राष्ट्रपति मुर्मू पर बेचारी लेडी का कटाक्ष दुर्भाग्यपूर्ण
-ः ललित गर्ग:-
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को लेकर सोनिया गांधी की टिप्पणी को भारतीय जनता पार्टी एवं अन्य राजनीतिक दलों ने ही नहीं, बल्कि आम लोगों ने भी आपत्तिजनक, अशालीन एवं स्तरहीन बताया है। राष्ट्रपति भवन ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। यह बयान न केवल गलत है, बल्कि राष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला है। संसद के बजट सत्र के पहले राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सोनिया गांधी ने जिस तरह एवं जिन शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, उस पर विवाद खड़ा हो जाना इसलिये स्वाभाविक है क्योंकि यह बयान दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण होने के साथ पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह से ग्रस्त है। सार्वजनिक जीवन में जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी भाषा और आरोपों को लेकर सतर्क, शालीन एवं शिष्ट रहे। विशेषतः कांग्रेस के नेता अक्सर अपने बोल, बयान एवं भाषा की शिष्टता से चुकते रहे हैं। भारत की लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में सबसे प्रतिष्ठित पद राष्ट्रपति का है। लेकिन, सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जिस तरह से राजनीति प्रेरित होकर विचार एवं नीतियों की आलोचना करने की बजाय सीधा राष्ट्रपति पर कटाक्ष किया है, उससे इस पद की गरिमा को गहरा आघात लगा है।
राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार की नीतियों एवं योजनाओं को रेखांकित करता है, इसमें राष्ट्रपति की अपनी कोई विशिष्ट विचारधारा नहीं होती, इसलिए विपक्ष चाहे तो नीतियों एवं योजनाओं की आलोचना कर सकता है, यह उसका अधिकार होता है। वह इस अधिकार का उपयोग करता है और उसे करना भी चाहिए, लेकिन इस लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग राष्ट्रपति के व्यक्तित्व का छिद्रान्वेशन करना कैसे हो सकता है? यह अच्छा नहीं हुआ कि सोनिया गांधी ने अभिभाषण में व्यक्त विचारों के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी करने के स्थान पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु पर ही कटाक्ष एवं तंज कस दिया। उन्हें यह कहने की आवश्यकता नहीं थी कि अभिभाषण के आखिर तक आते-आते राष्ट्रपति बहुत थक गई थीं। कठिनाई से बोल पा रही थीं। बेचारी महिला। पता नहीं सोनिया गांधी ने यह निष्कर्ष कैसे निकाल लिया और यदि निकाल भी लिया तो उन्हें उसे बेचारी महिला जैसे शब्दों में व्यक्त नहीं करना चाहिए था, यह उनकी राजनीति अशिष्टता, अशालीनता, अहंकार एवं अपरिपक्वता का ही द्योतक है। ऐसा लगता है कांग्रेस एवं उनके शीर्ष नेताओं की चेतना में स्वस्थ समालोचना के बजाय विरोध की चेतना मुखर रहती है। ऐसे अमर्यादित एवं अशोभनीय आलोचना ने राष्ट्रपति पद की अस्मिता एवं अस्तित्व पर सीधा एवं तीखा आक्रमण कर दिया है।
यह आश्चर्य का नहीं बल्कि सर्तकता, समयज्ञता एवं जागरूकता विषय है कि राष्ट्रपति भवन को सोनिया गांधी की टिप्पणी पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करनी पड़ी। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को लेकर सोनिया गांधी की टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया देनी पड़ी है और कांग्रेस के बयान को न केवल गलत कहा, बल्कि इसे राष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला भी बताया। राष्ट्रपति ने हिंदी जो उनकी मातृभाषा नहीं है, फिर भी उन्होंने बहुत ही बेहतरीन एवं प्रभावी भाषण दिया, लेकिन कांग्रेस का शाही परिवार उनके अपमान पर उतर आया है। राष्ट्रपति भवन ने अपने बयान में कहा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अपने संबोधन के दौरान किसी भी पल थकी नहीं थीं, उन्होंने पूरे आत्मविश्वास और ऊर्जा के साथ संसद को संबोधित किया। विशेष रूप से जब वे हाशिए पर खड़े समुदायों, महिलाओं और किसानों के अधिकारों की बात कर रही थीं, तब वे और भी ज्यादा संकल्पित एवं ऊर्जा से भरी हुए थीं। राष्ट्रपति को विश्वास है कि इन वर्गों की आवाज उठाना कभी भी थकावट का कारण नहीं बन सकता, बल्कि यह उनके कर्तव्य का एक अहम हिस्सा है। इसके अलावा, राष्ट्रपति भवन ने कांग्रेस नेताओं की हिंदी भाषा की समझ पर भी सवाल उठाए। बयान में कहा गया कि संभवतः ये नेता हिंदी भाषा की लोकोक्तियों और मुहावरों से भली-भांति परिचित नहीं हैं, जिसके कारण उन्होंने राष्ट्रपति के भाषण की गलत व्याख्या कर ली। राष्ट्रपति भवन ने कहा कि ऐसे भ्रामक और दुर्भावनापूर्ण बयानों से बचा जाना चाहिए, जो न केवल अनावश्यक विवाद खड़ा करते हैं, बल्कि देश के सर्वाेच्च संवैधानिक पद की गरिमा को भी ठेस पहुंचाते हैं। राष्ट्रपति भवन ने कांग्रेस नेताओं के बयानों को खराब और दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए यह भी कहा कि इस तरह की टिप्पणियां पूरी तरह से अनुचित हैं और इन्हें टाला जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि सार्वजनिक जीवन में जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी भाषा और आरोपों को लेकर सतर्क रहें। राष्ट्रपति भवन की यह कठोर प्रतिक्रिया कांग्रेस नेताओं के लिये सबक एवं सीख बननी चाहिए।
स्वाभाविक रूप से कांग्रेस नेताओं और खुद प्रियंका गांधी ने सोनिया गांधी का बचाव किया, लेकिन यह समझा जा सके तो बेहतर होता कि उन्हें अपने शब्दों के चयन में सावधानी बरतनी चाहिए थी। ऐसे बयान ने न केवल गैरजिम्मेदाराना एवं विध्वंसात्मक इरादों को ही नहीं, छल-कपट की राजनीति को भी बेनकाब किया है। कांग्रेस न जाने क्यों मानसिक दुर्बलता की शिकार है कि उसे अंधेरे सायों से ही प्यार है। ऐसे राजनीतिक दलों एवं सोनिया गांधी जैसे राजनेताओं की आंखों में किरणें आंज दी जाएं तो भी वे यथार्थ को नहीं देख सकते। क्योंकि उन्हें उजालों के नाम से ही एलर्जी है। तरस आता है सोनिया जैसे राजनेताओं की बुद्धि पर, जो सूरज के उजाले पर कालिख पोतने का असफल प्रयास करते हैं, आकाश में पैबन्द लगाना चाहते हैं और सछिद्र नाव पर सवार होकर राजनीतिक सागर की यात्रा करना चाहते हैं। इसीलिये राष्ट्रपति भवन ने यह सही कहा कि सोनिया गांधी की ओर से जो टिप्पणी की गई, वह सर्वथा टालने योग्य थी। शीर्ष नेताओं को अपनी बात कहते समय पद की गरिमा के साथ अपने शब्द चयन में सावधानी बरतनी चाहिए। उस समय तो और भी जब टिप्पणी राष्ट्रपति के संदर्भ में की जा रही हो। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु जिस सामाजिक परिवेश और पृष्ठभूमि से आती हैं, उसे देखते हुए तो और भी संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। समस्या यह है कि सोनिया गांधी हों या राहुल गांधी, वे किसी की आलोचना करते समय शब्दों के सही चयन में प्रायः चूक कर जाते हैं। जब ऐसा होता है तो यही ध्वनित होता है कि गांधी परिवार के सदस्य अहंकार में डूब कर अपनी राजशाही मानसिकता का परित्याग नहीं कर पा रहे हैं।
सोनिया गांधी अपने आपको सक्षम राजनीतिज्ञ मानती होंगी, वे विरोध एवं व्यक्तिगत आलोचना की राजनीति की खिलाड़ी भी स्वयं को साबित करने में जुटी हो, भले ही उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध में सारी हदें लांघी हो, लेकिन भारत की राजनीति केवल विरोध पर जीवंत नहीं रह सकती। राजनीति में समालोचना नितांत अपेक्षित है, समालोचक होना और समालोचना करना बहुत बड़ी बात है, पर जब नेता सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्तित्व की गरिमा को ही खंडित करता है, अपने विवेक को गिरवी रखकर समालोचना करता है, उसे समालोचना नहीं, स्तरहीन विरोध ही कहा जायेगा। ऐसे विरोध के प्रति दया का भाव ही जताया जा सकता है, उसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। आखिर निषेधात्मक भावों का उत्तर कब तक दिया जाए? कांग्रेस की इस श्रंृखला का कहीं अंत ही दिखाई नहीं देता। रचनात्मक समालोचना हो, तथ्यों के आधार पर हो, विवेकसम्मत हो तो उसके बारे में चिंतन भी किया जा सकता है। लोकतंत्र समालोचना का विरोधी नहीं है, बल्कि स्वस्थ एवं शालीन समालोचना का स्वागत ही होता है, इससे राजनीति परिपक्व एवं मजबूत होती है, किन्तु नमक की रोटी का क्या स्वागत किया जाए? कुछ आटा हो तो नमक की रोटी भी काम की हो सकती है। पर जिसमें कोरा नमक ही नमक हो, वह स्पृहणीय कैसे बन सकती है। प्रश्न है कि इस तरह की दूषित राजनीति एवं पूर्वाग्रहों के घनघोर परिवेश से लोकतंत्र एवं राष्ट्रपति जैसा सर्वोच्च पद कब तक आहत होता रहेगा? सोनियाजी राजनीति ही करनी है तो मूल्यों की राजनीति करो, देश सेवा की राजनीति करो, जनता के दिलों को जीतने की राजनीति करो। उजालों पर कालिख पोतने का प्रयास एवं चरित्र हनन के उद्देश्य से किया जाने वाला ऐसा राजनीतिक प्रयत्न कितना जघन्य होता है, समझने वाली जनता अच्छी तरह समझती है।