नई दिल्ली: हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह का व्यक्तित्व एक विशाल वटवृक्ष की तरह था जिसकी हर शाखा से मानों एक नया वृक्ष ही पनपता था और उन्होंने आलोचना जैसे ‘खुश्क’ कर्म को इतना सरस बना दिया कि वह लगभग ‘आशिकाना’ हो गया.
कविता से अपनी साहित्यिक यात्रा का प्रारंभ करने वाले नामवर सिंह के अवचेतन में उनके साहित्यिक गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आलोचना के बीज इतने गहरे बोये थे कि आलोचना के क्षेत्र में आना तनिक भी अस्वाभाविक नहीं था.
‘दूसरी परंपरा की खोज’ के माध्यम से उन्होंने अपने गुरु द्विवेदी की दृष्टि को न केवल आलोचना के आधुनिक प्रतिमानों पर कसा, बल्कि हिन्दी आलोचना को ‘शुक्ल पक्ष’ से इतर की व्यापकता की ओर बढ़ाया.
नामवर सिंह भेष-भूषा, बेबाकी और अपने दृष्टिकोण में उसी बनारस का प्रतिनिधित्व करते थे, जो कबीर से लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में बिखरा था.
28 जुलाई, 1926 में बनारस जिले का जीयनपुर नामक गांव में जन्मे नामवर सिंह का जीवन भले ही राजधानी में बीता हो, किंतु दिल्ली सदा उनके ‘दिमाग में रही, न कि दिल में.
नामवर सिंह की प्राथमिक शिक्षा उनके पैतृक गांव के समीप वाले गांव आवाजापुर में हुई और उन्होंने कमालपुर से मिडिल कक्षा पास की. इसके बाद उन्होंने बनारस के हीवेट क्षत्रिय स्कूल से मैट्रिक और उदयप्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट किया.
1941 में कविता से उनके लेखक जीवन की शुरुआत हुई. पहली कविता इसी साल ‘क्षत्रियमित्र’ पत्रिका (बनारस) में प्रकाशित हुई. उन्होंने 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. और 1951 में वहीं से हिन्दी में एम.ए. किया. 1953 में उसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर उनकी नियुक्ति हुई.
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय के अनुसार, नामवर सिंह हिन्दी के जितने प्रसिद्ध आलोचक थे, उतने ही प्रसिद्ध अध्यापक भी थे. साथ ही वह उतने ही प्रसिद्ध वक्ता भी थे. उन्होंने हिन्दी आलोचना को समकालीन बनाया. पांडेय के अनुसार, नामवर सिंह की एक अन्य बड़ी विशेषता थी कि वह युवा लेखकों के साथ बहुत जल्द अपना तारतम्य स्थापित करते थे.
पुस्तकों से उनका नाता सदा से ही रहा. ‘घर का जोगी जोगड़’ चाहे घर में रहे या बाहर, उनके दिमाग में साहित्य और किताबें सदा तैरती रहती थीं. नामवर कहते थे कि वह यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि उनसे ‘कलम और किताब छीनकर उन्हें किसी निर्जन टापू पर भेज दिया जाए.
साहित्य के अलावा, नामवर कुछ समय के लिए राजनीति में भी उतरे. उन्होंने 1959 में चकिया, चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रूप में अपनी चुनावी किस्मत अपनायी. चुनाव में सफलता तो नहीं मिली. साथ ही विश्वविद्यालय की नौकरी से भी वह मुक्त हो गये.
उनके छोटे भाई और प्रसिद्ध कहानीकार काशीनाथ सिंह के शब्दों में, यह दौर नामवर सिंह का सबसे संघर्ष भरा दौर रहा. लेकिन इस दौर में उनका पुस्तकों से नाता छूटने के बजाय और गहरा गया.
उस दौर में नामवर बनारस के लोलार्क कुंड इलाके में रहते थे. एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि क्या उनका सपने का कोई घर था भी या नहीं. उन्होंने बेबाकी से उत्तर दिया था, ‘वही लोलार्क कुंड वाला पुराना घर, जिसमें किसी समय सभी अपने साथ थे. वैसे सचमुच का घर तो अब भी सपना है और सपना ही रहेगा.’
काशी विश्वविद्यालय के बाद 1959-60 में नामवर सिंह सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक बने. उन्होंने 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतन्त्र लेखन किया. 1965 में ‘जनयुग’ साप्ताहिक के सम्पादक के रूप में दिल्ली में कार्य किया. इस दौरान दो वर्षों तक वह राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार भी रहे. उन्होंने 1967 से ‘आलोचना’ त्रैमासिक का सम्पादन किया. बाद में वह 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष-पद पर प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए.
वर्ष 1971 में ‘कविता के नए प्रतिमान’ पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला. 1974 में थोड़े समय के लिए वह कन्हैयालाल माणिकलाल..मुंशी हिन्दी विद्यापीठ, आगरा के निदेशक रहे. उसी वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफेसर के रूप में उन्होंने योगदान दिया और 1987 में वहीं से सेवा-मुक्त हुए. अगले पांच वर्षों के लिए वहीं उनकी पुनर्नियुक्ति हुई. वह 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष रहे. बाद में वह महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति बने.
‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ और ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ उनकी शोधपरक रचनाएं हैं. उन्होंने ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘कहानी : नयी कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘‘दूसरी परम्परा की खोज’ और ‘वाद विवाद संवाद’ शीर्षक से आलोचना पर आधारित रचनाएं लिखीं .
कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यपक रह चुके जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने गुरु नामवर सिंह की याद करते हुए बताया कि वह ऐसे अध्यापक और आलोचक थे जिन्होंने सदैव युवा लेखकों को बहुत गंभीरता से पढ़ा और प्रोत्साहन दिया. उन्होंने अंतिम समय तक अपना संबंध नवोदित लेखकों से बनाये रखा.
किताबों के सन्दर्भ में चतुर्वेदी ने अपना एक दिलचस्प अनुभव बताया. मार्क्सवादी आलोचना परजनेश्वर वर्मा की किसी पुस्तक का नामवर सिंह ने उनसे जिक्र किया था. वह किताब उस समय बाजार में उपलब्ध नहीं थी. इन्होंने एक प्रकाशक से बात की और वह प्रकाशक उस किताब को लेकर पुस्तक मेले में आया. चतुर्वेदी ने बताया कि उन्होंने पुस्तक मेले जाकर प्रकाशक से वह पुस्तक ले ली.
चतुर्वेदी के अनुसार, बाद में नामवर सिंह भी उस प्रकाशक के स्टाल पर गये और उनसे पुस्तक मांगी. जब उन्हें पता चला कि जेएनयू का ही कोई छात्र वह पुस्तक ले गया है तो उन्होंने घर लौटकर अपने सहायक के हाथों वह पुस्तक मंगवायी और दो दिन के अंदर पढ़कर उसे वापस लौटा दिया.
नामवर सिंह पर एक पुस्तक लिख चुके जगदीश्वर चतुर्वेदी ने बताया कि उन्होंने एक बार कहा था कि वह चाहते हैं कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति-रिवाज से किया जाए. उन्होंने इसके पीछे तर्क दिया कि मार्क्स का भी अंतिम संस्कार ईसाई रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था. चतुर्वेदी के अनुसार, नामवर मंदिरों में भी जाते थे क्योंकि वह इसे संस्कृति और शिष्टाचार का हिस्सा मानते थे. इस दृष्टि में वह सच्चे ‘सेक्युलर’ थे.
नामवर ने साथ ही यह भी लिखा है कि वह पूजा-पाठ और जन्मपत्री में विश्वास नहीं करते थे. साथ ही वह अपने को नास्तिक भी मानते थे. नामवर कहते थे कि वह राहुल सांस्कृत्यायन को पढ़कर नास्तिक बने.
हिन्दी आलोचक और नामवर सिंह के शिष्य पुरुषोत्तम अग्रवाल मानते हैं कि वह कई मामलों में ऐसे हिन्दी आलोचक थे जिनकी पहचान हिन्दी से इतर भारतीय और विदेशी भाषाओं में भी बनी. उनके अनुसार, नामवर सिंह ने सदैव अपने शिष्यों और युवा लेखकों को पढ़ा और प्रोत्साहन दिया. अग्रवाल के शब्दों में नामवर सिंह युवा लेखकों के प्रति ‘कृपा का भाव’ नहीं, सम्मान का भाव रखते थे.
नामवर सिंह ने अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में लिखा है, ‘वे आकाशधर्मी गुरु थे, हर पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता देने के विश्वासी. यह उन्मुक्तता ही उनकी परम्परा का मूल स्वर है.’ देखा जाए तो नामवर सिंह ने अपने गुरु की इस परंपरा को सचेष्ट ढंग से आगे बढ़ाया.
युवा आलोचक पल्लव मानते हैं कि नामवर के जाने से एक युग का अंत हुआ है. उनके अनुसार नामवर निस्पृह भाव के धनी थे और हिन्दी के ऐसे सेनापति थे जो सदैव मुस्कुराकर मिलते थे. उनका लेखन युवा पीढ़ी के मन में तमाम नये संकल्प भर देता था.
एक साक्षात्कार में नामवर सिंह से यह प्रश्न किया गया था कि कोई ऐसा वाद विवाद या संवाद, जिसमें बदला लेने या सबक सिखाने का भाव मन में हो. इस पर उनका दिलचस्प उत्तर नामवर शैली में ही आया- ‘बदला किससे. सबक किसको. जो भी आरोप व्यक्तिगत लगा, अनदेखा किया. वाद-विवाद-संवाद उन्हीं से किया जो बराबर के हैं या कुछ बड़े. सहयोगी प्रयास के तहत. यहां तक कि ‘दस्ते उदू’ के साथ भी. फैज के अन्दाज़ में ‘सलूक जिससे किया मैंने आशिकाना किया.’