देवानंद सिंह
बिहार में विधानसभा चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दल फेंटा कसना शुरू कर दिए हैं। इनके रणनीतिकार जमीनी हकीकत के आधार पर विधानसभा वार प्रत्याशियों के चयन प्रक्रिया को अंतिम रूप देने में जुट गए हैं । वहीं इन दलों में उथल-पुथल भी दिखना शुरू हो गया है। मसलन , जिसका टिकट कट रहा है वह अपने दल-बल के साथ दूसरी पार्टी की तरफ रुख कर रहा है। कमोबेश हर राजनीतिक दल में इस तरह का नजारा देखने को मिल रहा है।
जहां तक बिहार का सवाल है, यहां इस बार 20 साल से बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार, युवा राजद नेता तेजस्वी यादव और पढ़ें लिखे चुनावी रणनीतिकार के रूप में मशहूर जनसुराज नेता प्रशांत किशोर जैसे तीन प्रमुख चेहरे चुनाव मैदान में है। इन पर ही सबकी निगाहें टिकी हैं। यह चुनाव तीनों नेताओं के लिए एक अग्निपरीक्षा है। उनके प्रदर्शन से न सिर्फ उनकी सियासी हैसियत तय होगी बल्कि बिहार की राजनीति को भी नई दिशा मिल सकती है।
नीतीश कुमार लगातार 20 साल से बिहार की राजनीति में प्रमुख चेहरा बने हुए हैं तो तेजस्वी यादव की “बिहार अधिकार यात्रा” ने ग्रामीण इलाकों में युवाओं के बीच नई चर्चा पैदा की है। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी पहली बार विधानसभा चुनाव में उतरेगी और इसने एक साल पहले से ही चुनावी तैयारियां शुरू कर दी थीं। होमवर्क के मामले में जनसुराज आगे दिखाई दे रही है लेकिन हकीकत में परिणाम को अपने पक्ष में करने में कौन सफल होता है, यह अहम और देखने वाली बात है।
सबसे पहले नीतीश कुमार व उनकी पार्टी जदयू की बात करते हैं तो उनके लिए यह अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।
74 वर्षीय नीतीश कुमार करीब 20 साल से बिहार की सत्ता में हैं। एक समय उन्हें विकास और सुशासन के लिए ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता था, लेकिन अपनी बार-बार बदलती राजनीतिक साझेदारियों की वजह से उनके इमेज में डेंट लगा है और इसका असर कितना व्यापक होता है, यह देखने वाली बात होगी।
हाल ही में सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो और उनकी तबीयत को लेकर उठे सवालों ने लोगों के मन में शंका पैदा की है कि क्या नीतीश अब भी मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल पाएंगे? हालांकि फिलहाल बीजेपी ने उन्हें ही गठबंधन का चेहरा बनाया है। ऐसे में राजनीतिक गलियारे में सवाल यह भी उठता रहा है कि क्या नीतीश कुमार दसवीं बार मुख्यमंत्री की शपथ लेगें या फिर यह चुनाव उनके लंबे राजनीतिक करियर का अखिरी पड़ाव साबित होगा?
वहीं राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के युवा नेता तेजस्वी भी पूरे दमखम के साथ चुनावी मैदान में उतरने को तैयार हैं। हालांकि वह कितना कर पाएंगे कमाल यह देखने वाली बात होगी ?
35 वर्षीय तेजस्वी यादव के पक्ष में यह बात है कि वह राजद के संस्थापक और पूर्व रेल मंत्री तथा बिहार के मुख्य मंत्री रहे लालू प्रसाद यादव के बेटे हैं। 2020 के पिछले विधानसभा चुनाव में राजद 144 में से 75 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी लेकिन कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन के कारण तेजस्वी सरकार नहीं बना सके। पिछले कुछ सालों में उन्होंने अकेले ही पार्टी की कमान संभाली है, क्योंकि उनके पिता लालू यादव बीमार चल रहे हैं, उतने एक्टिव नहीं रह पा रहे हैं। हालांकि चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीख की घोषणा के बाद अपने पुराने अंदाज में लालू प्रसाद यादव का बयान आया कि चुनाव 6 और 11 को होने जा रहा है लेकिन हकीकत है कि चुनाव बाद नीतीश और एनडीए दोनों नौ-दो ग्यारह हो जाएंगे।
इसमें दो राय नहीं है कि भाजपा के सामने कई चुनौतियां है। इन चुनौतियों से निपटने में सफल हो पायी तो ही बेड़ा पार के बारे में सोचा जा सकता है।
गौरतलब है कि बिहार में एनडीए में भाजपा-जदयू के अलावा तीन और पार्टियां भी हैं- लोजपा (रामविलास), हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा (रालोमो)। भाजपा गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी है और सीटों के तालमेल में सभी सहयोगियों को संतुष्ट करना और जदयू की महत्वाकांक्षा को सम्मान देना पार्टी के सामने बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। अभी तक सत्ताधारी गठबंधन में सीटों पर तालमेल को लेकर चर्चा जारी है और इसके साथ ही एंटी-इंकंबेंसी से निपटने की प्राथमिक जिम्मेदारी का सामना भी उसे ही करना है। क्योंकि, केंद्र से लेकर प्रदेश तक में वह सबसे बड़ी पार्टी है। अगर पार्टी विधायक के प्रति एंटी-इंकंबेंसी से निपटने के लिए नए चेहरों पर दांव लगाती है तो ऐसे नेताओं का विपक्षी दलों के पाले में जाने का डर भी बना हुआ है, जो कड़े संघर्ष की स्थिति में नुकसान पहुंचा सकते हैं। भाजपा 100 सीटों के आसपास लड़ना चाहती है और पार्टी के चुनाव प्रभारी केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के लिए सहयोगियों के दबाव को झेलना आसान नहीं है। लेकिन इस कड़ी को साधने में वह जुटे हैं। देखने वाली बात होगी कि इसमें वह कितना सफल हो पाते हैं।
वहीं यह भी बात सच है कि बिहार में भाजपा प्रदेश स्तर पर अपना कोई ऐसा चेहरा नहीं खड़ा कर पाई है, जो नीतीश कुमार का विकल्प दे सके। नतीजा ये है कि आज पार्टी इसकी बहुत ज्यादा खामियाजा भुगत रही है और उसके सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही बिहार चुनाव लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। नीतीश के स्वास्थ्य को लेकर कई तरह की आशंकाएं मौजूद हैं. हालांकि, वह पांचवीं बार भी कुर्सी पर नजरें बिठाए हुए हैं। भाजपा के सामने चुनौती ये है कि नीतीश कुमार के भरोसे रहे बिना वह रह भी नहीं सकती, क्योंकि केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार की स्थिरता भी जदयू के 12 सांसदों के भरोसे है। ऐसे में नीतीश कुमार पर निर्भर रहकर चुनाव मैदान में उतरना भाजपा के लिए दूसरी बहुत बड़ी चुनौती है।
वहीं लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान यूं तो खुद को पीएम मोदी का हनुमान कहते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। 2024 के लोकसभा चुनाव में 100 प्रतिशत सफलता के साथ लोजपा ने जिस तरह से पांच सीटें जीतीं, उससे उनका हौसला और भी सातवें आसमान पर है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने अपनी पार्टी के लिए 40 सीटें मांगी हैं, जबकि उन्हें भाजपा की ओर से 25 सीटों का ऑफर दिया गया है। चर्चा ये भी है कि अधिकतम 30 सीटों पर भी राजी करवाने की कोशिश की जा रही है लेकिन वह मान नहीं रहे हैं। उनके द्वारा लगातार कहा जा रहा है कि सम्मानजनक सीटें नहीं मिली तो वह गठबंधन से हटकर भी चुनाव लड़ सकते है। चर्चा है कि चिराग पासवान की बातचीत जनसुराज के प्रशांत किशोर से भी हो रही है। याद रखना होगा कि 2020 के चुनाव में चिराग पासवान की वजह से सीटें घटने का रोना जदयू आज तक रो रही है। ऐसे में चिराग को राजी करना भी भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है क्योंकि, सभी सहयोगियों को 243 सीटों में ही समायोजित करना है।
भाजपा के सामने चौथी बड़ी चुनौती चुनाव रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी है। हालांकि, ऊपरी स्तर पर दोनों ही गठबंधन बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर फैक्टर के प्रभावी होने की संभावनाएं खारिज कर रहे हैं। लेकिन, पीके ने जिस तरह से बदलाव का अभियान छेड़ रखा है, उसका असर युवाओं के एक बड़े वर्ग में देखा जा रहा है। अगर वे चुनावों पर बहुत ज्यादा असर नहीं भी डाल पाए, तो कड़े मुकाबले में उनके उम्मीदवार की मौजूदगी ही चुनाव का गुणा-गणित बदल सकता है। अगर वह हर विधानसभा क्षेत्र में ‘वोट कटवा’ भी साबित हुए तो उनकी पार्टी 2025 में 1995 के बाहुबली आनन्द मोहन की बीपीपा साबित हो सकती है, जिनकी वजह से लालू प्रसाद यादव की सत्ता कायम रह गई थी।
भाजपा और एनडीए गठबंधन की सबसे बड़ी चुनौती नि:संदेह राजद और लालू प्रसाद यादव आज भी बने हुए हैं। 2020 में भी भाजपा दूसरे नंबर पर ही रही थी और तेजस्वी-लालू की अगुवाई में राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। लालू के नाम पर महागठबंधन का मुसलमान-यादव (माई) समीकरण बिहार की राजनीति में आज भी सबसे ज्यादा मजबूत है। कांग्रेस, वामपंथी पार्टी जैसी इसकी सहयोगी पार्टियों का जनाधार राजद के सहयोग से काफी प्रभावित है। बदलाव सिर्फ इतना हुआ है कि इसके मुस्लिम वोट बैंक में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी और ओवैसी की एआईएमआईएम सेंध लगाने की उम्मीद में है। 2020 में ओवैसी को इसमें सफलता भी मिली थी। अगर ये दोनों पार्टियां मुसलमानों में लालू प्रसाद यादव के तिलिस्म को नहीं तोड़ पाए तो भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा-जदयू की अगुवाई वाले एनडीए और राजद की अगुवाई वाले महागठबंधन के बीच है। चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज इसे त्रिकोणीय मुकाबले में तब्दील करने की भरपूर कोशिश में है वहीं चौथी शक्ति हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम है, जिसे सीमांचल के युवा मुसलमानों में प्रभाव को देखते हुए पूरी तरह से नजरअंदाज करना भी आसान नहीं होगा।
ऐसे में चुनावी नतीजों से ही तय होगा सत्ता की कुर्सी पर कौन काबिज होने जा रहा है। नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर इन तीनों नेताओं की राह आसान नहीं है। नीतीश कुमार के लिए यह सम्मान बचाने की लड़ाई है, तेजस्वी यादव के लिए भविष्य की परीक्षा है और प्रशांत किशोर के लिए यह पहली बड़ी परीक्षा है। चुनाव के नतीजे यह तय करेंगे कि बिहार में पुराना नेतृत्व कायम रहता है या एक नया राजनीतिक चेहरा उभरता है।


