राष्ट्र संवाद नजरिया : प्रधानमंत्री की सुरक्षा चूक को सियासी मुद्दा बनाना जायज नहीं…..
देवानंद सिंह
पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काफिले के साथ जो घटनाक्रम हुआ, उस पर राजनीति खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। निश्चित ही, यह पंजाब सरकार की बहुत बड़ी सुरक्षा चूक थी, लेकिन उसके बाद जिस तरह इस मुद्दे को लेकर बीजेपी और कांग्रेस आमने-सामने हैं और मीडिया जिस तरह का रोल अदा कर रही है, वह सब चौंकाने वाला है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा पर राजनीति करना किसी भी तरह उचित नहीं है। चाहे वह बीजेपी हो या फिर कांग्रेस, किसी को भी इसे सियासी मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। दूसरा, मीडिया भी जिस तरह का रोल अदा कर रही है, उससे भी इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती है। अमूमन, मीडिया चैनल्स एक ही राग अलाप रहे हैं। मीडिया द्वारा लगातार पंजाब सरकार और पुलिस को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। ये सही भी है, क्योंकि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में इस तरह की चूक किसी भी तरह से जायज नहीं है। इसी तरह इसको सियासी मुद्दा बनाया जाना भी जायज नहीं है, क्योंकि नरेंद्र मोदी केवल बीजेपी के ही प्रधानमंत्री नहीं हैं, बल्कि वह कांग्रेस के साथ-साथ पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं। इसीलिए पूरा देश इस बात के लिए चिंतित है कि आखिर प्रधानमंत्री की सुरक्षा में इस तरह की चूक हुई कैसे ? जो बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए थी। पर इस सियासत का क्या करें। बीजेपी और कांग्रेस तो इस पर मैदान में उतरी ही हैं, बल्कि मीडिया संस्थान भी इस पर मीडिया ट्रायल चलाने से बाज नहीं आ रहे हैं। हर मीडिया संस्थान मीडिया ट्रायल के नाम पर इस पर जमकर सियासत करवा रहे हैं। यह ठीक है कि मीडिया संस्थान प्रधानमंत्री की सुरक्षा चूक का मुद्दा उठा रहे हैं, लेकिन लगातार इसी मुद्दे को क्यों रिपीट किया जा रहा है ? क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि तमाम मुद्दों की तरह ही मीडिया इस मुद्दे पर भी केवल एक ही पक्ष की बात कर रही है। पत्रकारिता के पांच तत्व होते हैं, कब, कौन,कहां, कैसे और क्यों ? ऐसा लगता है कि मीडिया केवल कब, कौन,कहां तक ही अपनी बात पूरी कर रही है। देखा जाए तो यह पहला मौका नहीं है कि प्रधानमंत्री को इस तरह के विरोध नहीं झेलने पड़े। देश अब तक दो प्रधानमत्रियों को खो चुका है। जहां तक विरोध की बात है, इंदिरा गांधी के अलावा मनमोहन सिंह भी विरोध झेल चुके हैं। मामला 1967 का है, जब इंदिरा गांधी भुवनेश्वर में कुछ छोटी-छोटी बैठकों के बाद एक सभा को संबोधित करने पहुंची तो कुछ छात्र संगठनों के नेताओं ने उन पर पत्थरबाजी कर दी थी, जिससे उनकी नाक पर चोट आ गई थी। मनमोहन सिंह को जनवरी 2012 में इस तरह का विरोध झेलना पड़ा था, जब वह पंजाब में स्वर्ण मंदिर में अपनी पत्नी के साथ दर्शन करने गए थे। तब मंदिर के बाहर अन्ना हजारे समर्थक जुट गए थे, जिन्होंने मनमोहन सिंह के खिलाफ नारेबाजी की थी और उन्हें काले झंडे दिखाए थे। मनमोहन सिंह को काफी देर तक मंदिर के अंदर ही इंतजार भी करना पड़ा था। लेकिन जहां तक नरेंद्र मोदी की सुरक्षा का सवाल था, इस पर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होनी ही चाहिए , पर मीडिया को किसानों की बात भी सुननी चाहिए। यह लोकतंत्र है, विरोध लोगों का अधिकार है। यह बात ठीक है कि प्रधानमंत्री का रूट खाली रहना चाहिए था। इस सारे मुद्दे पर केंद्र और राज्य सरकार भी अपने-अपने स्तर पर जांच करा रहीं हैं, जिस आधार पर कार्रवाई सुनिश्चित होगी। लिहाजा, इसको किसी भी स्तर से न तो सियासी मुद्दा बनाया जाए और नहीं द्वेषपूर्ण राजनीतिक के लिए मीडिया ट्रायल चलाया जाए।