संसद भवन में हाथापाई की नौबत आना लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण
देवानंद सिंह
भारत जैसे बड़े और विविधतापूर्ण लोकतंत्र में संसद का स्थान सर्वोपरि है। यह वह मंच है, जहां देश की प्रमुख नीतियां बनती हैं, जहां सरकार और विपक्ष के बीच संवाद होता है और जहां आम नागरिकों के अधिकारों और भविष्य के बारे में फैसले लिए जाते हैं, लेकिन गुरुवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के ‘आंबेडकर वाले बयान’ के बाद संसद के अंदर की जिस तरह की तस्वीर सामने आई, निश्चितौर पर यह घटना न केवल भारतीय राजनीति बल्कि हमारे लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है।
दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में संविधान स्वीकार करने के 75 साल पूरे होने पर आयोजित बहस का समापन करते हुए कहा, “अभी एक फ़ैशन हो गया है। आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर। इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।”
केद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के संविधान पर चर्चा के दौरान एक लंबे भाषण के इस छोटे से अंश से विपक्ष नाराज हो गया। इसके बाद सदन में जबरदस्त हंगामा हुआ और दोनों पक्षों के बीच तीखी नोक झोंक और बात धक्का-मुक्की तक पहुंच गई। यह दृश्य न केवल संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के भी अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण था।
विपक्षी दलों का कहना था कि गृह मंत्री का बयान डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के खिलाफ था और इससे उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। उनका कहना था कि शाह ने यह बयान जानबूझकर दिया ताकि आंबेडकर के योगदान को राजनीतिक फायदे के लिए कम किया जा सके। इस संदर्भ में, विपक्ष ने शाह के बयान को दुर्भाग्यपूर्ण और असंवेदनशील करार दिया। वहीं, सत्ता पक्ष ने इस आरोप का खंडन करते हुए कहा कि अमित शाह ने केवल आंबेडकर के योगदान को संदर्भित किया था, और उनके बयान का किसी प्रकार से अपमान करने का उद्देश्य नहीं था। उनका कहना था कि विपक्ष ने मामले को जानबूझकर बढ़ा दिया और सदन की कार्यवाही को बाधित किया।
हैरानी की बात है कि यह घटना केवल एक बयानबाजी तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसने संसद की गरिमा और भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को भी ठेस पहुंची। संसद एक गंभीर और गरिमापूर्ण संस्थान है, जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन यह बहस सभ्यता और तर्क पर आधारित होनी चाहिए। घमासान की स्थिति में विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ने अपनी सीमाओं का उल्लंघन किया। धक्का-मुक्की जैसी स्थिति ने यह साबित किया कि संसद सदस्य संसद के आदर्श और महत्व को खोते जा रहे हैं। क्या यह भारत जैसे बड़े लोकतंत्र के लिए उपयुक्त है? क्या यह लोकतांत्रिक संवाद की दिशा के लिए एक नकारात्मक कदम नहीं है ?
इस घटना के लिए केवल एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, बल्कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी बनती है। यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि जहां एक ओर विपक्ष ने अपनी आलोचना का अधिकार उपयोग करते हुए हंगामा खड़ा किया, वहीं सत्ता पक्ष ने इसे उपेक्षित और उत्तेजनात्मक प्रतिक्रिया के रूप में देखा, जिसे बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है। दोनों पक्षों के नेताओं ने इसे किसी तर्क और चर्चा के बजाय धक्का-मुक्की के माध्यम से हल करने की कोशिश की, जो बिल्कुल ही अनुचित था और लोकतंत्र के स्वस्थ संवाद की दिशा के बिल्कुल विपरीत था।
गृह मंत्री एक बड़े पद पर बैठे हैं, उन्हें ऐसे बयान देने से पहले उस शब्द के प्रभाव को समझना चाहिए था। उनकी जिम्मेदारी है कि वे न केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अपने शब्दों का चयन करें। डॉ. आंबेडकर जैसे ऐतिहासिक शख्सियतों के बारे में बयान देते समय हर शब्द पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि आंबेडकर भारतीय समाज में करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। वहीं, विपक्ष ने भी एक सकारात्मक और वैचारिक बहस की बजाय हंगामे और विरोध का रास्ता अपनाया, जिससे उन्होंने खुद को भी गलत स्थिति में डाला और नौबत एफआईआर तक आ गई। विरोध का हक हर नागरिक और पार्टी को है, लेकिन यह विरोध शांतिपूर्वक और लोकतांत्रिक तरीके से होना चाहिए।
इस घटना से यह साफ हो गया है कि भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएं अपनी परिपक्वता की ओर बढ़ने में असफल हो रही हैं। संसद में जिस प्रकार का हंगामा हुआ, वह लोकतंत्र की जड़ें खोखली करेगा। संसद जैसे संस्थान का उद्देश्य विवादों और मतभेदों को शांति और तर्क के साथ सुलझाना है, न कि उसे शारीरिक संघर्ष तक पहुंचाना।
इससे जाहिर होता है कि हमारे नेताओं में राजनीतिक मर्यादाएं और संवाद की संस्कृतियों की कमी हो रही है। एक लोकतंत्र में जहां सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है, वहां उस अधिकार का सम्मान करते हुए बातचीत की दिशा तय की जानी चाहिए, न कि हिंसात्मक और उग्र भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
भारत के लोकतंत्र की स्थिरता और उसकी गरिमा को बनाए रखने के लिए हमें अपने संस्थानों के प्रति सम्मान और समझ विकसित करनी होगी।
संसद को एक विचारशील और तर्कशील बहस का स्थल बनाना होगा, न कि एक ऐसा मंच, जहां शारीरिक हिंसा या बहस की बजाय राजनीति ज्यादा हो। नेताओं को अपनी बातों को संयमित और जिम्मेदार तरीके से रखना होगा। वहीं, विपक्ष को भी यह समझना होगा कि लोकतंत्र में सरकार के खिलाफ विरोध दर्ज करने के कई तरीके हैं, लेकिन वह विधायिका की गरिमा और लोकतंत्र के सम्मान से समझौता किए बिना होना चाहिए। इस तरह की घटनाएं हमें यह समझने का मौका देती हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाओं का स्वस्थ संचालन और नेताओं का परिपक्वता से काम करना कितनी अहमियत रखता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए संसद को उसकी गरिमा और उद्देश्य के अनुसार संचालित करने की दिशा में काम करना होगा। तभी हमारा लोकतंत्र सशक्त और प्रभावी बन सकेगा।