ग़ज़ल।
संतोष कुमार चौबे, जमशेदपुर
बदला बदला सा दिखा कल शह्र का मंज़र मुझे,
फिर अचानक मेरा दिल लगने लगा पत्थर मुझे।
जब मिली पसरी हुई खुशियाँ ही खुशियाँ उसके घर,
तब लगा मारा गया है पीठ में खंज़र मुझे।
हर घड़ी खलती रही ये पदवियाँ ये डिग्रियाँ,
आंक कर वो चल दिए जब ओरों से कमतर मुझे।
कल मिरी भी जिंदगी ने शर्म के सपने बुने,
चुभ रही थी सबकी बातें इस तरह दिन भर मुझे।
वो मुझे जितनी दफ़ा कल याद फिर आते रहे,
हर दफ़ा चुभता रहा कल रात भर बिस्तर मुझे।
जमशेदपुर