भारत को निर्णायक बनकर वैश्विक मंचों पर आगे बढ़ने की जरूरत
देवानंद सिंह
वर्ष 2025 के जून माह में जब कनाडा के अल्बर्टा प्रांत के कानानास्किस शहर में जी-7 देशों का वार्षिक शिखर सम्मेलन आयोजित हो रहा है, तो यह अवसर सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विमर्श के लिए नहीं, बल्कि भारत की वैश्विक स्थिति और उसके द्विपक्षीय संबंधों के आकलन के लिए भी एक आईना बन गया है। इस बार सम्मेलन में भारत को औपचारिक आमंत्रण न मिलना केवल एक सामान्य राजनयिक घटना नहीं मानी जा रही, बल्कि इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत की विदेश नीति की दिशा पर गहराई से विचार करने के संकेतक के रूप में देखा जा रहा है।
G-7 यानी ग्रुप ऑफ़ सेवन विश्व की सात सबसे औद्योगिक और विकसित अर्थव्यवस्थाओं, अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान का एक अनौपचारिक मंच है। इसकी स्थापना 1975 में वैश्विक तेल संकट और आर्थिक अस्थिरता के समाधान हेतु की गई थी। इस मंच की कोई कानूनी हैसियत नहीं है और न ही इसका कोई स्थायी सचिवालय या संवैधानिक ढांचा है, लेकिन इसके निर्णय, विचार-विमर्श और घोषणाएं अक्सर वैश्विक भू-राजनीति और आर्थिक संरचनाओं को प्रभावित करते हैं। 1980 के दशक में जब इस समूह ने आर्थिक विषयों के साथ-साथ राजनीतिक और सुरक्षा मुद्दों को भी अपने एजेंडे में सम्मिलित करना प्रारंभ किया, तभी से यह मंच पश्चिमी दृष्टिकोण और उदार लोकतंत्र के सिद्धांतों का प्रतिनिधि बन गया। भारत G-7 का सदस्य कभी नहीं रहा है, लेकिन 2019 से हर वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विशेष अतिथि के रूप में सम्मेलन में आमंत्रित किया जाता रहा है। यह आमंत्रण उस देश की ओर से आता है, जो उस वर्ष G-7 की अध्यक्षता कर रहा होता है। 2020 को छोड़ दें, जो कोविड-19 के कारण रद्द कर दिया गया था, तो भारत की सहभागिता लगातार बनी रही, चाहे वह अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी या जापान की अध्यक्षता हो।
इस वर्ष की अध्यक्षता कनाडा कर रहा है और यह वही देश है, जिसके साथ भारत के रिश्ते बीते एक साल में कड़वाहट के चरम पर पहुंच चुके हैं। ख़ासकर, खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा भारत पर सीधे तौर पर आरोप लगाने के बाद दोनों देशों के बीच राजनयिक तनाव गहराया, हालांकि अब कनाडा में मार्क कार्नी के नेतृत्व में नई सरकार है, लेकिन भारत के साथ इस मोर्चे पर अभी तक कोई सार्थक सामंजस्य नहीं दिखता। ऐसे में, भारत को सम्मेलन में आमंत्रित न किया जाना केवल एक ‘डिप्लोमैटिक स्नब’ नहीं, बल्कि एक ठंडी, लेकिन स्पष्ट सियासी प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस विषय पर तीखी टिप्पणी करते हुए इसे भारत की विदेश नीति की बड़ी चूक करार दिया। उन्होंने यह भी इंगित किया कि इस वर्ष ब्राज़ील, मैक्सिको, दक्षिण अफ़्रीका, यूक्रेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को आमंत्रण मिला है, जो यह दर्शाता है कि मेज़बान देश अपने राजनीतिक संकेतों और भूराजनीतिक प्राथमिकताओं के आधार पर अतिथि सूची बनाते हैं। ऐसे में, भारत की अनुपस्थिति एक रणनीतिक संदेश ही है।
हालांकि, भारत सरकार या विदेश मंत्रालय की ओर से इस विषय पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन यह मौन स्वयं में एक तरह का आत्मसंयम या फिर कूटनीतिक असहायता के रूप में गूंजता है ? एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अब G-7 की वैश्विक अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी पहले जैसी मजबूत नहीं रही। IMF के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2000 में G-7 देशों की वैश्विक GDP में हिस्सेदारी 40% थी, जो अब घटकर 28.43% रह गई है। इसके विपरीत उभरती अर्थव्यवस्थाएं ख़ासकर ब्रिक्स राष्ट्र (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ़्रीका) और जी-20 समूह वैश्विक आर्थिक संतुलन को नए रूप में परिभाषित कर रहे हैं, इसलिए यह सवाल लाजिमी है कि क्या G-7 अब भी उतना ही प्रभावशाली मंच है कि जितना दो दशक पहले था? और क्या भारत जैसे विकासशील और तेज़ी से उभरते देश को इस मंच से वंचित किया जाना वैश्विक प्रभाव में कोई वास्तविक गिरावट ला सकता है?
यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि भारत हाल ही में 2022-23 के लिए G-20 समूह की अध्यक्षता कर चुका है और इस भूमिका में उसने वैश्विक दक्षिण की आवाज़ को बुलंद करने की कोशिश की थी। भारत ने ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ जैसे व्यापक दृष्टिकोण को सामने रखकर विकासशील देशों की प्राथमिकताओं को मंच पर लाने की कोशिश की।
इसके बरक्स G-7 अभी भी एक ऐसा समूह है, जो मुख्यतः पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था और आर्थिक महाशक्तियों की प्राथमिकताओं पर केंद्रित रहता है। ऐसे में, सवाल यह है कि क्या भारत को G-7 की अस्थायी अतिथि-संभागिता की चिंता करनी चाहिए या अपनी बहुपक्षीय नेतृत्व क्षमता पर भरोसा रखना चाहिए? भारत और कनाडा के संबंध पहले ही खालिस्तान मुद्दे और प्रवासी सिख समुदाय की राजनीतिक सक्रियता को लेकर तनावपूर्ण हैं। हाल के वर्षों में भारत ने कनाडा में अपने उच्चायुक्त के स्तर तक प्रतिनिधित्व सीमित कर दिया है और कई सिख नेताओं को आतंकवादियों की सूची में शामिल किया है। वहीं, कनाडा ने भी भारत के खिलाफ खुफिया दावे सार्वजनिक किए। इस पृष्ठभूमि में यह स्वाभाविक है कि जी-7 की अध्यक्षता कर रहे कनाडा ने भारत को आमंत्रित करने में रुचि नहीं दिखाई।
हालांकि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मतभेदों को दरकिनार कर कूटनीतिक व्यावहारिकता की नीति अपनाई जाती है, लेकिन इस बार कनाडा ने एक स्पष्ट सिग्नल देने का विकल्प चुना। यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का एक अलिखित लेकिन प्रभावी तरीका है, जहां ‘निमंत्रण की अनुपस्थिति’ ही संदेश बन जाती है। भारत को यह विचार करना होगा कि क्या वह वैश्विक मंचों पर केवल ‘आमंत्रित अतिथि’ बनकर संतुष्ट रहेगा, या फिर अपने बहुपक्षीय व बहुस्तरीय कूटनीतिक विकल्पों को और सशक्त करेगा। भारत की विदेश नीति को अब यह समझना होगा कि समकालीन वैश्विक राजनीति में भावनाओं से ज़्यादा प्रभाव, व्यावसायिकता से ज़्यादा रणनीति, और आदर्शवाद से ज़्यादा व्यावहारिकता का महत्व है।
भारत को एक ओर G-20, ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन जैसे मंचों पर सक्रिय बने रहना होगा, वहीं दूसरी ओर जी-7 जैसे पुराने लेकिन अब भी प्रभावशाली मंचों पर अपनी उपस्थिति को बनाए रखने की कोशिश भी करनी चाहिए। यह संतुलन ही किसी परिपक्व वैश्विक शक्ति की पहचान होती है। कुल मिलाकर, भारत का जी-7 सम्मेलन में आमंत्रित न होना निश्चित रूप से एक प्रतीकात्मक झटका है, ख़ासकर तब जब पिछले छह वर्षों से यह एक नियमित राजनयिक औपचारिकता बन गई थी। परंतु इसे केवल कूटनीतिक चूक कह देना जल्दबाज़ी होगी। यह घटना भारत और कनाडा के द्विपक्षीय तनाव, वैश्विक शक्ति संरचना में परिवर्तन और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की बदलती परंपराओं का मिला-जुला परिणाम है। भारत को अब इस स्थिति को आत्मचिंतन और रणनीतिक पुनर्संयोजन के अवसर की तरह देखना चाहिए। एक विकासशील, लेकिन वैश्विक नेतृत्व की आकांक्षा रखने वाला राष्ट्र तब तक परिपक्व नहीं माना जा सकता जब तक वह निमंत्रण या अपमान की राजनीति से ऊपर उठकर अपने दीर्घकालिक लक्ष्य को स्पष्ट न करे।
भारत को अब केवल अतिथि नहीं, बल्कि निर्णायक बनकर वैश्विक मंचों पर आगे बढ़ना होगा, जहां न्योता न मिलने से ज़्यादा अहम यह होगा कि भारत की आवाज़ बिना बुलाए भी गूंजती रहे। प्रभाव, पहचान और प्रवृत्ति का संतुलन, यही कूटनीति का नया परिप्रेक्ष्य है।


