आखिर कब होगा चिराग तले उजाला ?
देवानंद सिंह
लोक जनशक्ति पार्टी पर कब्जे को लेकर चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के बीच चल रही तनातनी के बीच चुनाव आयोग द्वारा लोक जनशक्ति पार्टी के चुनाव चिह्न को जब्त किए जाने की कार्रवाई ने चिराग को एक और झटका दे दिया है। शायद, चिराग को उम्मीद नहीं रही होगी कि उन्हें अपने पिता की मौत के बाद एक के बाद एक झटके झेलने पड़ेंगे। अब उन्हें पार्टी के चुनाव चिह्न से भी हाथ धोना पड़ रहा है, क्योंकि चुनाव आयोग ने साफतौर पर कहा है कि दोनों समूहों में से किसी को भी लोजपा के चुनाव चिन्ह का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। आयोग ने अंतरिम उपाय के रूप में दोनों से अपने समूह का नाम और प्रतीक चुनने को कहा है, जो बाद में उम्मीदवारों को आवंटित किए जा सकते हैं। इस परिस्थिति में चिराग पासवान के लिए पार्टी में कब्जे को लेकर यह एक और बड़ी हार साबित हो गई है। रामविलास पासवान की मौत के बाद उन्होंने बहुत कोशिश की थी कि उन्हें इमोशनल सपोर्ट मिले। मोदी सरकार उन्हें तब्बजों दे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिस बीजेपी के साथ उनके पिता का पुराना नाता रहा और वह मोदी सरकार में मंत्री भी थे, लेकिन उसी बीजेपी ने चिराग पासवान को अधिक महत्व नहीं देते हुए दरकिनार कर दिया। चिराग को उम्मीद थी कि मोदी उन्हें या तो मंत्री बना सकते हैं या राज्यसभा भेज सकते हैं, लेकिन वह हाथ मसलते रहे, लेकिन बाज़ी मार गए चिराग के चाचा पशुपतिनाथ पारस। पीएम मोदी ने लोजपा पार्टी से बगावत करने वाले चिराग के चाचा पशुपति नाथ पारस को न केवल मंत्री बना दिया, बल्कि सदन में पार्टी का प्रतिनिधि भी नियुक्त कर दिया।
उन्हें मंत्री कोटे से रामविलास पासवान वाला बंगला भी ऑफर किया गया था, लेकिन इसके लिए स्वयं पारसनाथ पशुपति ने ही मना किया। इसके बाद रेल मंत्री को यह बंगला आवंटित किया गया। इस बंगले में रामविलास पासवान लंबे समय तक रहे, पर मोदी सरकार ने चिराग से उसे भी खाली करा दिया। पार्टी पर कब्जे की अदालती लड़ाई में भी उन्हें उम्मीद थी कि उनकी जीत होगी, लेकिन उससे पहले ही चुनाव आयोग के एक्शन ने कहानी को एक तरह से बदल दिया है। यहां भी चिराग पासवान की हार इसीलिए मानी जाएगी, क्योंकि जहां एक तरफ चिराग पासवान ने लोजपा के चुनाव चिह्न पर स्वयं का दावा किया है, वहीं पशुपति कुमार पारस ने चुनाव आयोग से अनुरोध किया था कि लोजपा का चुनाव चिह्न किसी को आवंटित न किया जाए क्योंकि मामला अदालत में लंबित है। लिहाजा, इस मोर्चे पर भी पशुपति नाथ पारस बाज़ी मारने में सफल रहे। हालांकि, अदालत आगे क्या फैसला करेगी, इसका पता बाद में चलेगा, लेकिन चिराग के लिए यह दौर राजनीति में बहुत कुछ सीखने के लिहाज से बहुत अच्छा साबित हो सकता है, अगर वह इस बदलाव के बाद खुद को बदलने की कोशिश करें तो। रामविलास पासवान के निधन के बाद से ही पार्टी में अंदरूनी कलह शुरू हो गई थी। जो अब तक जारी है, जबकि एक साल से भी अधिक का समय बीत गया है। कई बार चीजें विरासत में मिलती हैं तो उसका नुकसान भी होता है, ऐसा ही चिराग पासवान के साथ हुआ। वह अपने पिता के जीवन दर्शन से भी सीख नहीं ले पाए, उन्हें विरासत में मिली पार्टी के लेकर अति उत्साहित होने से बेहतर सबको साथ लेने की कोशिश करनी चाहिए थी।