समय के साथ नई परिभाषा गढ़ रहे भारत-रूस संबंध
देवानंद सिंह
भारत और रूस (पूर्ववर्ती सोवियत संघ) के संबंध दशकों से रणनीतिक साझेदारी और पारस्परिक विश्वास की मिसाल रहे हैं, लेकिन हालिया घटनाक्रमों और भू-राजनीतिक परिस्थितियों ने इस संबंध को नई कसौटियों पर ला खड़ा किया है। एक समय था, जब सोवियत संघ भारत का ऐसा दोस्त था, जो हर वैश्विक मंच पर उसके हितों का निस्वार्थ समर्थन करता था। आज, वही रूस अधिक संतुलित और तटस्थ भाषा में बात कर रहा है। खासकर, पाकिस्तान के साथ भारत के विवादों के संदर्भ में। यह बदलाव भारत-रूस संबंधों के बदलते स्वरूप का प्रतीक है, जिसकी जड़ें बीते तीन दशकों के वैश्विक बदलावों, भारत की बहुध्रुवीय विदेश नीति और रूस की बदलती प्राथमिकताओं में छिपी हैं।
1955 में जब सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव भारत आए थे और बोले थे कि अगर आप हमें पर्वत की चोटी से भी बुलाएंगे तो हम आपकी ओर होंगे, तो यह सिर्फ कूटनीतिक बयान नहीं था, बल्कि उस दौर की विदेश नीति का भावनात्मक प्रतिबिंब था। शीत युद्ध के दौरान भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, लेकिन सोवियत संघ के साथ उसका विशेष संबंध बना रहा। कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आए प्रस्तावों को सोवियत संघ ने बार-बार 1957, 1962 और 1971 में वीटो किया, जो भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान भी सोवियत समर्थन ने भारत की सैन्य कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय आलोचना से बचाने में मदद की।
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब रूस एक नए आर्थिक और राजनीतिक रूप में सामने आया, तब भी भारत के साथ उसका विशेष रिश्ता जारी रहा, हालांकि आर्थिक संकट और पश्चिम के साथ तालमेल बनाने की कोशिशों ने रूस को नए प्राथमिकता क्षेत्रों की ओर मोड़ा, लेकिन भारत के साथ उसकी रणनीतिक साझेदारी अक्षुण्ण रही। रक्षा, ऊर्जा, अंतरिक्ष और परमाणु सहयोग में यह मित्रता मजबूत बनी रही। 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद रूस का भारत के समर्थन में बयान इसी निरंतरता का प्रमाण था। पिछले दिनों पहलगाम में हुए चरमपंथी हमले के बाद भारत की पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई पर रूस की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली नहीं, लेकिन ध्यान देने योग्य थी। रूस ने दोनों देशों से ‘तनाव कम करने’ की अपील की और ‘मध्यस्थता’ की पेशकश भी की। यह रूख उस पारंपरिक समर्थन से भिन्न था, जो अतीत में भारत को मिलता रहा था।
इस पर विश्लेषकों की प्रतिक्रिया भी मिली-जुली रही।विश्लेषकों ने कहा, जो रूस यूक्रेन पर दो बार हमला कर चुका है, वह भारत से बातचीत की नसीहत दे रहा है।विशेषज्ञों ने इस रुख को वैश्विक परमाणु राजनीति और रूस की रणनीतिक विवशताओं की दृष्टि से व्याख्यायित किया। विशेषज्ञों का तर्क है कि जब दो परमाणु शक्ति संपन्न देश आमने-सामने हों, तब तनाव कम करने की जिम्मेदारी महाशक्तियों पर होती है।
इस बार रूस की प्रतिक्रिया अधिक संतुलित और सीमित थी, जो यह दर्शाती है कि रूस अब एकतरफा समर्थन से बचना चाहता है। यूक्रेन के साथ युद्ध में भारत उसके साथ स्पष्ट रूप से खड़ा हो, लेकिन भारत ने संतुलन साधा। प्रधानमंत्री मोदी ने यूक्रेन जाकर शांति की अपील की और संप्रभुता का सम्मान करने की बात कही, जो रूस की अपेक्षा के विरुद्ध था।
बीते एक दशक में भारत ने अमेरिका, फ्रांस और इजरायल से अपने रक्षा संबंधों को सुदृढ़ किया है। रूस के साथ रक्षा व्यापार में कमी आई है। 2009-13 के बीच जहां रूस से 76% हथियार आयात होते थे, वहीं 2019-23 में यह घटकर 40% के आसपास आ गया। रूस तालिबान के साथ संपर्क बढ़ा रहा है और अफगानिस्तान में पैर जमाने के लिए पाकिस्तान के सहयोग की आवश्यकता उसे पाकिस्तान के साथ संतुलन बनाने के लिए बाध्य करती है।
पुतिन का दिसंबर 2021 के बाद भारत नहीं आना, जबकि वे चीन और अन्य देशों के कई दौरे कर चुके हैं, एक प्रतीकात्मक दूरी को दर्शाता है। 2023 में नई दिल्ली में हुए G-20 शिखर सम्मेलन में भी पुतिन ने हिस्सा नहीं लिया। इसके उलट, भारत ने शंघाई सहयोग संगठन (SCO), जहां रूस प्रभावी भूमिका निभाता है, की अध्यक्षता तो संभाली, लेकिन जुलाई 2024 का समिट वर्चुअल आयोजित किया और प्रधानमंत्री मोदी उसमें शामिल नहीं हुए। इससे संकेत मिलता है कि भारत उस मंच से अपनी प्राथमिकताएं पीछे खींच रहा है, जो कभी रूस की कूटनीतिक शक्ति का विस्तार था।
भारत और रूस के बीच 2023-24 में लगभग 68 अरब डॉलर का व्यापार हुआ, लेकिन इसमें से 60 अरब डॉलर का हिस्सा कच्चे तेल के आयात का था। इसका मतलब है कि यह व्यापार संतुलन एकतरफा है और ऊर्जा आधारित है। वहीं, पाकिस्तान और रूस के व्यापारिक संबंधों में वृद्धि देखी गई है। 2023 में यह आकंड़ा एक अरब डॉलर तक पहुंचा, जो अब तक का सर्वाधिक था। रूस ने पाकिस्तान को BRICS में शामिल करने का समर्थन भी किया था। इन सारे बदलावों के बावजूद, रूस अभी भी भारत के लिए एक अहम साझेदार बना हुआ है। भारत ने अमेरिका के दबाव के बावजूद रूस से S-400 मिसाइल प्रणाली खरीदी, जो बीते दिनों पाक के साथ युद्ध में कारगर साबित हुई। इन सबके बीच यह तथ्य भी छिपा नहीं रहना चाहिए कि वैश्विक राजनीति में ‘पुराने दोस्तों’ से अब अंधभक्ति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। आज के दौर में रणनीतिक संबंधों की कसौटी व्यावहारिकता, पारस्परिक लाभ और समान हितों पर टिकी है और भारत-रूस संबंध इसी नई परिभाषा से आगे बढ़ रहे हैं।