पेसा नियमावली पर निर्णय: लंबे संघर्ष के बाद कैबिनेट की मंजूरी, श्रेय को लेकर सियासत तेज
राष्ट्र संवाद अमन
शांडिल्य झारखंड में पेसा नियमावली को लेकर लिया गया हालिया फैसला राज्य की राजनीति और आदिवासी अधिकारों के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की कैबिनेट द्वारा पेसा नियमावली को स्वीकृति दिए जाने के बाद जहां सरकार इसे संवैधानिक जिम्मेदारी की पूर्ति बता रही है, वहीं भाजपा इसे अपने वर्षों पुराने संघर्ष और दबाव का परिणाम बता रही है।
भाजपा का तर्क है कि वर्ष 2010 से 2017 के बीच इस कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में कई मुकदमे चले। इसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के कार्यकाल में 2018 में 14 विभागों के सचिवों के साथ बैठक कर पेसा नियमावली का खाका लगभग तैयार कर लिया गया था, लेकिन चुनाव और आचार संहिता के कारण प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी। बाद के वर्षों में भाजपा और एनडीए ने सड़क से सदन तक इस मुद्दे को लगातार उठाया।
इसी क्रम में भाजपा विधायक पूर्णिमा साहू ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पेसा को मजबूती से उठाते हुए सरकार से स्पष्ट जवाब मांगा था। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि महाधिवक्ता और विधि विभाग पहले ही न्यायालयों के निर्देशों के अनुरूप सहमति जता चुके हैं।
भाजपा ने पेसा नियमावली के कैबिनेट से पारित होने का स्वागत करते हुए यह स्पष्ट किया है कि नियमावली पाँचवीं अनुसूची की मूल भावना और पारंपरिक आदिवासी रूढ़ि व्यवस्था पर आधारित होनी चाहिए। साथ ही पार्टी ने संकेत दिया है कि यदि इसमें किसी प्रकार का विचलन होता है, तो वह आगे भी राजनीतिक और कानूनी स्तर पर संघर्ष जारी रहेगा


