सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में थरूर को शामिल करने पर कांग्रेस को परहेज क्यों ?
देवानंद सिंह
भारत लंबे समय से सीमापार आतंकवाद की चुनौती से जूझता आ रहा है। यह न केवल सुरक्षा का मसला है, बल्कि भारत की विदेश नीति, कूटनीति और राष्ट्रीय एकता की परीक्षा भी है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार द्वारा घोषित सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों का गठन इसी दिशा में एक रणनीतिक क़दम माना जा रहा है। इन प्रतिनिधिमंडलों का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ नीति को स्पष्ट करना है, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी और अस्थायी सदस्य देशों तथा भारत के प्रमुख रणनीतिक साझेदारों के समक्ष।
हालांकि, यह कदम राष्ट्रीय हित की दिशा में सराहनीय लगता है, लेकिन इसकी घोषणा के तुरंत बाद उत्पन्न हुआ विवाद भारतीय राजनीति के अंतर्विरोधों को उजागर करता है, विशेषकर तब जब कांग्रेस सांसद शशि थरूर को एक प्रतिनिधिमंडल का अध्यक्ष बनाए जाने पर उनकी ही पार्टी ने असहमति जताई। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ एक बड़ा आतंकवाद-निरोधी सैन्य अभियान था, जिसे हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पुंछ-राजौरी क्षेत्र में अंजाम दिया गया। यह अभियान न केवल आतंकियों के खात्मे में सफल रहा, बल्कि इससे यह भी संकेत गया कि भारत अब सीमापार आतंकी हमलों को लेकर रिऐक्टिव नहीं, बल्कि प्रोऐक्टिव नीति अपना रहा है। इस अभियान की पृष्ठभूमि में सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों का गठन एक ठोस संदेश देता है कि आतंकवाद के विरुद्ध भारत का रुख राजनीतिक सहमति और राष्ट्रीय एकता पर आधारित है।
इन प्रतिनिधिमंडलों के दौरे का मक़सद है कि भारत के साझेदार देशों और सुरक्षा परिषद के सदस्य राष्ट्रों से यह अपेक्षा करना कि वे आतंकवाद और उसे समर्थन देने वाले देशों के खिलाफ ठोस कूटनीतिक तथा आर्थिक कार्रवाई करें। इस क़दम से यह स्पष्ट होता है कि भारत अब आतंकी नेटवर्कों के विरुद्ध केवल सैन्य नहीं, बल्कि बहुपक्षीय कूटनीति को भी हथियार बना रहा है। जब भारतीय सूचना प्रसारण विभाग ने प्रतिनिधिमंडल के सात नेताओं की घोषणा की, तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर का नाम उसमें शामिल था। थरूर, संयुक्त राष्ट्र में उच्च पद पर कार्य कर चुके हैं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की सशक्त आवाज़ रहे हैं, उन्हें इस भूमिका में देखना स्वाभाविक और तर्कसंगत प्रतीत होता है, लेकिन हैरानी तब हुई, जब कांग्रेस पार्टी की ओर से जयराम रमेश ने एक्स पर स्पष्ट किया कि कांग्रेस द्वारा मंत्रालय को दिए गए चार नामों में शशि थरूर शामिल नहीं थे। जयराम रमेश के अनुसार, कांग्रेस ने आनंद शर्मा, गौरव गोगोई, डॉ. सैयद नसीर हुसैन और राजा बरार के नाम भेजे थे।
इस घटनाक्रम ने कई सवाल खड़े कर दिए। क्या सरकार ने थरूर को जानबूझकर शामिल किया? या क्या यह थरूर की व्यक्तिगत स्वीकार्यता और अंतरराष्ट्रीय मामलों में विशेषज्ञता का संकेत है? अथवा कांग्रेस के भीतर ही कुछ ऐसा चल रहा है, जो उनके जैसे वरिष्ठ और प्रतिष्ठित नेता को इस सूची से बाहर रखना चाहता है? इस पूरे विवाद पर शशि थरूर ने एक परिपक्व प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा, जब बात राष्ट्रीय हित की हो, और मेरी सेवाओं की ज़रूरत हो, तो मैं कभी पीछे नहीं हटूंगा। यह वक्तव्य एक अनुभवी राजनेता और पूर्व अंतरराष्ट्रीय प्रशासक की गरिमा के अनुरूप था। थरूर ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर यह स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर वह भारत की सरकार के साथ खड़े हैं। बीजेपी ने इस अवसर को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने कांग्रेस और राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए सवाल उठाया कि यदि, थरूर इतने सक्षम और वैश्विक मंचों पर भारत के लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं, तो कांग्रेस ने उनका नाम क्यों नहीं भेजा? क्या यह राहुल गांधी की असुरक्षा का प्रतीक है? या पार्टी के भीतर प्रतिभाशाली नेताओं के प्रति असहिष्णुता का संकेत?
वहीं, असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने इस बहस को एक और दिशा दे दी। उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से गौरव गोगोई पर निशाना साधा और यह सवाल उठाया कि एक ऐसे सांसद को क्यों नामित किया गया, जिन्होंने कथित रूप से पाकिस्तान में दो सप्ताह बिताने से इनकार नहीं किया? सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों की संकल्पना का मूल उद्देश्य यही होता है कि देश के प्रमुख राजनीतिक दल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक सुर में भारत की नीति और चिंता को सामने रखें, लेकिन इस बार जो शुरुआती विवाद उत्पन्न हुआ है, वह इस पहल की विश्वसनीयता पर आंशिक संदेह उत्पन्न करता है। सवाल यह भी है कि क्या सभी दल इस दौरे को केवल ‘राजनीतिक प्रदर्शन’ या ‘प्रोटोकॉल फॉर्मेलिटी’ मानेंगे, या वास्तव में इसे एक अवसर के रूप में लेंगे, जिससे वे भारत की छवि को आतंकवाद-निरोधी वैश्विक नेतृत्व में बदलने में योगदान दें?
कांग्रेस जैसी पार्टी, जिसने दशकों तक भारत की विदेश नीति को आकार दिया है, उसका यह व्यवहार दर्शाता है कि या तो वह सरकार के साथ किसी प्रकार के विश्वास संकट से जूझ रही है, या फिर वह आंतरिक गुटबाज़ी से ग्रस्त है। शशि थरूर जैसे नेताओं को किनारे करना केवल एक संगठनात्मक भूल नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की स्थिति को भी कमजोर करता है। दूसरी ओर, बीजेपी की रणनीति स्पष्ट है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद जैसे मुद्दों को केवल शासन का नहीं, बल्कि समग्र ‘राष्ट्रवाद’ के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है। उसकी कूटनीतिक आक्रामकता, चाहे वह ऑपरेशन सिंदूर हो या सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल, स्पष्ट संकेत देती है कि वह भारत को एक निर्णायक स्वरूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना चाहती है।
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहां विचारधाराओं का टकराव स्वाभाविक है, वहां राष्ट्रीय सुरक्षा और सीमापार आतंकवाद जैसे मुद्दों पर एकरूपता अपेक्षित है। शशि थरूर की नियुक्ति को लेकर उपजा विवाद यह दर्शाता है कि राजनीतिक दलों को अब अपनी प्राथमिकताओं को पुनः परिभाषित करना होगा। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद उत्पन्न रणनीतिक वातावरण में यह ज़रूरी है कि भारत की आवाज़ विश्व मंचों पर एक स्वर में सुनी जाए न कि राजनीतिक विवादों और आंतरिक असंतोषों के शोर में दब जाए। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल तभी प्रभावी हो पाएंगे, जब उन्हें केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं, बल्कि भारत की सामूहिक इच्छाशक्ति का प्रतीक माना जाए। इस पूरे घटनाक्रम में यह बात पुनः स्पष्ट होती है कि भारत को आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में सिर्फ़ सैन्य नहीं, कूटनीतिक मोर्चे पर भी एकजुटता चाहिए, और यह एकजुटता संसद से शुरू होनी चाहिए।