*दूसरा चरण भी नहीं है आपराधिक छवि के प्रत्याशियों से अछूता*
देवानंद सिंह
झारखंड विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण के लिए प्रचार अपने चरम पर है और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिमार्म्स (ADR) ने उम्मीदवारों द्वारा दाखिल हलफनामों के आधार पर एक रिपोर्ट भी जारी कर दी है। रिपोर्ट यह दर्शाती है कि चुनाव में आपराधिक छवि के प्रत्याशियों का दखल कम होने वाला नहीं हैं। पहले चरण की तरह ही दूसरे चरण में भी आपराधिक छवि के प्रत्याशियों की कमी नहीं है। पहले चरण में जहां 683 प्रत्याशियों में से 174 पर आपराधिक मामले चल रहे थे, वहीं दूसरे चरण में 528 उम्मीदवारों में से 28 प्रतिशत पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो इस बात को दर्शाता है कि राजनीतिक पार्टियों के राजनीति को अपराध मुक्त करने के दावे बिल्कुल हवा-हवाई साबित हो रहे हैं।
पहले चरण की तरह ही दूसरे चरण में भी हर पार्टी ने आपराधिक छवि के प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है। भाजपा ने 32 उम्मीदवार खड़े किए हैं, जिनमें से 14 (44 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बसपा के 24 उम्मीदवारों में से 8 (33 प्रतिशत), झामुमो के 20 उम्मीदवारों में से 5 (25 प्रतिशत), कांग्रेस के 12 उम्मीदवारों में से 5 (42 प्रतिशत), आजसू पार्टी के 6 उम्मीदवारों में से 4 (67 प्रतिशत) और राजद के 2 उम्मीदवारों में से 2 (100 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि पहले चरण के लिए हुए चुनाव में 683 प्रत्याशियों में से 174 पर आपराधिक मामले चल रहे थे, जिनमें से 127 प्रत्याशियों पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे थे। पहले फेज के चुनाव में खड़े 11 प्रत्याशियों पर महिलाओं पर अत्याचार करने से संबंधित मामले भी चल रहे थे, चार प्रत्याशियों पर हत्या और 40 प्रत्याशियों पर हत्या के प्रयास का आरोप थे।
दूसरे चरण के संबंध में गंभीर आपराधिक मामलों की बात करें तो भाजपा के 32 उम्मीदवारों में से 12 (38 प्रतिशत), बसपा के 24 उम्मीदवारों में से 5 (21 प्रतिशत), झामुमो के 20 उम्मीदवारों में से 5 (25 प्रतिशत), कांग्रेस के 12 उम्मीदवारों में से 4 (33 प्रतिशत), आजसू के 6 उम्मीदवारों में से 4 (67 प्रतिशत) और राजद के 2 उम्मीदवारों में से 2 (100 प्रतिशत) पर ऐसे मामले दर्ज हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 12 उम्मीदवारों ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित मामले घोषित किए हैं। तीन उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ हत्या (पुरानी आईपीसी धारा-302) से संबंधित मामले घोषित किए हैं, जबकि 34 उम्मीदवारों ने हत्या के प्रयास (आईपीसी धारा 307 और बीएनएस धारा 109) से संबंधित मामले घोषित किए हैं।
पहले चरण में 36 सीटों पर चुनाव लड़ रहे भाजपा के 20 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले लंबित थे, इनमें से 15 पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे थे। वहीं, 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस और 23 सीटों पर चुनाव लड़ रहे झामुमो के 11-11 प्रत्याशियों पर आपराधिक मामले चल रहे थे, इनमें से कांग्रेस के आठ और झामुमो के सात प्रत्याशियों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। राजद के पांच में से तीन, आजसू के चार में से दो और जदयू के दोनों, जबकि लोजपा के एक प्रत्याशी पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे थे, चुनाव इस तरह अपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारना निश्चित तौर पर बहुत गंभीर मामला है, इसके लिए राजनीतिक पार्टियां तो दोषी हैं ही, बल्कि चुनाव आयोग का दोष भी माना जाएगा, क्योंकि उसे ऐसे प्रत्याशियों को टिकट दिए जाने पर पूरी तरह रोक लगा दी जानी चाहिए।
इतिहास पर गौर करें तो भारत में राजनीति और अपराध के रिश्ते की शुरुआत 20 वीं सदी के मध्य में हुई थी, जब स्वतंत्रता संग्राम के बाद लोकतंत्र की नींव पड़ी। हालांकि, समय के साथ यह संबंध और भी गहरा होता चला गया। भारतीय राजनीति में अपराधियों का प्रवेश 1980 और 1990 के दशक में खासतौर पर बढ़ा। इस दौर में कई बाहुबली नेताओं और अपराधियों ने राजनीति में अपनी पैठ बनाई। इन नेताओं ने अपनी आपराधिक छवि को एक तरह से अपनी ताकत के रूप में पेश किया और यह साबित कर दिया कि किसी भी लोकतंत्र में वोट बैंक को नियंत्रित करने के लिए किसी भी स्तर तक जाया जा सकता है, लेकिन समय-समय पर यह सवाल भी उठता रहा है कि क्या राजनीति में अपराधियों का प्रवेश समाज के लिए खतरे का संकेत है? क्या यह लोकतंत्र को खतरे में डालता है? अगर, अपराधियों को चुनावी टिकट मिलना जारी रहता है, तो क्या इससे हमारे चुनावों की ईमानदारी प्रभावित होती है? ये काफी गंभीर सवाल हैं और चिंताजनक भी, क्योंकि यह प्रवृत्ति आज भी जारी है, कुछ लोग अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि को छिपाने के बजाय उसे अपनी पहचान के रूप में शिद्दत से पेश करते हैं। कई अपराधी नेता चुनावी राजनीति में अपनी पकड़ बनाने में सफल रहे हैं और ऐसे उम्मीदवारों को चुनावी टिकट देने की प्रक्रिया आज भी बदस्तूर जारी है।
राजनीति में अपराधीकरण का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह लोकतंत्र को कमजोर करता है। जब राजनीति में अपराधियों का प्रभाव बढ़ता है, तो समाज में कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने का खतरा बना रहता है। अपराधियों को राजनीति में टिकट देने से यह संदेश जाता है कि आपराधिक गतिविधियों को एक तरह से ‘मान्यता’ मिल रही है, इससे युवाओं और समाज के अन्य वर्गों में गलत संदेश जाता है। इसके अलावा, इस प्रक्रिया से चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता भी प्रभावित होती है। चुनाव में धन, बल और धौंस का खेल बढ़ जाता है, जिससे आम मतदाताओं को अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनने में मुश्किलें आती हैं, इससे निश्चितौर पर चुनावी परिणाम भी प्रभावित होते हैं, क्योंकि आपराधिक नेताओं का प्रभाव मतदाताओं पर दबाव डालने के रूप में सामने आता है।
सबसे महत्वपूर्ण कदम अपराधियों के चुनावी मैदान में आने को रोकने के लिए कानून में सुधार करना होगा, जिसके लिए भारतीय निर्वाचन आयोग को और कड़ी निगरानी रखने की जरूरत है, ताकि उन नेताओं को चुनाव लड़ने से रोका जा सके, जिनके खिलाफ गंभीर अपराधों के मामले चल रहे हों। इसके लिए एक ऐसा कानून बनाना आवश्यक है, जिसमें आपराधिक मामलों में आरोपी नेताओं को चुनावी प्रक्रिया से बाहर रखा जाए। वहीं, चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए निर्वाचन आयोग को भी और अधिक शक्तिशाली बनाया जाना चाहिए। आयोग को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह किसी नेता को चुनावी टिकट देने से पहले उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि की गहरी जांच कर सके। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि केवल साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार ही चुनावी मैदान में उतरें।
इसके अलावा, राजनीतिक दलों को यह समझाना होगा कि राजनीति में अपराधियों को टिकट देना समाज और लोकतंत्र के हित में नहीं है। इसके लिए पार्टी अध्यक्षों और नेताओं को इस दिशा में नैतिक जिम्मेदारी उठानी होगी, ताकि वे अपने दल में ऐसे उम्मीदवारों को मौका न दें, जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हों।