क्या तृणमूल कांग्रेस में बढ़ रहा अंतर्विरोध ?
देवानंद सिंह
पश्चिम बंगाल की राजनीति में इस समय एक बड़ा सवाल सिर उठा रहा है—क्या सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में सब कुछ ठीकठाक है? यह सवाल केवल विरोधियों या मीडिया विश्लेषकों की उत्सुकता नहीं है, बल्कि पार्टी के भीतर से ही उठ रही असहमतियों, सार्वजनिक बयानों और परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों की एक श्रृंखला के बाद राजनीतिक हलकों में ज़ोर पकड़ चुका है। राज्य में एक साल बाद होने वाले महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र यह अंतर्विरोध न केवल टीएमसी की संगठनात्मक मजबूती पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि नेतृत्व की क्षमता और रणनीतिक संतुलन की भी कड़ी परीक्षा लेता है।
पार्टी में नया बनाम पुराना का संघर्ष कोई नई बात नहीं है, लेकिन हालिया घटनाक्रमों ने इस संघर्ष को एक नई धार दी है। महुआ मोइत्रा, कल्याण बनर्जी और सौगत राय जैसे तीन वरिष्ठ नेताओं के बीच खुलेआम खींचतान इस बात का प्रतीक है कि पार्टी के भीतर नेतृत्व को लेकर गहरी असहमति है। ये तीनों नेता अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में मजबूत पकड़ रखते हैं—नदिया, हुगली और दमदम जैसे भाजपा के लिए रणनीतिक रूप से अहम क्षेत्रों में ये टीएमसी की दीवार बने हुए हैं, लेकिन अब इनकी आपसी खींचतान न केवल पार्टी की छवि पर असर डाल रही है, बल्कि कार्यकर्ताओं के बीच भ्रम की स्थिति भी पैदा कर रही है।
महुआ मोइत्रा और कल्याण बनर्जी के बीच ताजा टकराव उस समय सामने आया, जब चुनाव आयोग के दौरे पर जा रहे प्रतिनिधिमंडल में महुआ का नाम आखिरी क्षण में हटा दिया गया। उनकी जगह काकोली घोष दस्तीदार का नाम जोड़ा गया जो उस वक्त मौजूद नहीं थीं। यह बदलाव, जो शायद तकनीकी या रणनीतिक रहा हो, महुआ को नागवार गुजरा और कल्याण बनर्जी से तीखी बहस हो गई। सौगत राय, जो उस वक़्त मौके पर मौजूद नहीं थे, ने बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दावा किया कि महुआ रो पड़ी थीं और बनर्जी के व्यवहार से आहत थीं।
राजनीतिक विश्लेषकों की राय में यह पूरा घटनाक्रम ‘ईगो क्लैश’ यानी व्यक्तिगत अहम की टकराहट का परिणाम है। तीनों नेता पार्टी में लंबा अनुभव रखते हैं और खुद को अपरिहार्य मानते हैं, लेकिन यही आत्मविश्वास कभी-कभी अहंकार का रूप ले लेता है। कल्याण बनर्जी का यह कहना कि महुआ ने सुरक्षाकर्मियों से उन्हें गिरफ़्तार करने तक को कहा, और महुआ की चुप्पी या प्रतिक्रिया न आना, दोनों ही पार्टी की कार्यप्रणाली में संवाद की कमी को उजागर करते हैं। कल्याण का सौगत राय पर पलटवार करते हुए यह कहना कि “साल 2001 से ही वो मुझे नापसंद करते हैं,” इस विवाद को और गहरा कर देता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पार्टी नेतृत्व इन मतभेदों को समय रहते सुलझा पाएगा?
मुख्यमंत्री और पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी को इस पूरे प्रकरण में एक सावधान और संतुलित रवैया अपनाते देखा गया है। पार्टी सूत्रों के अनुसार, ममता ने तीनों नेताओं से अलग-अलग बात कर मामले को शांत करने की कोशिश की है, लेकिन यह स्पष्ट है कि वह किसी भी पक्ष को खुलकर समर्थन नहीं देना चाहतीं, ताकि पार्टी के भीतर किसी भी गुट को यह संदेश न जाए कि नेतृत्व किसी एक ओर झुका हुआ है।
टीएमसी में लंबे समय से यह चर्चा रही है कि ममता और उनके भतीजे व पार्टी महासचिव अभिषेक बनर्जी के बीच भी रणनीति को लेकर मतभेद हैं। अभिषेक युवा नेताओं और नए चेहरों को तरजीह देने के पक्षधर हैं, जबकि पार्टी के पुराने नेता इसे अपने लिए खतरे के रूप में देखते हैं। बीते महीनों में ममता और अभिषेक के बीच सार्वजनिक मंच पर साथ न दिखने से इन अटकलों को बल मिला, हालांकि 27 फरवरी की मेगा बैठक में दोनों साथ दिखे, जिससे यह संदेश देने की कोशिश की गई कि सब कुछ नियंत्रण में है।
बंगाल की राजनीति में तृणमूल कांग्रेस अब भी एक शक्तिशाली ताकत है। भाजपा, वाम मोर्चा और कांग्रेस जैसे दलों की मौजूदगी के बावजूद ममता बनर्जी की लोकप्रियता बरकरार है, लेकिन पार्टी के भीतर से ही उठती आवाजें अगर इसी तरह सार्वजनिक होती रहीं, तो इसका असर कार्यकर्ताओं के मनोबल और चुनावी रणनीति पर ज़रूर पड़ेगा। राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती की राय में यह सिर्फ वरिष्ठ नेताओं की परंपरागत खींचतान है और इसका असर पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर नहीं पड़ेगा, लेकिन यह तभी संभव है जब ममता नेतृत्व की निर्णायक भूमिका निभाएं और अंतरविरोधों को सार्वजनिक होने से पहले सुलझा लें।
भाजपा हर मौके पर तृणमूल के अंतर्विरोधों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती रही है, इस बार भी पीछे नहीं रही। महुआ, कल्याण और सौगत की बयानबाज़ी भाजपा के लिए एक ‘राजनीतिक अवसर’ है, जिसे वह जनता के बीच “टीएमसी में अराजकता और भ्रम” के संदेश के रूप में प्रचारित कर सकती है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में छवि का बड़ा महत्व है, और अगर एक मजबूत और संगठित पार्टी की छवि धूमिल होती है, तो विपक्षी दलों को फायदा मिल सकता है। तृणमूल कांग्रेस फिलहाल जिस दौर से गुजर रही है, वह किसी भी सत्तारूढ़ दल के लिए स्वाभाविक हो सकता है—विशेषकर जब पार्टी में कद्दावर नेताओं की भरमार हो, लेकिन चुनौती यह है कि क्या पार्टी इस बहुवचन नेतृत्व को एकसाथ जोड़ कर रख सकती है? क्या नेतृत्व इतनी पारदर्शिता और संवाद कायम कर सकता है कि व्यक्तिगत अहम, सामूहिक हितों के आड़े न आए? और सबसे बढ़कर, क्या ममता बनर्जी पार्टी में ‘मध्यस्थ’ नहीं, बल्कि ‘निर्णायक’ की भूमिका निभा पाएंगी?
यह सवाल इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि अगले साल का विधानसभा चुनाव सिर्फ सत्ता की परीक्षा नहीं है, बल्कि पार्टी के सांगठनिक ढांचे, नेतृत्व की परिपक्वता और सामूहिक कार्यशैली की भी कसौटी बनेगा। ममता बनर्जी को इस समय पार्टी को एकजुट रखने के लिए निर्णायक कदम उठाने होंगे—संवाद को प्राथमिकता देनी होगी, असहमति को सार्वजनिक बहस से बचाना होगा और संगठनात्मक ढांचे को पुनरावलोकन की प्रक्रिया से गुजारना होगा। अगर, यह सब ममता और उनकी टीम कर पाती है, तो तृणमूल कांग्रेस न सिर्फ इस आंतरिक संकट से उबर सकती है, बल्कि विपक्ष के सामने एक बार फिर मज़बूत चुनौती बनकर उभरेगी। अन्यथा, अंदरूनी घाव धीरे-धीरे बाहरी चोट बन सकते हैं—जिसका इलाज चुनावी नतीजों के बाद ढूंढना बहुत देर हो जाएगी।