तेरी मेरी प्रेम कहानी क़िताबों में भी न मिलेगी,
ऐसी हस्ती, ज़िंदापरस्ती नवाबों में भी न मिलेगी।
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मेरे प्रिय शहर!
तुम्हें ११८वें स्थापना दिवस की शुभकामनाएँ। तुम्हारे जीवन में यह दिन कितना महत्वपूर्ण होता है न! तुम इस महत्वपूर्ण दिन के लिए कितनी सारी तैयारियाँ करते हो, स्वयम् को कितना मनोहारी बनाते हो। कभी-कभी तो मैं तुम्हारे विषय में देर तक सोचती हूँ, सोचते-सोचते मुस्कुरा देती हूँ। क्योंकि तुम्हारी कहानी है ही इतनी सिनेमाई और रोमांचकारी।
जैसे सोचो! कि तुम एक शहर न होकर, एक पहाड़ी गाँव की कोई तरुणी, कोई छबीली हो। और तुम्हें देखकर एक परदेशी पारसी रीझ गया। उस परदेशी की अनुरक्त आँखें तुम्हारे प्राकृतिक सौंदर्य को देख, जैसे तुम में बिंध गई हों। उसने अपना हाथ बढ़ाकर तुमसे कहा होगा “मेरी साथी बनोगी?” और तुमने, मुस्कुरा कर सहमति में सिर हिलाया होगा।
लेकिन फिर, कुछ देर सोचने के बाद तुमने उससे कहा होगा “मैं तो गाँव की हूँ, अनपढ़।”
उसने कहा होगा “परीश्रमी तो हो।”
तुमने कहा होगा “आदिम हूँ, मुझमें लावण्य कहाँ?”
उसने कहा होगा “अपरिष्कृतता से बढ़कर संसार में अन्य सौंदर्य कहाँ?
तुमने “लेकिन मैं ग़रीब, भला तुम्हें क्या सुख दे सकती हूँ?”
उसने “पहली बात, तुम ग़रीब नहीं हो। तुम्हारे पास ईश्वर का दिया हुआ कितना अनमोल धन है। ये पहाड़, ये झरने, ये झील, ये नदियाँ, ये दलमा का असली अभ्यारण्य, ये प्राणवायु से भरी हरीतिमा, ये हराभरा जीवन। तुम ग़रीब हो? बहते होंगे किन्हीं नदियों में मछली और घड़ियाल, तुम्हारी नदियों में तो सोना बहता है। सोना!”
फिर तुमने अदा से कहा होगा “मुझे सोना मत कहो, मेरा नाम साकची है।”
उसने “ठीक है। और दूसरी बात, सिर्फ़ तुम ही कुछ क्यों दोगी? मैं भी तो दूँगा। मैं तुम्हें कई बड़े-बड़े कारखाने, विद्यालय, अस्पताल, धर्मस्थल, सिनेमाघर, पक्की-चौड़ी सड़कें, पक्की नालियाँ, सुव्यवस्थित बग़ीचे, बिजली और अपने कारखानों में रोजगार। जिससे अर्थ प्राप्त कर जीवन को सुख-सुविधाओं से भरा जा सके। हम दोनों ही एक-दूसरे का साथ देकर, एक-दूसरे के लिए बहुत सारी खुशियाँ इकट्ठी कर सकते हैं। मैं तुम्हें उन्नति के ऐसे शिखर पर बैठाऊँगा, कि सम्पूर्ण विश्व में तुम्हारी पहचान होगी। अब बताओ, बनोगी मेरी साथी?”
और तुमने उस परदेशी की आँखों में देर तक देखते हुए, बहुत गौर से उसकी बातें सुनने के बाद, फिर बड़ी गंभीरता से कहा होगा “अपना नाम दे सकते हो?”
तुम्हारे इस प्रश्न पर उसने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया होगा। और तभी दूर कहीं रेडियो में एक गीत बज रहा होगा “देखना चाहे जो उन्हें, आकर मुझी को देख ले। उनका मेरा एक रूप रे, उनका मेरा एक नाव (नाम) रे।”
और फिर, उस मुलाकात के बाद आज साकची (जमशेदपुर, टाटानगर) को दुनिया में भला कौन नहीं जानता। और तुमने भी तो टाटा को अपनी आत्मा में बसाया।
मेरे शहर! टाटा ने तुम्हें सुनियोजित सौंदर्य दिया। उन्नति का बीज दिया। तुम्हारी शांत झीलों के किनारे बैठना, स्वच्छ सड़कों पर टहलना या तुम्हारे हरे-भरे बग़ीचों को देखना मन को कितना सुकून देता है।
तुम्हारे आँगन की नैसर्गिक छवि में इतना आकर्षण है, कि देश भर के लोग तुम्हारी ओर खिंचे चले आये। तुमने कितनी उदारता से देश की सभी संस्कृतियों, भाषाओं और खानपान को अपने दामन में अंगीकार किया। तभी तो तुम्हें ‘मिनी इंडिया’ कहते हैं। और भारत का पिट्सबर्ग तो तुम हो ही।
किन्तु जैसे अक्सर ही, दुनिया की हर ख़ूबसूरत चीज़ का शिकार हो जाता है। तुम्हारा भी होने लगा है। तुम्हारी सुंदरता में कुछ शिकारी दाग़ चस्पा करने लगे हैं। तुम्हें स्वयम् को उनसे बचाना होगा। उनके शीरीनी आवरण को पहचानना होगा। जिससे तुम्हारी अनुपम रमणीयता सदाबहार रहे और यूँ ही दुनिया को मुग्ध करती रहे। अपना ख़्याल रखना।
शेष फिर…
तुम्हारी रहवासी
डॉली परिहार