क्या मोहन यादव के भरोसे यूपी, बिहार के यादव वोटबैंक पर सेंध लगा पाएगी बीजेपी ?
देवानंद सिंह
बीजेपी ने राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में चुनाव जीतकर न केवल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में अपनी जीत की दावेदारी को मजबूत कर लिया है, वहीं, पार्टी ने मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को दरकिनार कर जिस तरह मोहन यादव को मुख्यमंत्री का ताज पहनाया है, उससे पार्टी न केवल एमपी की राजनीति साधी है, बल्कि देश के सबसे बड़े राज्यों में शुमार उत्तर-प्रदेश और बिहार के यादव वोटबैंक पर भी सेंध लगाने का पूरा काम किया है, निश्चित ही इससे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राजद की राजनीति पर लोकसभा चुनाव के दौरान असर देखने को मिलेगा। यह इसीलिए, क्योंकि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राजद की राजनीति केवल यादवों के भरोसे चलती है, लेकिन अब बीजेपी ने उसमें भी सेंध लगाकर बड़ा सियासी दांव चल दिया है, जिससे यूपी में अखिलेश यादव और बिहार में तेजस्वी यादव निश्चित ही सदमें में पहुंच गए होंगे।
यह बात दीगार है कि बिहार में इसी साल 2 अक्टूबर को जाति आधारित गणना के आंकड़े सामने आए थे। आकड़ों के मुताबिक राज्य में यादवों की आबादी क़रीब 14 फ़ीसदी है, जबकि ओबीसी समुदाय की कुल आबादी क़रीब 36 फ़ीसदी है। इस अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार की राजनीति पर इस समुदाय का बहुत बड़ा असर है। बिहार विधानसभा में निश्चित ही सबसे बड़ी पार्टी लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल है, उसे उम्मीद भी रहती है कि यादव वोट बैंक के भरोसे वह चुनावों में अच्छा परिणाम लाए, लेकिन बीजेपी के दांव के बाद 2024 लोकसभा चुनाव में राजद के लिए यह थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। बिहार एकमात्र ऐसा हिन्दी भाषी राज्य है, जहां बीजेपी कभी अपनी सरकार या अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है, जिसकी कमी बीजेपी को खल रही थी, दूसरा बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी कोई बड़ा यादव नेता नहीं खड़ा कर पाई थी, लेकिन मध्यप्रदेश के माध्यम से पार्टी ने एक बड़ा दांव कहें या फिर यादव नेता खड़ा किया है तो इसमें कोई दोराय नहीं होगी, हालांकि जानकर कहते हैं कि आमतौर पर इस तरह के नेता का दूसरे राज्यों में कोई असर नहीं होता है।
मोहन यादव को बीजेपी ने भले ही मुख्यमंत्री बना दिया है, लेकिन वो नेता नहीं हैं। नेता तो नरेंद्र मोदी हैं। मोहन यादव मुलायम सिंह यादव या लालू यादव की तरह यादवों के नेता भी नहीं हैं और एक राज्य में किसी जाति का बड़ा नेता होने पर भी दूसरे राज्य में उसका ख़ास असर नहीं होता है। इस मामले में न तो मायावती किसी अन्य राज्य में बहुत सफल हो सकीं और न ही अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी मध्य प्रदेश में कुछ ख़ास कर पाई।
उत्तर प्रदेश में यादवों की आबादी क़रीब 11 फ़ीसदी मानी जाती है। राज्य में मुलायम सिंह यादव और फिर उनके बेटे अखिलेश यादव भी मुख्यमंत्री रहे हैं। समाजवादी पार्टी ने ‘एमवाई’ (मुस्लिम और यादव) समीकरण के आधार पर ख़ुद को राज्य में असरदार राजनीतिक ताक़त के तौर पर स्थापित किया है, लेकिन मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे यूपी और बिहार के यादवों को संदेश देना एक मक़सद हो सकता है, लेकिन इसका कोई असर होगा ऐसा नहीं लगता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ‘कुर्मी’ समुदाय के बड़े नेता माने जाते हैं, लेकिन बिहार के बाहर अन्य राज्यों में उनकी पार्टी का भी कोई ख़ास असर नहीं दिखता है, जबकि उत्तर प्रदेश में बिहार से दोगुने कुर्मी हैं और साल 2012 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार ने उत्तर प्रदेश में 200 से ज़्यादा उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें सभी की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। जानकारों के अनुसार, क्षेत्रीय नेताओं की अपनी सीमा होती है। पहले मुलायम सिंह यादव और अब अखिलेश यादव का बिहार में कोई असर नहीं हो पाया। वैसे ही, लालू प्रसाद यादव का उत्तर प्रदेश में कोई प्रभाव नहीं बन पाया। यहां तक कि बिहार की सीमा से सटे यूपी के इलाक़ों में उनका कोई असर नहीं दिखता है। इसी प्रकार जनता दल के पुराने नेता शरद यादव का भी उदाहरण ले सकते हैं। शरद यादव मध्य प्रदेश के ही होशंगाबाद के थे, जिन्होंने पहले यूपी और फिर बिहार में राजनीति की, लेकिन शरद यादव भी इन राज्यों में जाति की राजनीति नहीं कर पाए, जबकि वह ‘सोशलिस्ट’ नेता के तौर पर राजनीति करते थे। बीजेपी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव और साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अपने नेता भूपेंद्र यादव को प्रभारी बनाया था। लोकसभा चुनावों में बिहार में एनडीए को 40 में 39 सीटें मिली थीं। अगले ही साल हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को भले अच्छी सफलता मिली हो, लेकिन नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ होने के बाद भी राज्य विधानसभा में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी।दउन चुनावों में बीजेपी को 74 जबकि आरजेडी को 75 सीटों पर जीत मिली थी। बीजेपी ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मुख्यमंत्री के चुनाव में पार्टी के अंदर के जातीय समीकरण को साधा है और राहुल गांधी को भी जातिगत गणना के मुद्दे पर जवाब दिया है, क्योंकि राहुल गांधी ओबीसी पर बहुत ज़ोर दे रहे थे, इस लिहाज से बीजेपी ने तीन अलग समुदाय से मुख्यमंत्री बनाकर जातिगत जनगणना का भी जवाब दिया है और पार्टी के अंदर भी संतुलन बनाया है कि वो पार्टी में ओबीसी को महत्व देते हैं। बीजेपी ने मध्य प्रदेश में ओबीसी, छत्तीसगढ़ में आदिवासी जबकि राजस्थान में ब्राह्मण चेहरे को मुख्यमंत्री बनाया है। मध्य प्रदेश में पहले भी यादव बिरादरी के बाबू लाल गौर बीजेपी के मुख्यमंत्री रहे हैं, जबकि राजस्थान में प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी के तौर पर बीजेपी के पास बड़ा ब्राह्मण चेहरा मौजूद था, लेकिन मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा को बनाया गया है। वहीं, छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने रमन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया था, जो राजपूत समुदाय से थे। रमन सिंह साल 2003 से साल 2018 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे। इस बार छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने आदिवासी नेता विष्णु देव साय को मुख्यमंत्री बनाया है। बीजेपी ने झारखंड जैसे आदिवासी राज्य में रघुवर दास को पहला ग़ैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया था। दरअसल, रघुवर दास तेली समाज से आते हैं, इसका नुक़सान साल 2019 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को हुआ और वह सत्ता से बाहर हो गई। रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाने पर कुछ लोग इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ बता रहे थे। इस बार बीजेपी ने अपनी पुरानी ग़लती सुधारने की भी कोशिश की है और यह ख़याल भी रखा है कि जो भी मुख्यमंत्री हो, वो शीर्ष नेतृत्व के नियंत्रण में हो। लिहाजा, मध्य प्रदेश में बीजेपी के प्रयोग का बिहार या उत्तर प्रदेश में कितना असर होता है यह अगले कुछ महीनों में स्पष्ट हो जाएगा। साल 2019 में मध्य प्रदेश की 29 लोकसभा सीटों में से 28 पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी। वहीं, राजस्थान की सभी 25 सीटें एनडीए के खाते में गई थीं, जिनमें 24 सीटें बीजेपी को मिली थीं, जबकि छत्तीसगढ़ की 11 सीटों में 9 बीजेपी के खाते में गई थीं। इन तीनों राज्यों की 65 लोकसभा सीटों में 62 बीजेपी और एनडीए के खाते में गई थी, यानि इन राज्यों में अगले लोकसभा चुनावों में बीजेपी के पास नया कुछ भी पाने को कम है, लेकिन उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है। लिहाजा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत के बाद भी बीजेपी के सामने 2024 की चुनौती कम नहीं है, क्योंकि इस जीत के बाद मुख्यमंत्रियों के चयन में बीजेपी ने जो प्रयोग किया है, उसका नफा-नुकसान 2024 लोकसभा चुनाव में ही देखने को मिलेगा।