क्या आसान होगा वन नेशन, वन इलेक्शन लागू करना……?
देवानंद सिंह
जब से केंद्र सरकार ने वन नेशन, वन इलेक्शन पर एक कमेटी बनाई है, तब से इस विषय पर पक्ष-विपक्ष द्वारा तमाम तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। पक्ष की तरफ से दावा किया जा रहा है कि इससे देश के विकास कार्यों में तेजी आएगी। चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है। वहीं, आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरूआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है, क्योंकि इससे विकास कार्यों पर असर पड़ता है, जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि एक चुनाव होने से चुनावों पर होने वाले खर्च में काफी कमी आ जाएगी और सरकारी कर्मचारियों को भी बार-बार चुनावी ड्यूटी से छुटकारा मिलेगा, लेकिन वन नेशन, वन चुनाव आसानी से लागू हो जाए, इसको लेकर बहुत सारी व्यवहारिक दिक्कतें हैं, जिससे देश में इस व्यवस्था को लागू करना आसान नहीं होगा। हालांकि, यह पहला मौका नहीं है, जब वन नेशन, वन चुनाव को लेकर चर्चा हो रही है, बल्कि पहले भी ऐसे मौके आए हैं। भारत में यह व्यवस्था लागू भी रही है। साल 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ ही होते थे। जब 1947 में देश को आजादी मिली थी, उसके बाद भारत में नए संविधान के तहत देश में 1952 में पहला आम चुनाव हुआ था। उस समय राज्य विधानसभाओं के लिए भी चुनाव साथ ही कराए गए थे, क्योंकि आजादी के बाद विधानसभा के लिए भी पहली बातर चुनाव हो रहे थे, उसके बाद साल 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे, हालांकि 1957 में इस क्रम को एक बार ब्रेक मिला था, जब केरल में 1957 के चुनाव में ईएमएस नंबूदरीबाद की वामपंथी सरकार बनी थी। दरअसल, इस सरकार को उस वक्त की केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाकर हटा दिया था, लिहाजा, केरल में साल 1960 में दोबारा विधानसभा चुनाव कराए गए थे।
1967 में के बाद कुछ राज्यों की विधानसभा जल्दी भंग हो गई और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, इसके अलावा 1972 में होने वाले लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराए गए थे। 1967 के चुनावों में कांग्रेस को कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था,
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर-प्रदेश, बिहार, राजस्थान, पंजाब, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों में विरोधी दलों या गठबंधन की सरकार बनी थी, इनमें से कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं, इसके फलस्वरूप विधानसभा पहले भंग हो गई थी। यही वजह रही कि साल 1967 के बाद लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने का सिलसिला टूटता चला गया। इसके बाद देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव को दोबारा एक साथ कराने का मुद्दा साल 1983 में भी उठा था, लेकिन उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे विशेष महत्व नहीं दिया था, जिसकी वजह से यह बात यही पर गड्डी हो गई।
उसके बाद साल 1999 में भारत में लॉ कमीशन ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था, उस समय केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही थी, लेकिन तब भी यह बात आगे नहीं बढ़ पाई। इसके बाद साल 2014 में भाजपा ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुदृदे को अपने चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल किया था, लेकिन अब जाकर अपने चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल वन नेशन, वन चुनाव को लागू करने की पहले केंद्र सरकार ने की है। नवंबर 2020 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन को संबोधित करते हुए वन नेशन, वन इलेक्शन को मुद्दा उठाया था। अब करीब तीन साल बाद गत 1 सितंबर 2023 को सरकार ने वन नेशन, वन इलेक्शन पर एक कमेटी का भी गठन कर लिया है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है। कमेटी भले ही एक-दो मीटिंग भी कर चुकी हो, लेकिन इन सबके बीच वन नेशन, वन इलेक्शन को लागू करने की बात है, उसके पीछे बहुत सी व्यवहारिक दिक्कतें मुंह बांये खड़ी हो सकती है। कमेटी गठन के साथ ही जिसकी शुरूआत हो चुकी है।
केंद्र की कमिटी में शामिल गए लोकसभा में कांगेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने कमिटी से अपना नाम वापस ले लिया है। वहीं, राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद को कमिटी में जगह देने और मौजूदा नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम नहीं होने पर भी विपक्ष ने केंद्र सरकार की वन नेशन, वन इलेक्शन को लेकर मंशा पर सवाल उठाए हैं, इसके अलावा एक और बड़ा सवाल यह कि एक साथ चुनाव होने पर अगर किसी राज्य में किसी दल या गठबंधन को बहुमत न मिले तो उस स्थिति में क्या होगा।
एक अन्य समस्या यह भी है कि अब देश में कांग्रेस जैसी एक पार्टी नहीं है, जिसकी केंद्र के साथ ही अधिकतर राज्यों में अपनी सरकार हो, ऐसे में केंद्र और राज्यों के बीच सामंजस्य बैठाना आसान नहीं होगा। जानकारों का कहना है कि वन नेशन, वन इलेक्शन इसीलिए भी व्यवहारिक नहीं है, इसके लिए एक आधार होना चाहिए कि देश की सारी विधानसभाएं एक साथ भंग हों, जो संभव नहीं दिखता है, क्योंकि राज्य की विधानसभा समय से पहले भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है। केंद्र के पास नहीं।
केंद्र ऐसा तभी कर सकता है, जब किसी वजह से किस राज्य में अशांति हो या ऐसी वजह मौजूद हो कि राज्य विधानसभा को केंद्र भंग कर सके और ऐसा सभी राज्यों में एक साथ नहीं हो सकता है। जानकारों का मानना है कि किसी भी राज्य की विधानसभा का कार्यकाल पूरा किए बिना भंग करने से एक संवैधानिक संकट खड़ा हो जाएगा, जो संघीय ढांचे के खिलाफ होगा, जिसे छेड़ने का अधिकार संसद के पास नहीं है। अगर, वन नेशन, वन इलेक्शन की बात है तो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव ही एक साथ नहीं, बल्कि स्थानीय निकायों के चुनाव भी एक साथ कराने होंगे। हालांकि, सभी चुनावों में मतदाता, मतदान केंद्र, ईवीएम और सुरक्षा जैसी चीजें तो समान होती हैं, लेकिन ग्राम पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम के चुनाव कराना राज्य निर्वाचन आयोग का काम है, जो केंद्र से बिल्कुल अलग है।
इसीलिए, ऐसी स्थिति में भी केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों को लेकर बहस छिड़ सकती है, जिससे संवैधानिक संकट खड़ा हो सकता है। यहां तक कि संविधान संशोधन के मुद्दे पर राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच टकराव हो सकता है।
अगर, किसी राज्य में चुनाव के बाद किसी एक दल या गठबंधन को बहुमत न मिले तो ऐसी स्थिति में राजनीतिक अस्थिरता भी खड़ी होने की संभावना बहुत अधिक रहेगी। इन सब व्यवहारिक दिक्कतों के बीच केंद्र सरकार किस व्यवस्था के तहत वन नेशन, वन इलेक्शन की प्रक्रिया को लागू करेगी, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा, क्योंकि इस व्यवस्था को लागू करने के लिए सबसे पहले संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन जरूरी होगा, साथ ही, विधानसभाओं के कार्यकाल और राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रावधानों को भी बदलना होगा।