है बहुत शिकायत हे रघुबर
क्यों छोड़ गये अपना ये घर।
रंगोली सजती थी नित नव
क्यों पार किया तुमने ये दर।।
सब छूट गये प्यारे वो संग
महलों का कांपा अंग अंग।
जो अवधपुरी थी सजी धजी
उतरे सारे के सारे रंग।
कैकयी ने असली बात छिपा
धर लिया कलंक भी अपने सिर।।
राजा दशरथ भी देह छोड़
चल दिये साथ वन को तेरे।
नगरी सगरी भी मूक बधिर
नैनों में उमड़े घन घेरे।
घर में ही जो बनवासी है
उर्मिल बिचली है इधर उधर।।
मां कौशल्या बस रोती थी
कैकयी भी मौन अंधेरेमें।
वधू हाल देख सुमित्रा मां
पड़ गई शून्य चित्त फेरे में।
धरती भीगी चहुंओर विलप
अंबर रोया आंसू झर झर।।
फट गया कलेजा चीर चीर
देखा निष्प्राण अयोध्या को।
अपशब्द ज्वाल धधकी मुखसे
कोसा जननी आराध्या को।
ग्लानी से तपता रहा भरत
शत्रुघ्न नमे आंसू भर भर।।
मुरझे डाली के पत्र पुष्प
तालों के शतदल बिखर गये।
बैठी चुपचाप सुबह पथ पर
कलरव पेड़ो पर सिहर गये।
लौटे लेकर विश्वास पस्त
सम तात सुमन्त शीष पर धर।।
अब चले गये तो चले गये
निष्कंटक राह तुम्हारी हो।
वन देवी चरण पखारेगी
शिवशंकर के अवतारी हो।
यह रंगमंच लीला तेरी
हम सबकी डोरी तेरे कर।।