– सुधीर कुमार
एक जमाने में तक्षशिला व नालंदा के तौर पर, पूरे विश्व को पढ़ाने वाला बिहार हाल-फिलहाल तक, बहुत ज्यादा सुविधाएं ना होने के बावजूद, शिक्षा के एक बड़े केंद्र के तौर पर जाना जाता था, और अभी भी, सिविल सर्विसेज तथा आईआईटी में बड़ी संख्या में बिहारी छात्र चयनित होते हैं। लेकिन, कोरोना संकट ने दिखाया कि बिहार झारखंड के छात्र बड़ी संख्या में कोटा व अन्य स्थानों पर कोचिंग के लिए जाते हैं। क्या स्थानीय स्तर पर इनकी कोचिंग तक संभव नहीं?
इंजीनियरिंग व मेडिकल कॉलेजों की कमी तो इस क्षेत्र में पहले से रही है, जिसकी वजह से सरकार ने कुछ निजी संस्थानों को अनुमति दी थी, लेकिन उनकी प्राथमिकता शायद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ना होकर, पैसे कमाना हो गई है, जिसकी वजह से छात्र अभी भी, उच्च शिक्षा हेतु कर्नाटक, ओडिशा व अन्य राज्यों में पलायन करने को मजबूर हैं।
इसके अलावा, बिहार की चिकित्सा व्यवस्था का सच, किसी से छिपा हुआ नहीं है। पिछले साल आये चमकी बुखार से सैकड़ों मौतों, व इस कोरोना संकट ने, स्वास्थ्य सेवाओं का सच दुनिया के सामने ला दिया। किसी की मौत के बाद उसका कोरोना पॉसिटिव पाया जाना, यह साबित करता है कि आप जांच में पिछड़ रहे हैं, और ऐसा लगातार हो रहा है।
इस राज्य, या फिर पूरे क्षेत्र का एक और बड़ा मुद्दा है रोजगार हेतु पलायन, जिसका दंश यहाँ के लोग, पीढ़ी दर पीढ़ी झेलने को मजबूर हैं। बारहवीं तक तो छात्र यहाँ रहते हैं, लेकिन उसके बाद, एक बार जो बाहर जाता है, शायद ही कभी लौट पाता है। इसके अलावा, बड़ी संख्या में, अकुशल मजदूर यहाँ से निकलते हैं, जिन्हें आप देश के हर हिस्से में, और यहां तक की, खाड़ी देशों में भी देख सकते हैं।
मेरा सवाल यह है कि अगर आजादी के 73 वर्षों बाद भी, बिहार में शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार की इतनी किल्लत है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के डेढ़ दशक के तथाकथित ‘जंगल राज’ को कोस-कोसकर सत्ता में आई राजग की नीतीश कुमार सरकार के भी 15 साल पूरे हो चुके हैं, और इन क्षेत्रों में हालात, लगभग वैसे ही हैं, तो इसके लिए किस से सवाल पूछे जायेंगे?
सम्राट अशोक व चंद्रगुप्त की बातें शायद थोड़ी पुरानी हैं, लेकिन जिस के अशोक चक्र को आज भी भारत का सरकारी चिन्ह माना जाता हो, और हर सिक्का तथा करेंसी नोट उसी से पहचाना जाता हो, उस बिहार को अगर देश के सबसे पिछड़े राज्यों में गिना जाता हो, तो इसका समाधान क्या है? क्या 15 सालों में सरकारें सिर्फ कुछ सड़क बनवा कर अपनी बाकी जिम्मेदारियों से भाग सकती हैं?
देश दुनिया के हर हिस्से में आपको बिहारी लोग बड़े-बड़े पदों पर मिल जायेंगे, कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों में भी मैनेजमेंट के पदों पर यह लोग मिलेंगे, सरकारी संस्थाओं में भी इनका खासा दबदबा है, लेकिन आखिर ऐसा क्यों है कि वे कभी पलट कर अपने राज्य में कुछ नहीं करना चाहते? पूरे देश में निवेशक आते हैं, लेकिन बिहार में कोई निवेश नहीं करना चाहता, तो इसके पिछे कई कारण होंगे, लेकिन जाति-धर्म के वोट बैंक को साधने में जुटी राज्य सरकार, इससे बेपरवाह दिखती है।
अभी, कोरोना संकट की वजह से हजारों-लाखों लोगों की नौकरियां गई हैं, और बड़ी संख्या में लोग अपने घरों को वापस लौट रहे हैं। क्या हमारी सरकारें इनका जिला-वार डेटाबेस बना कर, इनको स्थानीय निकायों अथवा फैक्टरियों में रोजगार देने की कोशिश कर सकती है? क्या उन्हें स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार के लिये प्रेरित किया जा सकता है? क्या इन घर लौटे प्रवासियों की क्षमता का, उनकी कुशलता का, उनकी काबिलियत का, और उनके अनुभव का इस्तेमाल राज्य हित में किया जा सकता है? अगर हाँ, तो यह राज्य का कायापलट कर सकता है। लेकिन क्या, सरकार तैयार है?