ड़ॉक्टर सुनीता बेदी
दशमेश पिता सुंदरी माता
के लाडले हुए चार।
दादी गुजरी ने बड़े प्यार से
भरे उनमें संस्कार।।
हँसते,खेलते भाई-भाई
आपस मे चार यार।
पढ़ाई-लिखाई संग गतका
और सीखे चलाना तलवार।
अधर्म केआगे झुकना नही,
न निहत्थे पे करना वार।
छोटा ,प्यारा फतेह सिंह
तो बड़ा अजित जिम्मेदार
दूसरे ,तीसरे भाई में
जोरावर तथा, था जुझार।
दो किशोर दो बालक ही
बने हुए थे जत्थेदार।
चम चम चमकती उनकी
अभ्यास क़रतीं हुई तलवार।
हवा से बात करते थे वो
जब होते वो घुड़सवार ।।
कमाल का गतका फेरना
मचा दे शत्रुओं में हाहाकार।।
चकरब्यूह सा घेरता मुगलों को
धूलचटाती उनकी मार।
वजीर खान नेअनंतपुर में
जीना इनका किया दुश्वार।।
धर्म कबूल कर लो मेरा,
नही,सर धड़ से होगा बहार।
चमकौर में शुरू हुई लड़ाई
अजित पुत्र की प्रबल प्रहार ।
वीरगति को प्राप्त हुआ जब
जुझार पुत्र ने भरी हुंकार।
लेने भाई के मौत का बदला
कूद पड़ा वो ,मानी न हार ।
उनके कौतक देख देख के
मुगल भी आश्चर्य चकित निहार।
पर वैरी तो वैरी ही थे।
एक बच्चे से लड़े थे चार।
अंतिम साँस तक रण कौशल
भांजती रही उनकी तलवार।
चमक चम चम, चमक चम चम
तलवार दिखाती अपनी धार।
जयकारे लगाये, पिता दशमेश के,
(सवा लाख नाल एक लडावां
तां, गुरु गोविंद सिंह नाम कहावां।।)
बेदर्दी मुगलों ने मिलकर
उस मासूम को भी दिया मार।।
पर मरने से पहले जुझार
जमकर लगायी उन्हें फटकार।
तुम्हारे धर्म नहीं कबूल है।
मर जाऊँगा पर ,नही शर्मशार
अपना सिख धर्म होएगा।
सर उठाकर जिएं सरदार ।।
(बोले सो निहाल,सत श्री काल)
उधर औरंगजेब का फरमान
दादी संग दो अबोध फरार ।
वजीर खान का फतवा जारी
जो पकड़वाए, ईनाम मिले भारी।
घर का नौकर ही निकला बेईमान।
सिक्कों की खातिर बेचा ईमान।
पकड़ दादी संग,दोनों मासूमो को लाया गया भरी दरबार।
मुगलों का धर्म कबूल करो।
तो,राजसी ठाट,सिक्के हज़ार।
अबोध बच्चो को भी बोध था।
अपने धर्म की अहमियतऔर संस्कार।
सीना तान खड़े रहे,भरी महफ़िल में डटे रहे ।।
वजीर के आगे झुके नही।
डर के आगे टूटे नही।।
कुटिल वजीर को सूझी उपाय
इनको दीवार में क्यों न चुनवाये ?
बच्चो के प्यार में होके मजबूर ।
पिता आएगा धर्म करने क़बूल ।
बेखौफ दोनों मासूम खड़े रहे।
मुगल सल्तनत भी अड़े रहे।
दीवार धीरे धीरे शुरू हुई ।
मौत की उल्टी गिनती शुरू हुई।
निर्जीव ईंट को भी आइ लाज
किसी धर्म की काहे मोहताज।
पापी मैं क्यों?चरमराई दीवार
धारा शायी होकर बचाई लाज।।
वजीरे को तब भी ,बात समझ न आयी।
मासूमों के गर्दन मरोड़, बदले की आग बुझाई।
ऐसा था वो कसाई।
रहम नही था भाई।।
उस दिन से मुगलों का शुरू हुआ पतन।
नस्तो नाबूत हो गये, छोड़ा ये वतन।
सिख धर्म कोई बेल नही थी
जो मुगलों के आगे झुक जाती।
खातिर सिक्खों चालीस हज़ार
वार दिए पुत्र अपने चार।।
सरहिन्द की माटी हुई पवित्र
चारो ओर मासूमो की प्रीत।
व्यर्थ न गयी उनकी कुर्बानी
बन गयी सबकी गुरवाणी ।
वाहे गुरु वाहे गुरु की आवाज़
फ़िज़ा में तैरती है आज
फिज़ा में तैरती है आज।।
(मित्र पियारे नु, हाल मुरीदा दा कहना।)