कोरोना….ये मौत की मुनादी है…. धीरेंद्र
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मैंने पहली बार साल 2013 में किसी को अपनी नजर के सामने मरते देखा था… मेरे लिए अभी तक का यह अकेला अनुभव है…मेरी मां साल 2013 में ही दिव्यलोक को गमन की थी.. मां कहती थी कि सरकारी अस्पताल में ईलाज नहीं करवाउंगी क्योंकि, जो वहां जाता है जीवित नहीं लौटता… नियति ने मां के लिए दिव्य लोक का सफर सरकारी अस्पताल से ही तय किया.. पटना के बड़े निजी अस्पताल के डॉक्टर ने कह दिया था कि मां को अब घर ले जाइए सेवा कीजिए.. डॉक्टर का इशारा साफ था… परिवार के लोगों ने मां को घर ले आया.. लेकिन, हाय रे नियति! अचानक मां की तबीयत बिगड़ी रविवार की शाम…शहर के निजी अस्पताल ने मां को भर्ती करने से इंकार कर दिया.. मां बेहोश थी, हम सब होश में थे…मां को बताए बगैर मेडिकल कॉलेज ले जाना तय हुआ….मां अस्पताल में दो रात जीवित रही और दोनों रात मैं मां के साथ आईसीयू में रहा.. हर घंटे लोगों को मरते देख रहा था…डर भी रहा था और डरते हुए निडर भी हो रहा था..जब भी किसी बेड के पास से रोने की आवाज आती मैं समझ जाता…डॉक्टर आते और मेरी आशंका पर मुहर लगा देते… मुझे चिंता अपने रोगी की होती.. मां की चलती सांस की गति मेरे मन में हर्ष का संचार कर देता.. दूसरे के दुख से पनपा अवसाद मां को जीवित देख खुशी और संतोष में तब्दील हो जाता..
जब से कोरोना का आतंक फैला है तब से मौत को महसूस करने की कोशिश कर रहा हूं…शुरूआती दिनों में भय था…फिर सामना करने का साहस हुआ..फिर भय हुआ फिर साहस हुआ.. फिर भय हुआ फिर साहस हुआ… कमोबेश भय-साहस का सिलसिला मार्च से जारी है….लेकिन 14 जुलाई की सुबह जैसे ही खबर मिली कि मित्र पंकज नहीं रहे…भय का पलड़ा भारी हो गया…खबरों की भीड़ ने भय को मजबूत किया है… मनुष्य जबतक दुशमन की ताकत को समझ नहीं लेता तबतक भयभीत होना और भय के साथ मजबूत होना ही उसके लिए श्रेयस्कर है…
कल एक बड़े भाई ने फोन पर पूछा कि धीरू लॉकडाउन के इस काल में समय कैसे कटता है… फोन पर उन्हें सच नहीं बता सका…मेरी दिनचर्या का सच कुछ इस प्रकार है… मैं हर दिन सुबह अखबार पढ़ने के साथ ही मौत को देखने –समझने की कोशिश करता हूं… मौत की संभावित आहट से डरता हूं… दिन ढलता है मौत का साया खत्म होने लगता है जिंदगी की संजीविनी संचारित होती है… दोपहर से शाम होते होते आर्थिक और सामाजिक रूप से सफल कहलाने के लिए कौन सा जतन किया जाए इसकी कल्पना और कार्ययोजना में समय लगाता हूं…शाम से रात तक सोशल मीडिया/वीकिपीडिया/गूगल/किताब के आलोक में कुछ पढ़ता हूं… और, रात में भय के साथ भविष्य की सुखद कल्पना सीने में दबाए सो जाता हूं… हां इनमें से ही हर किसी का समय थोड़ा कम कर चिंतन की धार को और धार देता हूं..
#कौन है कोरोना?
कोरोना वो अदृश्य राक्षस है जिसे आज के ऋषि (वैज्ञानिक) ढंग से समझने की कोशिश कर रहे हैं… कहने का तात्पर्य यह है कि अभी तक कोरोना क्या है? सही माएने में हम समझने में नाकाम हैं.. कोरोना को लेकर जारी की गई हर थ्योरी 15 दिन बाद निरस्त हो जाती है..शुरू में कहा गया कि गर्मी में यह खत्म होगा/बच्चों को नहीं होगा/जवान कम प्रभावित होंगे/जो पीड़ित के संपर्क में होगा उसे सबसे प्रबलता से पकड़ेगा…लेकिन आज सभी तर्क बहस के चबूतरे पर हांफ रहे हैं..हर दिन एक नया तर्क सामने होता है…हर दिन एक नई दवा सामने होती है और पहले वाली दवा को उसकी औकात बता रही होती है… किसी ने कहा कि वायरस धीरे धीरे खुद कमजोर हो जाएगा औऱ खत्म हो जाएगा… यह एक ऐसी कल्पना कि चंगेज खां या तो स्वयं एक दिन बूढ़ा हो मर जाएगा या एक दिन कत्लेआम करते करते थक जाएगा औऱ उस समय जो जिंदा रहेगा जिंदगी उसका इस्तकबाल करेगी
#बहसबाजों की फौज है
मनुष्य का स्वभाव है अपनी गलती को छोड़ दूसरे की गलती पर प्रश्न करना…कोरोना ने प्रश्नकर्ताओं की फौज बड़ी कर दी है…कल एक मित्र फोन कर सरकार की गलती का हिसाब मुझसे मांग रहे थे… मैंने कहा कि अदृश्य दुश्मन के समाने कौन सी नीति सही है और कौन सी गलत ये कैसे कहा जा सकता है? अधकचरी जानकारी के अभाव में दवा बताने वालों की भी कमी नहीं है… हां एक बात पर हम सब सहमत हैं कि जीवन की पुरानी पद्धति पर ही लौटना होगा… इस विषय पर हम सभी सहमत इसलिए हैं कि जीवन की पुरानी पद्धति को हम सबने छोड़ दिया है..लिहाजा हर कोई दूसरे के सामने यह कहने में लज्जित नहीं हो रहा कि मैंने पुरानी पद्धति को छोड़ मृत्यु को निमंत्रण दिया है..
#कोरोना को लेकर सरकार कहां है?
मुझे ऐसा लगता है कि कोरोना को लेकर सरकार कहां है और क्या कर रही है? इस प्रश्न से अधिक आवश्यक है यह जानना कि कोरोना को लेकर हम कहां हैं और क्या कर रहे हैं? दरअसल कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना में रोटी-कपड़ा और मकान की आधारभूत आवश्यकता के नीचे सरकार दबी हुई है… इसके बाद का स्थान है शिक्षा और स्वास्थ्य का…सरकार यह आरोप स्वीकार करने को तैयार हो सकती है कि अमूक व्यक्ति कोरोना या किसी अन्य बीमारी के कारण मर गया… लेकिन, कोई भूख से मर जाए यह आरोप सरकार को स्वीकार नहीं है…लिहाजा मौत की आहट पर लॉकडाउन और अनलॉक का खेल सरकार खेल रही है… सरकारें भूख को निजी असफलता मानती है.. इसलिए बाजार-संस्थान खोला जा रहा है… आर्थिक गतिविधि जारी हो कोई भूखे ना मरे…कोरोना तो एक अदृश्य राक्षस जैसा है जिसके सामने विश्व बौना है… हमारी सरकार के लिए भी बौना साबित होना अपमान का विषय नहीं…जरूरी है सरकार के भरोसे ना होकर हम खुद के भरोसे अधिक रहें…मृत्यु सरकार की नहीं हमारी होगी..
#क्यों है कोरोना….?
अमूमन तौर पर लोगों का कहना है कि हर सौ साल के अंतराल पर ऐसी महामारी वैश्विक स्तर पर आती है….यकीन मानिए इतिहास के कई नरपिशाच राजनेताओं के बारे में पढ़ा, इतिहास के बड़े बड़े युद्ध के बारे में पढ़ा लेकिन 1918-21 के दरम्यां वैश्विक महामारी आई थी इसकी जानकारी इस कोरोना काल में ही हुई…हां, कुछेक स्थान पर किसी साल में आए भूकंप/भूखमरी/प्लेग/और हैजा के नाम पर हुई तबाही का उल्लेख है.. लेकिन किसी भी वैश्विक महामारी के बारे में जानकारी हमें इसी काल में हुई…शायद इतिहासकारों ने राजनेताओं की स्तुतिगान करते करते सामान्य मानव की पीड़ा को महसूस ही नहीं किया… क्योंकि भूकंप की चर्चा भी इसलिए की जाती रही कि फलां नेता इस समय मानव सेवा में लीन थे…भूखमरी के समय राजा या शासन ने क्या किया यह बताना ही इतिहासवेत्ताओं का उद्देश्य रहता है…
#मनुष्य जाहिल है…
लोगों का कहना है कि अंधाधुंध विज्ञान का विकास ही महामारी का जनक है…अगर ऐसा है तो क्या महामारियां भी विकास के सौ साल के सफर का इंतजार करती है? या, विज्ञान आधारित विकास के अंतिम पायदान पर मनुष्य है? या, हम इतने जाहिल हैं कि प्रकृति की चेतावनी की अनदेखी कर प्रकृति को कहर बरपाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं… और प्रकति हिट एंड रन का खेल खेल रही है जिसमें हिट एंड रन की औसत गति अभी तक सौ साल की है….
शायद तीसरा तर्क ज्यादा मजबूत है…. हां, हम जाहिल हैं…जाहिल का ही दूसरा नाम मनुष्य है… हम गलती पर रोते हैं..गिड़गिड़ाते हैं…डरते हैं लेकिन, संभलते नहीं…हम सच को जानते हैं लेकिन मानते नहीं हैं… जन्म के बाद मृत्यु ही अटल सत्य है.. कोरोना रुपी आपदा भी कुछ और नहीं खुद के लिए खुद में भुलाए मनुष्य के सामने सच (मृत्यु) की मुनादी है… इस मुनादी को हम सुन भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं लेकिन इसकी चेतावनी को क्या हम मानेंगे?….यकीनन नहीं…