 2025No Comments6 Mins Read
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    भारत की जनसंख्या के डिजिटल और सामाजिक पुनर्मूल्यांकन के मायने
    देवानंद सिंह
    भारत आज विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में जाना जाता है, जहां जनगणना सिर्फ आंकड़ों का संकलन नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भविष्य का निर्धारण करने वाली एक निर्णायक प्रक्रिया होती है। वर्ष 2027 में भारत में 16 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद जनगणना होने जा रही है। यह जनगणना कई मायनों में ऐतिहासिक साबित होगी, क्योंकि पहली बार यह पूरी तरह डिजिटल माध्यम से कराई जाएगी और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार जातिगत आंकड़ों को भी इसमें शामिल किया जाएगा। इस जनगणना की रेफ़रेंस डेट एक मार्च 2027 रखी गई है, जबकि जम्मू-कश्मीर, लद्दाख़ और हिमालयी क्षेत्रों के लिए यह एक अक्तूबर 2026 होगी।

     

    भारत में जनगणना की परंपरा 1872 से शुरू हुई थी और 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसे हर दस वर्ष पर नियमित रूप से संपन्न किया जाता रहा है। पिछली जनगणना 2011 में कराई गई थी। नियमानुसार 2021 में अगली जनगणना होनी चाहिए थी, परंतु वैश्विक कोविड-19 महामारी ने इस प्रक्रिया को बाधित कर दिया। गृह मंत्रालय ने यह स्वीकार किया कि महामारी के दौरान जनगणना के आयोजन से आंकड़ों की गुणवत्ता प्रभावित होती, जैसा कई अन्य देशों में हुआ। इस कारण इसे स्थगित किया गया और अब यह प्रक्रिया 2027 में पूरी की जाएगी, हालांकि सवाल यह भी उठता है कि महामारी के पश्चात वर्षों तक जनगणना को टालने के पीछे केवल स्वास्थ्य कारण ही थे या इसके पीछे गहरे राजनीतिक और प्रशासनिक हित भी जुड़े थे।

    2027 की जनगणना भारत के इतिहास की पहली डिजिटल जनगणना होगी। इसमें मोबाइल ऐप और वेब पोर्टल्स के माध्यम से डेटा संग्रहण किया जाएगा। यह तकनीकी बदलाव प्रशासनिक दक्षता, पारदर्शिता और समयबद्धता की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा सकता है, लेकिन इसके साथ ही कुछ चिंताएं भी उत्पन्न होती हैं।
    देश के दूरदराज़ ग्रामीण इलाकों में डिजिटल साक्षरता और इंटरनेट कनेक्टिविटी की स्थिति अब भी संतोषजनक नहीं है। ऐसे में, यह प्रश्न उठता है कि क्या डिजिटल माध्यम से जनगणना की कवरेज संपूर्ण और निष्पक्ष होगी?
    डिजिटल जनगणना के साथ नागरिकों की व्यक्तिगत जानकारी को साइबर हमलों से सुरक्षित रखना एक गंभीर चुनौती होगी। डेटा लीक और दुरुपयोग की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। लाखों गणनाकर्मियों को तकनीकी प्रशिक्षण देना और आवश्यक डिवाइसेज़ मुहैया कराना भी एक बड़ा प्रशासनिक कार्य होगा।

     

    भारत में 1931 के बाद पहली बार जातिगत जनगणना को औपचारिक रूप से जनगणना प्रक्रिया में शामिल किया जा रहा है। आज़ादी के बाद से अब तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित जानकारी तो एकत्र होती रही, परंतु अन्य जातियों का कोई औपचारिक लेखा-जोखा मौजूद नहीं रहा। जातिगत आंकड़े कल्याणकारी योजनाओं की वास्तविक प्रभावशीलता को मापने में मदद करेंगे। कौन-सी जातियां शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरियों या आवास से वंचित हैं। यह समझना अब अधिक संभव होगा। महिला आरक्षण क़ानून, जिसमें संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है, उसके कार्यान्वयन की शर्त 2027 की जनगणना से जुड़ी है। इससे महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को नई दिशा मिलेगी।

     

    जातिगत जनगणना से सामाजिक संरचना और सत्ता समीकरणों की नए सिरे से पहचान होगी, इससे ओबीसी और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की मांग और उसके अनुपात पर फिर से बहस तेज़ हो सकती है, हालांकि जातिगत गणना पर राजनीतिक दृष्टिकोण भिन्न रहे हैं। विपक्षी दलों, खासकर राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, डीएमके और कांग्रेस ने इसकी लंबे समय से मांग की है, जबकि भाजपा ने इस पर सतर्क रुख अपनाया है। अब केंद्र सरकार द्वारा इसे लागू करने की घोषणा न केवल एक सामाजिक निर्णय है, बल्कि एक रणनीतिक राजनीतिक कदम भी माना जा सकता है।

    जनगणना का एक प्रमुख प्रशासनिक उपयोग संसद और विधानसभाओं की सीटों के परिसीमन में होता है। अब तक यह प्रक्रिया 1951, 1961 और 1971 की जनगणनाओं के बाद की गई थी, लेकिन 1976 में यह विवादास्पद बन गई। दक्षिण भारत के राज्यों ने जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण पाने की अपनी सफलता को “राजनीतिक दंड” की तरह देखा, क्योंकि अधिक आबादी वाले उत्तर भारतीय राज्यों की सीटें बढ़ने की संभावना थी। इस विवाद को शांत करने के लिए परिसीमन को 2001 तक स्थगित किया गया और फिर 2001 की जनगणना के आधार पर एक बार पुनः सीमाएं तय की गईं, लेकिन वह भी 2026 तक के लिए स्थिर रखी गई हैं।

     

     

    अब 2027 की जनगणना के बाद जब नए परिसीमन आयोग का गठन होगा, तब यही आंकड़े आधार बनेंगे। इससे दक्षिण भारतीय राज्यों की आशंका फिर उभर सकती है कि उन्हें उनकी ‘जनसंख्या नियंत्रण नीति’ के कारण संसदीय प्रतिनिधित्व में नुकसान होगा। गृह मंत्री अमित शाह ने यह आश्वासन दिया है कि परिसीमन प्रक्रिया में दक्षिणी राज्यों की चिंताओं का सम्मानपूर्वक समाधान किया जाएगा और सभी पक्षों से संवाद स्थापित किया जाएगा। लेकिन यह स्पष्ट है कि यह मुद्दा आने वाले वर्षों में देश की राजनीति का केन्द्रीय विषय बनेगा।
    जहां 2021-22 के बजट में जनगणना के लिए ₹3768 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, वहीं 2024-25 के बजट में यह घटाकर केवल ₹574.80 करोड़ कर दिया गया। इससे यह संकेत भी मिलता है कि सरकार इसे चरणबद्ध और डिजिटल तरीके से कराने की योजना बना रही है, जिससे खर्च में कटौती हो सके, हालांकि गृह मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि बजट कभी भी जनगणना की बाधा नहीं रहा है और आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त धनराशि उपलब्ध कराई जाएगी।

     

     

    कुल मिलाकर, 2027 की जनगणना केवल एक आंकड़ा-संग्रहण प्रक्रिया नहीं है; यह भारत की सामाजिक आत्मा को समझने और उसके आधार पर भविष्य की राजनीतिक व प्रशासनिक संरचना को पुनर्परिभाषित करने का एक सशक्त अवसर है। डिजिटल माध्यम से इसे तेज़ और अधिक व्यापक बनाया जा सकता है, जबकि जातिगत जानकारी हमारे समाज की गहराई को समझने का आधार बनेगी, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता, निष्पक्षता और सुरक्षा को सुनिश्चित करना अनिवार्य होगा। डिजिटल विभाजन, जातिगत संवेदनशीलता और राजनीतिक स्वार्थों के बीच संतुलन बनाना सरकार की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

    इस जनगणना के परिणाम न केवल अगली सदी की नीतियों की नींव रखेंगे, बल्कि यह भी तय करेंगे कि भारत किस दिशा में सामाजिक न्याय, डिजिटल शासन और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर आगे बढ़ेगा, इसलिए यह कहा जा सकता है कि 2027 की जनगणना भारत के लिए एक जन-संवेदनात्मक पुनर्जन्म की तरह है, जहां आंकड़ों में केवल संख्या नहीं होगी, बल्कि सामाजिक सत्य और भविष्य की संभावनाएं दर्ज होंगी।

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