सरकार बनाने-बिगाड़ने में जो वर्ग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है उसकी स्थिति इस समय सबसे ज़्यादा खराब है
मध्यम वर्ग की स्थिति बहुत खराब हो गई है। ना भीड़ में खड़े होकर मांग सकते है, ना लंंगर में खा सकते हैं। ना मदद करने वालों से राशन की पोटली मांग सकते है। जेब में नगदी नही हैं, तनख्वाहें मिली नही यदि कहीं से मिली भी तो टैक्स और 40 % कटौती के बाद।
खर्च भयानक बढ़ा है। लगातार तीसरा माह चल रहा है घर में राशन की खपत बढ़ी है और सब्जी आदि लेने में नगदी खर्च हो गई है। दवाइयों और बाकी छुटपुट खर्चों में सब गुल्लक भी खत्म हो गई।
सरकार बनाने-बिगाड़ने में जो वर्ग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है उसकी स्थिति इस समय सबसे ज़्यादा खराब है। बच्चों की फीस, किश्तें, बीमा, फोन, बिजली के बिल, हाउस टैक्स, पानी का बिल आदि का भुगतान लगातार जारी ही है। हालांकि यह भी पता है कि बीमे का कोई फायदा नहींं होने वाला है।
जिनके बच्चें नौकरी कर भी रहें थे वह भी एक भ्रम था, एक तरह का आई वॉश क्योकि बच्चों का वर्क फ्रॉम होम का भरम वो अपने तथाकथित समाज और रिश्तेदारी में बनाए रखना चाहते हैंं। हकीकत यह है कि अधिकांश की नौकरी खत्म हो गई है। मांं-बाप की पेंशन या सस्ती तनख्वाह से घर चल रहे हैंं। ऊपर से मदद करने का दिखावा करना ही पड़ रहा है और बल्कि दे भी रहें है काट कसर करके।
बस दिक्कत यह है कि वे अपने दर्द, आंंसू छुपाकर खाने की डिशेज परोसकर, लूडो खेलकर, ऑन लाइन गप्प करके अपने गम दिल में दबाए बैठे हैंं, पर लावा भयानक रूप से जम गया है। घरों में अब एक डेढ़ हफ्ते से ज्यादा का राशन नहींं है। पिछले साल के गेहूं खत्म हो गए हैंं। दाल चावल, साबुत अन्न, तेल से लेकर मसाले के डिब्बे अब जवाब दे रहें हैं।
मन मे ख़ौफ़, आंंखों मे चिंताएं और दिमाग़ में शंकाएं हैं। यदि किसी के पास थोड़ा बहुत काम भी है तो वे करने से डर रहें है कि भुगतान होगा या नही क्योंकि पुराने भुगतान पेंडिंग है और जिनका मिलना अब मुश्किल है!
लॉक डाउन खुल भी गया तो बैंक के सेविंग में न्यूनतम जमा राशि भी शेष नही है और अगले छह माह या एक दो साल रुपया आने की उम्मीद नही – अभी तीन से पांंच क्विंटल गेहूं के लिए ही दस बारह हजार नगद कहांं से आएंगे- यह चिंता घर कर गई है।
सब अमीरों-गरीबों के लिए पर हम जैसों के लिए क्या जिनके पास एक बाय एक फुट की जगह नहींं, खेत नहींं, मकान नही , दुकान नही, कोई उद्योग नहींं और कुछ भी नहींं और सब कुछ निभाकर ले जाना है सामाजिकता के नाम पर – खुद्दारी इतनी है कि अपने जमीर को जिंदा भी रखना है – किसी को कह भी नही सकते कि दस बीस हजार उधार ही दे दो।
मरण हमेशा इसी वर्ग का होता है ना नौकरी, ना आरक्षण, ना बीपीएल कार्ड , ना लोन, ना सुविधा और इज्जत के नाम पर सिवाय श्राप और बद्दुआएं मिलती है सबकी और सरकार से तो कोई आशा भी नही कि कभी सोचेगी हमारे बारे में।
कोरोना संकट काल में कौन लेगा मध्यवर्ग की सुध?