क्या छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की बढ़ती मुठभेड़ निर्णायक मोड़ है?
देवानंद सिंह
पिछले कुछ महीनों में छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की मुठभेड़ों में उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिली है। इसके पीछे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का वह दावा लगता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि माओवादी आंदोलन अब अपने अंतिम दौर में है और 31 मार्च 2026 तक भारत को माओवाद मुक्त करने का लक्ष्य रखा गया है। क्या अमित शाह का दावा सच साबित होगा या फिर माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की कार्रवाई एक बड़ा संघर्ष बन कर रह जाएगा? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि माओवादी हिंसा केवल सुरक्षा बलों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समाज की जिंदगियों को भी प्रभावित करने वाला होता है।
2024 की शुरुआत से ही छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की कार्रवाई को लेकर काफी उत्साह देखने को मिला है। इसी जनवरी में अब तक 45 संदिग्ध माओवादियों के मारे जाने का दावा किया गया है। इनमें से कुछ प्रमुख मुठभेड़ों में 14 और अन्य में 18 माओवादियों की मुठभेड़ में मौत की घटनाएं हुईं है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय भी इस सफलता को लेकर आश्वस्त दिखते हैं। उनका मानना भी है कि माओवादियों के खिलाफ यह अभियान अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका है। उनका दावा है कि राज्य सरकार 2026 तक माओवाद को समाप्त करने के अपने संकल्प को पूरा करेगी।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सोशल मीडिया पर लिखा कि सुरक्षाबलों की सफलता माओवाद के खात्मे की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है और नक्सलवाद अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। उनका यह दावा इस तथ्य पर आधारित है कि माओवाद प्रभावित जिलों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। 2018 में 126 माओवाद प्रभावित जिले थे, जो 2024 तक घटकर 38 रह गए हैं, और इनमें से आधे से अधिक जिले छत्तीसगढ़ में हैं, जिससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि माओवादी संगठन को कमजोर किया जा रहा है, हालांकि पूरी तरह से नष्ट करना अभी भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
माओवादी आंदोलन को 1970 के दशक से लेकर अब तक कभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सका है। माओवादियों की गुरिल्ला युद्ध शैली और उनकी सशक्त जड़ों ने उन्हें हर सरकार के लिए लगातार चुनौती बना दिया है। सुरक्षाबलों की कार्रवाई ने हालांकि माओवादियों की शक्ति को कमजोर जरूर किया है, लेकिन माओवादी संगठन को पूरी तरह से समाप्त करना एक दीर्घकालिक चुनौती हो सकती है। यह सही है कि माओवादियों की हिंसा की घटनाएं कुछ क्षेत्रों में घट चुकी हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे पूरी तरह से खत्म हो गए हैं। माओवादियों का अभी भी छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में गहरे प्रभाव हैं और उनकी क्षमता को कम करके आंकना जोखिम भरा हो सकता है।
माओवादी आंदोलन के खिलाफ चलाए जा रहे ऑपरेशनों का सबसे बड़ा शिकार आदिवासी समाज बन रहा है, जो अत्यंत चिंताजनक है। दरअसल, माओवादी और सुरक्षाबल दोनों ही आदिवासियों को अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। माओवादी आंदोलन में शामिल आदिवासी, जिनके लिए यह एक संघर्ष था, आज सुरक्षाबलों के निशाने पर हैं। सुरक्षाबलों के द्वारा माओवादियों के खिलाफ किए गए ऑपरेशनों में आदिवासी समुदाय के सदस्य भी मारे जाते हैं, जैसा कि बीजापुर और दंतेवाड़ा की हाल की घटनाओं से साफ़ पता चलता है।
वहीं, आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी भी सुरक्षा बलों का हिस्सा बनते हैं, लेकिन उनका जीवन भी सुरक्षित नहीं होता। इन आदिवासी लोगों का जीवन एक दुःस्वप्न बन चुका है, जहां वे न तो माओवादी बनकर सुरक्षित हैं, न ही सुरक्षा बलों के सदस्य बनकर। यह कहना गलत नहीं होगा कि बस्तर क्षेत्र में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। जो आदिवासी माओवादी आंदोलन के भागीदार रहे हैं, उन्हें दोनों तरफ से हथियार थमा दिए जाते हैं। नतीजतन, आदिवासी ही मारे जा रहे हैं। यहां तक कि वे जो आत्मसमर्पण कर देते हैं, उन्हें भी सुरक्षा बलों के तहत वापस हथियार थमा दिए जाते हैं। यह स्थिति किसी भी सूरत में आदिवासी समुदाय के लिए सुधार की ओर नहीं बढ़ रही है, बल्कि उनके जीवन की कठिनाइयां और बढ़ रही हैं।
माओवादी आंदोलन का सबसे गहरा प्रभाव उन आदिवासी क्षेत्रों पर पड़ा है, जिनकी अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना पहले ही कई समस्याओं का सामना कर रही थी। माओवादियों ने इन क्षेत्रों में अपनी जड़ें मजबूत कीं और स्थानीय लोगों को अपने आंदोलन से जोड़ा। माओवादी आंदोलन का आदिवासी क्षेत्रों में एक सामाजिक-आर्थिक पैटर्न था, जिसमें उन्होंने गरीबी, शोषण और अत्याचार के खिलाफ अपनी लड़ाई को आधार बनाया। हालांकि, सुरक्षाबलों के ऑपरेशनों ने माओवादियों के प्रभाव को कमजोर किया है, लेकिन इन क्षेत्रों में अब भी माओवादियों के समर्थक मौजूद हैं, जो सरकार की नीतियों और सुरक्षाबलों की कार्रवाइयों के खिलाफ सक्रिय रहते हैं।
मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशनों का उद्देश्य माओवादियों को समाप्त करना नहीं, बल्कि औद्योगिक घरानों के लिए खनन क्षेत्रों को साफ़ करना है। बस्तर क्षेत्र में खनिज संसाधनों की प्रचुरता है और राज्य सरकार के कई अभियानों को लेकर यह सवाल उठते रहे हैं कि क्या सुरक्षाबलों की कार्रवाइयां सिर्फ माओवादी आंदोलन को खत्म करने के लिए हैं या फिर इसे औद्योगिक सरकारी कार्रवाई और औद्योगिक हित उद्देश्यों के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है। यह मुद्दा अभी भी खुला है और एक गहरी जांच का विषय है।
कुल मिलाकर, छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ चल रही सुरक्षाबलों की कार्रवाई एक जटिल और बहुपहली समस्या का हिस्सा है। जहां एक ओर सुरक्षाबलों की सफलता को सकारात्मक रूप में देखा जा सकता है, वहीं, दूसरी ओर आदिवासी समाज की पीड़ा और माओवादियों की कमजोर होती शक्ति को लेकर गंभीर सवाल उठते हैं। माओवादी आंदोलन के खात्मे का दावा एक ओर जहां केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने किया है, वहीं दूसरी ओर बस्तर के आदिवासी समाज की स्थिति और माओवादी संगठन की अदृश्य ताकत अभी भी इस लड़ाई को निर्णायक मोड़ से दूर रखती है। सरकार के इस अभियान को सफल बनाने के लिए सिर्फ माओवादी संगठन को नहीं, बल्कि आदिवासी समाज की समस्याओं और स्थानीय मुद्दों को भी सही तरीके से समझने और समाधान करने की जरूरत है।