ईरान-अमेरिका का तनाव दुनिया के लिए सही नहीं
देवानंद सिंह
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ईरान और संयुक्त राज्य अमेरिका के रिश्तों को लेकर अनेक मोड़ आए हैं। पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच तनाव लगातार बढ़ा है, जो कभी-कभी अप्रत्याशित रूप से सामने आ जाता है। इन तनावों के मूल में ईरान का परमाणु कार्यक्रम अमेरिका की अधिकतम दबाव की रणनीति और दोनों देशों के बीच विश्वास की भारी कमी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर ईरान को बमबारी की धमकी दे दी, वहीं ईरान ने अमेरिका से सीधी बातचीत को अस्वीकार कर दिया। ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या अब दोनों देशों के बीच कोई हल निकल सकता है या यह संघर्ष और बढ़ता चला जाएगा?
उल्लेखनीय है कि डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के साथ 2015 में हुए परमाणु समझौते को खत्म करना एक विवादास्पद कदम था। इस समझौते को पेरिस समझौते के नाम से भी जाना जाता है। ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम पर कुछ प्रतिबंध लगाने के बदले आर्थिक प्रतिबंधों में राहत प्रदान करता था। ट्रंप ने इसे नवीनतम समझौते के रूप में खारिज किया और ईरान के खिलाफ अधिकतम दबाव की रणनीति अपनाई। यह रणनीति ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों की एक श्रृंखला के रूप में सामने आई, जिसका उद्देश्य ईरान को परमाणु हथियारों के विकास से रोकना था।
हालांकि, ट्रंप के इस फैसले के बाद से स्थिति और जटिल हो गई है। ईरान ने 2018 के बाद से अपनी परमाणु गतिविधियों में वृद्धि की, जबकि अमेरिका ने बारी-बारी से अन्य देशों को भी ईरान के खिलाफ खड़ा किया। इस दौरान, दोनों देशों के बीच गुप्त पत्राचार और आपसी धौंस-धमकी ने युद्ध की आशंका को और बढ़ा दिया।
ईरान का रुख स्पष्ट रहा है। ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराग़ची ने बार-बार कहा है कि जब तक अमेरिका अपनी अधिकतम दबाव नीति को समाप्त नहीं करता, तब तक किसी भी प्रकार की सीधी बातचीत असंभव है। ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियान ने भी इस बात की पुष्टि की कि उनका देश सीधे अमेरिका से बातचीत नहीं करेगा, हालांकि वे अप्रत्यक्ष वार्ता के लिए खुले हैं।
ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई का मानना है कि अमेरिका से वार्ता करना सम्मानजनक नहीं है। उनका कहना है कि यह न केवल उनका, बल्कि पूरे ईरान का राष्ट्रीय अपमान होगा। यही कारण है कि ईरान ने अब तक किसी भी प्रकार के समझौते के लिए तैयार होने की बजाय अपनी परमाणु गतिविधियों को बढ़ाने पर जोर दिया है। ट्रंप के ताजा बयान ने एक बार फिर सैन्य संघर्ष की संभावना को जिंदा कर दिया है। ट्रंप ने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर ईरान परमाणु समझौते के लिए तैयार नहीं होता, तो अमेरिका सैन्य कार्रवाई करेगा। उनका यह बयान ईरान के लिए न केवल धमकी के रूप में देखा गया, बल्कि एक स्पष्ट संकेत था कि अगर डिप्लोमेटिक प्रयास विफल होते हैं, तो सैन्य कदम उठाए जा सकते हैं।
हालांकि, ईरान के विदेश मंत्री ने पहले ही यह कह दिया था कि उनका परमाणु कार्यक्रम सैन्य हमलों से नष्ट नहीं किया जा सकता। यह बयान ईरान की तकनीकी शक्ति और आत्मविश्वास को दर्शाता है, लेकिन इस स्थिति का परिणाम केवल मध्य-पूर्व में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में तबाही ला सकता है। ईरान-अमेरिका संबंधों का असर न केवल इन दो देशों पर, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ता है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर वैश्विक चिंताओं के मद्देनजर, पश्चिमी देशों और इसराइल के लिए यह महत्वपूर्ण है कि ईरान को परमाणु हथियारों के विकास से रोका जाए। वहीं, ईरान के लिए यह संघर्ष अपनी संप्रभुता और सुरक्षा को बनाए रखने का है।
यहां एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठता है—क्या युद्ध ही समाधान है? हालांकि, दोनों देशों के बीच सैन्य टकराव से बचने की स्थिति लगातार कठिन होती जा रही है, फिर भी युद्ध से बचने के लिए डिप्लोमैटिक चैनल को खुला रखना आवश्यक है। यही कारण है कि ईरान ने ओमान के जरिए ट्रंप के पत्र का जवाब भेजा और अप्रत्यक्ष बातचीत के लिए संकेत दिए। भारत जैसे देशों का इस स्थिति में एक महत्वपूर्ण भूमिका हो सकता है। भारत, जो ईरान और अमेरिका दोनों के साथ मजबूत कूटनीतिक संबंध बनाए रखता है, इस संघर्ष को शांतिपूर्वक सुलझाने में मदद कर सकता है। यदि भारत और अन्य वैश्विक शक्तियां एकजुट होकर एक कूटनीतिक समाधान पर सहमत हो सकती हैं, तो यह केवल मध्य-पूर्व को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को एक बड़े संघर्ष से बचा सकता है।
कुल मिलाकर, ईरान और अमेरिका के बीच बढ़ती तनातनी यह संकेत देती है कि दोनों देशों के बीच एक समझौते तक पहुंचने के लिए गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है। सैन्य कदम उठाने के बजाय, अगर दोनों देश एक बार फिर से बातचीत की मेज पर आ सकते हैं, तो ही दुनिया को एक नई शुरुआत का अवसर मिलेगा। हालांकि, विश्वास की कमी और कूटनीतिक असफलताओं के बीच यह एक कठिन चुनौती साबित हो सकती है। लेकिन अगर दोनों देशों की नेतृत्व शक्ति कूटनीतिक समाधान के प्रति सचेत रहें, तो एक नया शांति समझौता और स्थिरता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।