Close Menu
Rashtra SamvadRashtra Samvad
    Facebook X (Twitter) Instagram
    Rashtra SamvadRashtra Samvad
    • होम
    • राष्ट्रीय
    • अन्तर्राष्ट्रीय
    • राज्यों से
      • झारखंड
      • बिहार
      • उत्तर प्रदेश
      • ओड़िशा
    • संपादकीय
      • मेहमान का पन्ना
      • साहित्य
      • खबरीलाल
    • खेल
    • वीडियो
    • ईपेपर
      • दैनिक ई-पेपर
      • ई-मैगजीन
      • साप्ताहिक ई-पेपर
    Topics:
    • रांची
    • जमशेदपुर
    • चाईबासा
    • सरायकेला-खरसावां
    • धनबाद
    • हजारीबाग
    • जामताड़ा
    Rashtra SamvadRashtra Samvad
    • रांची
    • जमशेदपुर
    • चाईबासा
    • सरायकेला-खरसावां
    • धनबाद
    • हजारीबाग
    • जामताड़ा
    Home » जलवायु परिवर्तन के कारण बदल रहा है भारत के मानसून का मिजाज़
    Headlines संवाद विशेष

    जलवायु परिवर्तन के कारण बदल रहा है भारत के मानसून का मिजाज़

    Devanand SinghBy Devanand SinghJune 24, 2021No Comments7 Mins Read
    Share Facebook Twitter Telegram WhatsApp Copy Link
    Share
    Facebook Twitter Telegram WhatsApp Copy Link

    नई दिल्ली. फ़िलहाल भारत में मानसून आ चुका है, लेकिन मिजाज़ बदले बदले से हैं इस मौसम की घटना के. वैसे भी भारतीय मानसून एक जटिल परिघटना है और विशेषज्ञों की मानें तो जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग ने मानसून के बनने की परिस्थिति पर और तनाव डाल दिया है. आंकड़े बताते हैं कि बारिश का रिकॉर्ड हर साल पहले के रिकॉर्ड को पार कर गया है.

    मानसून पर जलवायु परिवर्तन का असर एक चिंताजनक बात है. स्थिति कितनी गम्भीर है ये समझाते हुए क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशिका आरती खोसला कहती हैं, “देश भर में वर्षा भारतीय मानसून द्वारा संचालित होती है क्योंकि वार्षिक वर्षा का 70% से अधिक इस मौसम के चार महीनों के दौरान प्राप्त होता है. भारत में जून से सितंबर तक के मानसून के मौसम के दौरान 881 mm वर्षा दर्ज की जाती है. जुलाई और अगस्त सबसे ज़्यादा सराबोर महीने हैं, जिनमें मौसम की 2/3 वर्षा प्राप्त होती है. दक्षिण-पश्चिम मानसून कृषि क्षेत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत के GDP (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग 14 प्रतिशत हिस्सेदार है.” इन बताये गये आंकड़ों से स्थिति साफ़ है कि कितना महत्वपूर्ण है मानसून और कितना असर है उसका हमारी अर्थव्यवस्था पर और फिर देश के विकास पर.

    भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, 2020 में, +0.29°C का भारत का वार्षिक तापमान प्रस्थान 1901 में राष्ट्रीय रिकॉर्ड शुरू होने के बाद से आठवां उच्चतम था. +0.71°C का तापमान प्रस्थान रखते हुए भारत का सबसे गर्म वर्ष 2016 था. 2006 के बाद से भारत के 15 सबसे गर्म वर्षों में से बारह वर्ष हुए हैं.

    वैश्विक तापमान प्रोफ़ाइल में वृद्धि की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है. यह अनुमान है कि हम बिज़नेस एज़ यूजुअल परिदृश्य में, 2050 तक, कुल मिलाकर 1.5°C या इससे अधिक की वृद्धि का अनुमान लगा सकते हैं. मौसम विज्ञानियों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग और निरंतर एल नीनो के संयोजन ने वर्ष 1950 में रिकॉर्ड शुरू होने के बाद से भारत में असामान्य रूप से गर्म मौसम की स्थिति पैदा की है.

    NASA (नासा) के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज़ का कहना है कि, 2016 के सामान (जो सबसे गर्म वर्ष के लिए पिछला रिकॉर्ड था), 2020 रिकॉर्ड पर सबसे गर्म वर्ष था.

    पिछले 30 वर्षों के रुझान स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि ज़्यादातर मानव-प्रेरित गतिविधियों के कारण होती है, जिससे जलवायु पैटर्न और वार्षिक मौसम प्रणाली बदलतें है.

    जी.पी. शर्मा, पूर्व-AVM मौसम विज्ञान, भारतीय वायु सेना और Skymet Weather (स्काईमेट वेदर) में अध्यक्ष-मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, ने कहा, “मानसून बड़े पैमाने पर समुद्री तापमान से संचालित होता है, इसलिए मानसून का आगमन, वापसी और निरंतरता मुख्य रूप से महासागरीय ताप सामग्री से निर्देशित होती है. बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण समुद्र के तापमान में वृद्धि हुई है, जिसने भारतीय मानसून के पैटर्न को काफ़ी हद तक प्रभावित किया है. 2020 में महासागर असाधारण रूप से गर्म थे क्योंकि वार्षिक वैश्विक समुद्री सतह का तापमान 20-वीं सदी के औसत से 1.37 °F ऊपर रिकॉर्ड पर तीसरा सबसे अधिक था – केवल 2016 और 2019 इससे ज़्यादा गर्म वर्ष थे. जहाँ पहले हर 15 साल में औसत सूखा 1 बार पड़ता था, लेकिन पिछले एक दशक में तीन बार सूखा पड़ा हैं.”

    एल नीनो और ला नीना

    बहुचर्चित समुद्र-वायुमंडलीय परिघटनाओं, एल नीनो और ला नीना, में भी वृद्धि हो रही हैं. जबकि एल नीनो का भारतीय मानसून वर्षा के साथ विपरीत संबंध है, ला नीना अच्छी मानसून वर्षा के साथ जुड़ा हुआ है. उदाहरण के लिए, भारत में एल नीनो की वजह से 2014 और 2015 में भीषण सूखा पड़ा था, जबकि 2020 में ला नीना की मौजूदा स्थितियों के कारण सामान्य से अधिक बारिश हुई थी.

    हालांकि मौसम विशेषज्ञ एल नीनो को सीधे तौर पर ग्लोबल वार्मिंग की एक शाखा के रूप में नहीं देखते हैं, पर ग्लोबल वार्मिंग के कारण महासागरों के गर्म होने से एल नीनो की घटनाओं की तीव्रता, आवृत्ति और अवधि बढ़ रही है.

    “अद्भुत रूप से, एल नीनो और ला नीना की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिसका सीधा प्रभाव मानसून पर पड़ता है. इन दोनों घटनाओं के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि इनका शुरुआती संकेत बहुत देर से आता है. एल नीनो की बढ़ती संख्या और जलवायु परिवर्तन के साथ, सूखा पड़ना केवल कृषि और ग्रामीण आजीविका से संबंधित अनिश्चितताओं को बढ़ाएगा,” जी.पी. शर्मा ने कहा.

    मानसून वर्षा में गिरावट

    एल नीनो की आवृत्ति, कमज़ोर मानसूनी परिसंचरण, वायु प्रदूषण में वृद्धि और हिंद महासागर के गर्म होने जैसे कारक वर्षा की अवधि को प्रभावित कर रहे हैं. एक रिपोर्ट, प्रोपोरशनल ट्रेंड्स ऑफ़ कन्टिन्यूअस रेनफॉल इन इंडियन समर मानसून मानसून (भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून में निरंतर वर्षा के आनुपातिक रुझान), के अनुसार 1951 से 2018 तक वर्षा की प्रवृत्ति मानसून की शुरुआत के पहले 45 दिनों (1 जून से 15 जुलाई) में गिरावट की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है. चावल की फसल के मौसम में बारिश के दिनों की कुल संख्या (यानी, पहले 45 दिन, फसल का मौसम, मानसून की शुरुआत से) भारत में, शुरुआती अवधि की तुलना में, देर की अवधि के दौरान आधे दिनों से कम हो जाती है.

    अनियमित वर्षा वितरण

    देश के विभिन्न क्षेत्रों में मॉनसून वर्षा परिवर्तनशीलता सीधे तौर पर वर्षा आधारित फसलों की वृद्धि और सामाजिक-आर्थिक संरचना को प्रभावित करती है. यह देखा गया है कि मानसून के दौरान वर्षा का वितरण अब अनियमित हो गया है. मानसून के अनिश्चित व्यवहार और उसकी अनियमितताओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता.

    भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे के एक जलवायु वैज्ञानिक, डॉ रॉक्सी मैथ्यू कोल, ने कहा, “1950 से 2015 तक मध्य भारत की वार्षिक वर्षा में गिरावट और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि हुई है. मध्य भारत में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि का प्रमुख कारण अरब सागर से नमी की आपूर्ति में वृद्धि है. वार्षिक वर्षा में कमी का श्रेय भारतीय मानसून परिसंचरण के कमज़ोर होने और निम्न दबाव प्रणालियों के घटने को दिया जाता है.”

    प्रोपोरशनल ट्रेंड्स ऑफ़ कन्टिन्यूअस रेनफॉल इन इंडियन समर मानसून मानसून (भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून में निरंतर वर्षा के आनुपातिक रुझान) रिपोर्ट के अनुसार, 1985 से 2018 तक वर्षा के दिनों की संख्या भारत के सभी क्षेत्रों में जुलाई के दौरान गिरावट दर्शाती है. कुल मिलाकर, वर्षा के दिनों की संख्या भारत में, जून को छोड़कर, गर्मी के मौसम और महीनों में घटती प्रवृत्ति दर्शाती है.

    चरम मौसम की घटनाएं

    मॉनसून की बारिश में न सिर्फ कमी आई है, बल्कि बारिश की बौछारों का पैटर्न भी असंगत हो गया है. यह सीधे तौर पर भारी और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि से संबंधित है. 1951-2005 की अवधि के दौरान वर्षा के दैनिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए पश्चिमी तट और मध्य भारत में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है.

    CEEW की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रेपरिंग इंडिया फॉर एक्सट्रीम क्लाइमेट इवेंट्स (अत्यधिक जलवायु घटनाओं के लिए भारत की तैयारी), माइक्रो (सूक्ष्म) तापमान में निरंतर वृद्धि के कारण मानसून कमज़ोर हो गया है. भारत के 40 प्रतिशत से अधिक जिलों में चरम घटनाओं जैसे बाढ़-प्रवण क्षेत्रों का सूखा-प्रवण हो जाना और इसके विपरीत पैटर्न, दोनों बदल गए हैं.

    महाराष्ट्र, कर्नाटका और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गर्मी के दौरान रिकॉर्ड तोड़ तापमान और कमज़ोर मानसून के कारण 2015 के दौरान पानी की गंभीर कमी देखी गई. राजकोट, सुरेंद्रनगर, अजमेर, जोधपुर और औरंगाबाद, और अन्य कुछ ऐसे जिले हैं, जहां हमने बाढ़ से सूखे की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति देखी. बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु के कुछ जिलों में सूखा और बाढ़ की घटनाएं एक साथ देखी गयी. रुझान खतरनाक हैं और स्थानीय स्तर पर व्यापक जोखिम मूल्यांकन की मांग की ज़रुरत रखते हैं.

    कृषि पर प्रभाव

    इन ग्लोबल वार्मिंग की वजह से होने वाली चरम घटनाओं का कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, विशेष रूप से भारत के लिए जहां अभी भी खेती की भूमि का एक बड़ा हिस्सा मानसून की बारिश पर निर्भर है.भारत एक कृषि संचालित अर्थव्यवस्था है, जिसकी अधिकांश आबादी कृषि और संबंधित गतिविधियों में लगी हुई है. मानसून के पैटर्न में चल रहे बदलावों का किसानों पर बहुत प्रभाव पड़ता है, जो अंततः कृषि उत्पादकता तक जाता है. जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून के उदासीन व्यवहार को देखते हुए इसकी गतिकी को समझने के लिए अधिक से अधिक अध्ययन की आवश्यकता है. अब तक, मानसून की अस्थिर प्रकृति के कारण कृषि-जोखिम का निकट भविष्य में कोई महत्वपूर्ण मिटिगेशन नहीं दिखाई दे रहा है.

    Share. Facebook Twitter Telegram WhatsApp Copy Link
    Previous Articleमोदी केबिनेट का बड़ा निर्णय: सेंट्रल रेलसाइड वेयरहाउस और सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन का होगा विलय
    Next Article तीसरी लहर से पहले देश में बढ़ रहा डेल्टा प्लस वेरिएंट का खौफ, अब तक 40 मरीज मिले

    Related Posts

    मोहम्मद यूनुस के इस्तीफ़े की अटकलों के बीच बांग्लादेश में लोकतंत्र की नई परीक्षा

    May 25, 2025

    भारतीय राष्ट्रवाद को नई आँखों से देखिए! राजा सिर्फ राज्य बनाते हैं,ऋषियों के सांस्कृतिक अवदान से बनता है राष्ट्र

    May 25, 2025

    राष्ट्र संवाद हेडलाइंस

    May 25, 2025
    Leave A Reply Cancel Reply

    अभी-अभी

    मोहम्मद यूनुस के इस्तीफ़े की अटकलों के बीच बांग्लादेश में लोकतंत्र की नई परीक्षा

    भारतीय राष्ट्रवाद को नई आँखों से देखिए! राजा सिर्फ राज्य बनाते हैं,ऋषियों के सांस्कृतिक अवदान से बनता है राष्ट्र

    राष्ट्र संवाद हेडलाइंस

    श्रमजीवी पत्रकार संघ हरियाणा की हांसी जिला इकाई का हुआ गठन सैकड़ो पत्रकारों ने ली संघ की सदस्यता

    अंसार खान जवाहर नगर रोड नंबर 13 ए के बस्ती वासियों के बीच पहुंचे

    आरडी रबर कंपनी में मजदूरों के समर्थन में पहुंचे पूर्व विधायक अरविंद सिंह, कंपनी पर लगाया वादा खिलाफी का आरोप

    ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी ने टाटा स्टील कलिंगानगर परियोजना के दूसरे चरण के विस्तारीकरण का उद्घाटन किया

    सांसद विद्युत महतो की अगुवाई में ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ पर बिस्टुपुर तुलसी भवन में संगोष्ठी का हुआ आयोजन

    स्वर्ण महासंघ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए डी डी त्रिपाठी।

    प्रधानमंत्री जी का “एक देश, एक चुनाव” का सपना अवश्य साकार होगा – अमरप्रीत सिंह काले

    Facebook X (Twitter) Telegram WhatsApp
    © 2025 News Samvad. Designed by Cryptonix Labs .

    Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.