भगवान ऋषभदेव जन्म जयन्ती 22 मार्च, 2025 पर विशेष
ऋषभ हैं सभ्यता और संस्कृति के पुरोधा पुरुष
-ललित गर्ग-
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ यानी भगवान ऋषभदेव विश्व संस्कृति के आदि पुरुष, आदि संस्कृति निर्माता थे। वे प्रथम सम्राट और प्रथम धर्मतीर्थ के आद्य प्रणेता थे। उनकी निर्मल जीवनगाथा हजारों वर्षों से जनजीवन को प्रेरणा प्रदान करती रही है। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में ही नहीं, विश्व की अन्य संस्कृतियों में भी उनकी यशोगाथा गायी गई है। भगवान ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति में असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प रूपी जीवनशैली दी, आज हमारा जीवन उसी पर आधारित है। इन छह कर्मों के द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम और तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को जगाया। उनकी जन्म जयन्ती कोरा आयोजनात्मक माध्यम न होकर एक प्रयोजनात्मक उपक्रम है, जिसमें हम भारतीय संस्कृति को दिये उनके योगदान को स्मरण करते हुए अपने जीवन को आदर्श बना सकते हैं।
भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर का अर्थ होता है-जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर यानी जन्म मरण के चक्र से मुक्ति दिलाकर मोक्ष प्रदत्त करें। ऋषभदेव को ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है। वे भगवान विष्णु के अवतार थे। जन-जन की आस्था के केन्द्र तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ। उन्होंने मनुष्य जाति को नया जीवन दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई। वे जानते थे कि नहीं जानना बुरा नहीं मगर गलत जानना, गलत आचरण करना बुरा है। इसलिए उन्होंने सही और गलत को देखने, समझने, परखने की विवेकी आंख दी जिसे सम्यक् दृष्टि कहा जा सकता है। यह वह समय था जब भोगभूमि का काल पूर्ण होकर कर्मभूमि का काल प्रारंभ हो गया था। भोगभूमि में दस कल्पवृक्ष होते थे जो मनुष्य की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे। मनुष्य को कोई काम नहीं करना पड़ता था। धीरे-धीरे काल के प्रभाव से यह कल्पवृक्ष लुप्त होते गए और मनुष्य के सामने भूख प्यास, गर्मी सर्दी और बीमारियों की समस्याएं आने लगी। प्रजा अपने राजा नाभिराय के पास गई और उपाय पूछा तो राजा ने प्रजा को युवराज ऋषभ के पास भेज दिया। युवराज ऋषभ ने संसारी रहते हुए प्रजाजनों को शस्त्र, लेखनी, विद्या, व्यापार, खेती एवं शिल्प इन छह कार्यों को करना सिखलाया। उन्होंने जनता को इन छह कार्य के द्वारा आजीविका पैदा करने के उपदेश दिए। इसीलिए वे युगकर्ता, सृष्टि के पालनहार और सृष्टि के ब्रह्मा कहलाए। इस रचना के द्वारा ऋषभदेव ने प्रजा का पालन किया। इसलिए उन्हें प्रजापति भी कहा गया।
महाराज नाभि के यहां ऋषभ रूपी दिव्य बालक का जन्म हुआ। उसके चरणों में वज्र, अंकुश आदि के चिन्ह जन्म के समय ही दिखाई दिये। बालक के अनुपम सौन्दर्य को जिसने भी देखा वह मोहित हो गया। बालक के जन्म के साथ महाराज नाभि के राज्य में सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सुख-शांति एवं वैभवता परिव्याप्त हो गयी। नाभि के राज्य में अतुल ऐश्वर्य को देखकर इन्द्र को ईर्ष्या हुई। उन्होंने इनके राज्य में वर्षा बंद कर दी। भगवान ऋषभदेव ने अपनी योगमाया के प्रभाव से इन्द्र के प्रयत्न को निष्फल कर दिया। इन्द्र ने अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी। ऋषभ के सौ पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ। ऋषभ ने पुत्रों को मोक्षधर्म का अति सुंदर उपदेश दिया। तदनन्तर ऋषभ अपने बड़े पुत्र भरत को राज्यभार सौंपकर दिगम्बर वेष में वन को चले गये।
ऋषभ जब शासक बने, अनूठा थी उनकी शासन-व्यवस्था। क्योंकि उनके लिये सत्ता से ऊंचा समाज एवं मानवता का हित सर्वाेपरि था। उन्होंने कानून कायदे बनाए। सुरक्षा की व्यवस्था की। संविधान निर्मित किए। नियमों का अतिक्रमण करने वालों के लिए दण्ड संहिता भी तैयार की। सचमुच वह भी कैसा युग था। न लोग बुरे थे, न विचार बुरे थे और न कर्म बुरे थे। राजा और प्रजा के बीच विश्वास जुड़ा था। बाद में जब कभी बदलते परिवेश, पर्यावरण, परिस्थिति और वैयक्तिक विकास के कारण व्यवस्था में रुकावट आई, कहीं कुछ गलत हुआ, मनुष्य का मन बदला तो उस गलत कर्म के लिए इतना कह देना ही बड़ा दण्ड माना जाता कि ‘हाय! तूने यह क्या किया?’ ‘ऐसा आगे मत करना’, ‘धिक्कार है तूने ऐसा किया।’ ये हाकार, माकार और धिक्कार नीतियां अपराधों का नियमन करती रहीं। आज की तरह उस समय ऐसा नहीं था कि अपराधों के सच्चे गवाह और सच्चे सबूत मिल जाने के बाद भी अदालत उसे कटघरे में खड़ा कर अपराधी सिद्ध न कर सके। निर्दाेष व्यक्ति न्याय पाने के लिए दर-दर भटके और अपराधी धड़ल्ले से शान-शौकत के साथ ऐशो आराम करे।
सत्ता के नाम पर युद्ध तो सदियों में होते रहे हैं मगर ऋषभ के राज वैभव छोड़कर संन्यस्त बन जाने के बाद सिंहासन के लिए भाई-भाई भरत बाहुबली में जो संघर्ष हुआ वह ऐतिहासिक प्रसंग भी आज के संदर्भ में एक सीख है। आज भी सत्ता और स्वार्थ का संघर्ष चलता है। सब लड़ते हैं पर देश के हित में कम, अपने हित में ज्यादा। लेकिन न तो आज ऋषभ के 98 पुत्रों की तरह समस्या के समाधान पाने की जिज्ञासा है कि हम किसको मुख्य मानकर उनसे अंतिम समाधान मांगे और न ही कोई ऐसा ऋषभ है जो अंतहीन समस्याओं के बीच सबको सामयिक संबोध दे। राज्य प्राप्ति के प्रश्न पर जब भरत बाहुबली के बीच अहं और आकांक्षा आ खड़ी हुई तो ऋषभ ने शस्त्र युद्ध को नकारा और आत्मयुद्ध की प्रेरणा दी, क्योंकि स्वयं को जीत लेना ही जीवन की सच्ची जीत है।
भगवान ऋषभदेव को सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का प्रणेता माना जाता है, उनका अवतरण आदिम युग का परिष्कारक बना। वे पुरुषार्थ चतुष्टयी के पुरोधा थे। अर्थ और काम संसार की अनिवार्यता है तो धर्म और मोक्ष जीवन के चरम लक्ष्य तक पहंुचाने वाले सही रास्ते। उन्होंने प्रयोगधर्मा ऋषि बनकर जगत् की भूमिका पर जीवन के बिखराव की व्यवस्था दी तो अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में धर्म की जीवंतता प्रस्तुत की। समाज व्यवस्था उनके लिए कर्तव्य थी, इसलिए कर्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिए उसे कभी नकारा नहीं। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे। ऋषभ की दण्डनीति और न्यायनीति आज प्रेरणा है उस संवेदनशून्य व्यक्ति के लिए जो अपराधीकरण एवं हिंसक प्रवृत्तियों की चरम सीमा पर खड़ा है। व्यक्तित्व बदलाव का प्रशिक्षण ऋषभ की बुनियादी शिक्षा थी। ऋषभ ने राजनीति का सुरक्षा कवच धर्मनीति को माना। राजनेता के पास शस्त्र है, शक्ति है, सत्ता है, सेना है फिर भी नैतिक बल के अभाव में जीवन मूल्यों के योगक्षेम में वे असफल होते हैं जबकि उन सबके अभाव में संत चेतना के पास अच्छाइयां और आदर्श चले आते हैं, क्योंकि उसके पास धर्म की ताकत, चरित्र की तेजस्विता है।
ऋषभ ने संसार और संन्यास दोनों की जीया। ये पदार्थ छोड़ परमार्थ की यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने कर्मबंध और कर्ममुक्ति का राज प्रकट किया। वे संन्यस्त होकर वर्ष भर भूखे-प्यासे घूमते रहे। प्रतिदिन शुद्ध आहार की गवेषणा करते रहे। यह जानते हुए भी कि भूख और प्यास मेरी कर्मजनित नियति है। यह पुरुषार्थ उनकी सहिष्णुता, समता, संयम और संकल्प की पराकाष्ठा का सबूत था। वर्ष भर के तप की पूर्णाहुति जब राजकुमार श्रेयांस द्वारा दिए गए इक्षु रस के सुपात्र दान से हुई तो वह दिन, वह दान, वह दाता, वह तप अक्षय बन गया। भावशुद्धि की प्रकर्षता का वह क्षण सबके लिए प्रेरणा बन गया और उसे अक्षय तृृतीया पर्व के रूप में जैन धर्म के अनुयायी एक वर्ष की तपस्या करके मनाते है