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    उम्र की शाम में उदासी नहीं, उमंग हो

    Devanand SinghBy Devanand SinghAugust 6, 2020No Comments7 Mins Read
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    ललित गर्ग

    अन्तर्राष्ट्रीय दिवसों की दृष्टि से अगस्त माह का विशेष महत्व है, इस माह में अनेेक अन्तर्राष्ट्रीय दिवस आयोजित होते हैं जैसे युवा दिवस, मित्रता दिवस, हिरोशिमा दिवस, अंगदान दिवस, स्तनपान दिवस, आदिवासी दिवस, मच्छर दिवस, फोटोग्राफी दिवस, मानवीय दिवस आदि-आदि उनमें एक महत्वपूर्ण दिवस है विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस जो 8 अगस्त को पूरी दुनिया में वृद्धों को समर्पित किया गया है। यह दिवस वरिष्ठ नागरिकों के उन्नत, स्वस्थ एवं खुशहाल जीवन के लिये आयोजित होता है। इस दिवस को आयोजित करने की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि आज के वरिष्ठ नागरिक जो दुनियाभर में उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, उनको उचित सम्मान एवं उन्नत जीवन जीने की दिशाएं मिले।
    प्रश्न है कि दुनिया में वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को कैसे रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों एवं वरिष्ठजनों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक एवं संवेदना के फासलों को भी बढ़ा दिया है। वर्तमान दौर की यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि इस समय की बुजुर्ग पीढ़ी घोर उपेक्षा और अवमानना की शिकार है। यह पीढ़ी उपेक्षा, भावनात्मक रिक्तता और उदासी को ओढ़े हुए है। इस पीढ़ी के चेहरे पर पड़ी झुर्रियां, कमजोर आंखें, थका तन और उदास मन जिन त्रासद स्थितियांे को बयां कर रही है उसके लिए जिम्मेदार है हमारी आधुनिक सोच और स्वार्थपूर्ण जीवन शैली। समूची दुनिया में वरिष्ठ नागरिकों की दयनीय स्थितियां एक चुनौती बन कर खड़ी है, एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनी हुई है।
    विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने बुजुर्गों एवं वरिष्ठजनों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से जहां भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवणकुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। समाज में अपनी अहमितय न समझे जाने के कारण हमारा वरिष्ठ नागरिक समाज दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। वरिष्ठजनों को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
    भारतीय परिप्रेक्ष्य में वरिष्ठ नागरिकों की दशा अधिक चिन्तनीय है। दादा-दादी, नाना-नानी की यह पीढ़ी एक जमाने में भारतीय परंपरा और परिवेश में अतिरिक्त सम्मान की अधिकारी हुआ करती थी और उसकी छत्रछाया में संपूर्ण पारिवारिक परिवेश निश्चिंत और भरापूरा महसूस करता था। न केवल परिवार में बल्कि समाज में भी इस पीढ़ी का रुतबा था, शान थी। आखिर यह शान क्यों लुप्त होती जा रही है? क्यों वृद्ध पीढ़ी उपेक्षित होती जा रही है? क्यों वरिष्ठजनों को निरर्थक और अनुपयोगी समझा जा रहा है? वरिष्ठजनों की उपेक्षा से परिवार तो कमजोर हो ही रहे हैं लेकिन सबसे ज्यादा नई पीढ़ी प्रभावित हो रही है। क्या हम वृद्ध पीढ़ी को परिवार की मूलधारा में नहीं ला सकते? ऐसे कौन से कारण और हालात हैं जिनके चलते वरिष्ठजन इतने उपेक्षित होते जा रहे हैं? यह इतनी बड़ी समस्या कि किसी एक अभियान से इसे रास्ता नहीं मिल सकता। इस समस्या का समाधान पाने के लिए जन-जन की चेतना को जागना होगा। इस दृष्टि से विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस की आयोजना की एक महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
    वरिष्ठजन एक सम्बल हुआ करते थे, ताकत हुआ करते थे और जीवन को संवारने का सबसे बड़ा माध्यम हुआ करते थे। बचपन को सहलाकर उसे अकल्पित ऊंचाइयां प्रदान करने वाले, परिवारों में सुख-समृद्धि का संवर्धन करने वाले वृद्धजन क्यों घृणा, उपेक्षा और अवमानना के पात्र बन जाते हैं? यह एक ज्वलंत प्रश्न है। क्यों हम उनके अनुभवों, सूझ-बूझ, ज्ञान-संपदा और समृद्ध विचारों की परिपक्वता से लाभ लेने से हिचकिचा रहे हैं?
    हमारे सामने एक अहम प्रश्न और है कि हम किस तरह नई पीढ़ी और बुजुर्ग पीढ़ी के बीच बढ़ती दूरी को पाटने का प्रयत्न करें। इन दोनों पीढ़ियों के बीच संवादिता और संवेदनशीलता इसी तरह लुप्त होती रही तो समाज और परिवार अपने नैतिक दायित्व से विमुख हो जाएगा। दो पीढ़ियों की यह भावात्मक या व्यावहारिक दूरी किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं है। जरूरी है कि हम बुजुर्ग पीढ़ी को उसकी उम्र के अंतिम पड़ाव में मानसिक स्वस्थता का माहौल दें, आधि, व्याधि और उपाधियों को भोग चुकने के बाद वे अपना अंतिम समय समाधि के साथ गुजार सकें ऐसी स्थितियों को निर्मित करें। नई पीढ़ी और बुजुर्ग पीढ़ी की संयुक्त जीवनशैली से अनेक तरह के फायदे हैं जिनसे न केवल समाज और राष्ट्र मजबूत होगा बल्कि परिवार भी अपूर्व शांति और उल्लास का अनुभव करेगा। सबसे अधिक नई पीढ़ी अपने बुजुर्ग दादा-दादी या नाना-नानी की छत्रछाया में अपने आपको शक्तिशाली एवं समृद्ध महसूस करेगी। एक अवस्था के पश्चात निश्चित ही व्यक्ति में परिपक्वता और ठोसता आती है। वरिष्ठजनों के अनुभवों का वैभव और ज्ञान की अपूर्व संपदा उन्हें दुनिया की रफ्तार के साथ कदमताल करने में सहायक हो सकती है। इस दृष्टि से हावर्ड और वर्लिन के वैज्ञानिकों/मनोचिकित्सकों ने गहन खोजें की हंै।
    जर्मन वैज्ञानिकों ने युवाओं और बुजुर्गों के समक्ष कुछ जटिल समस्याएं तथा कुछ सुविधाजनक परिस्थितियां प्रस्तुत कीं और उन्हें हल करने को कहा। देखा गया कि जीवन संबंधी समस्याओं को सुलझाने में युवाओं की अपेक्षा बुजुर्ग लोग अधिक सफल या कुशल साबित हुए। अन्य अध्ययनों/विश्लेषणों से भी यह तथ्य सामने आया कि बुजुर्गों के सामने यदि कोई लक्ष्य रख दिया जाए तो वे अपने धीमे सोचने की शक्ति की क्षतिपूर्ति अपने पैने नजरिए एवं बेहतर योजनाओं के द्वारा कर लेते हैं। यह भी एक तथ्य है कि सम्यक् दृष्टिकोण, पारदर्शी सोच, परिणामों का आंकलन किसी भी चीज के अच्छे-बुरे पहलुओं को तोलने/परखने की क्षमता-ये गुण वरिष्ठजनों में अपेक्षाकृत अच्छी मात्रा में उपलब्ध होते हैं। अतः आॅफिसों, संस्थाओं या घरों में बुजुर्गों को उपेक्षित करने का जो प्रचलन बढ़ रहा है, उस पर गंभीरता से पुनर्विचार की जरूरत है।
    हमंे स्कूलों में पैरंेट्स-डे के स्थान पर ग्रांड-पैरेंट्स-डे मनाना चाहिए। इससे जहां बच्चे अपने दादा-दादी के अनुभवों से लाभांवित होंगे वहीं दादा-दादी को बच्चों के इस तरह के दायित्व से जुड़कर एक सक्रियता मिलेगी। इसी तरह के उपक्रम हम घरेलू, धार्मिक एवं सामाजिक स्तर पर भी कर सकते हैं। हर दिन परिवार में एक संगोष्ठी का क्रम शुरू करके उसमें परिवार के वरिष्ठजनों के विचारों का लाभ लें और उनसे प्रशिक्षण प्राप्त करें। नई पीढ़ी को संस्कार संपन्न बनाने में वरिष्ठजनों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। सामाजिक स्तर पर भी बुजुर्ग और नई पीढ़ी की संयुक्त संगोष्ठियां आयोजित की जाएं और उनके अनुभवों का लाभ लिया जाए। बड़े व्यावसायिक घरानों या व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में भी परिवार के बुजुर्गों को कुछ रचनात्मक एवं सृजनात्मक दायित्व दिए जाएं और उनकी क्षमता और ऊर्जा का उपयोग किया जाए। परिवार के आयोजनों और दिनचर्या में कुछ दायित्व वरिष्ठजनों को दिए जाएं जिन्हें वे आसानी से संचालित कर सकें। इन सब प्रयत्नों से वरिष्ठजन अपने आपको उपेक्षित महसूस नहीं कर पाएगी और उनके अनुभवों का लाभ एक नई छटा का निर्माण करेगी। इस वृद्ध पीढ़ी का हाथ पकड़ कर चलने से जीवन में उत्साह का संचार होगा, क्योंकि इनका विश्वास सामूहिकता में है, सबको साथ लेकर चलने में है।

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