निराश करती है जनप्रतिनिधि अपराध मामलों में देरी
-ः ललित गर्ग:-
वर्तमान और पूर्व संसद सदस्यों और विधानसभा सदस्यों के खिलाफ लंबित पांच हजार आपराधिक मामलों के निपटारे की सुनवाई कर रही एमपी-एमएलए अदालतों में कोई उल्लेखनीय प्रगति होते हुए न दिखना न केवल निराशाजनक है बल्कि यह कानून व्यवस्था की बड़ी विसंगति है। इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की गई है। याचिका में आग्रह किया गया कि कोर्ट इन मामलों का जल्द से जल्द निपटारा करने एवं त्वरित कार्रवाई के लिए निर्देश जारी करे। अपेक्षा यह की गई थी कि इन मामलों की सुनवाई त्वरित गति से होगी, लेकिन इसका उलटा हो रहा है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में से 251 के खिलाफ आपराधिक मामले हैं, जिनमें से 170 गंभीर आपराधिक मामले हैं, जिनमें पांच साल या उससे अधिक की सजा हो सकती है। हाल ही दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों में भी आपराधिक छवि के विधायकों की बड़ी संख्या चिन्ता में डालते हुए शर्मसार कर रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा के 48 नवनिर्वाचित विधायकों में से 16 यानी 33 प्रतिशत और आम आदमी पार्टी के 22 में से 15 यानी 68 प्रतिशत नवनिर्वाचित विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं, भाजपा के सात और आप के 10 विधायक गंभीर किस्म के आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से समय-समय पर दिए गए आदेशों और हाईकोर्ट की निगरानी के बावजूद सांसदों और विधायकों के खिलाफ बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं, जो हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर एक बदनुमा धब्बा हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह है कि साफ-सुथरी एवं अपराधमुक्त राजनीति का दावा करने वाले दल ही सर्वाधिक अपराधी लोगों को उम्मीदवार बना रही है। विडंबना है कि यह प्रवृत्ति कम होने के बजाय हर अगले चुनाव में और बढ़ती ही दिख रही है। आखिर कब तक अपराधी तत्व हमारे भाग्य-विधाता बनते रहेंगे? कब तक आम आदमी इस त्रासदी को जीने के लिये मजबूर होते रहेेंगे। भारत के लोकतंत्र के शुद्धिकरण एवं मजबूती के लिये अपराधिक राजनेताओं एवं राजनीति के अपराधीकरण पर नियंत्रण की एक नई सुबह का इंतजार कब तक करना होगा? त्रासद एवं दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि पूर्व एवं वर्तमान विधायकों और सांसदों के आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए गठित की गई अदालतें उनके मामलों का समय पर निपटारा करने में विफल साबित हो रही हैं। बड़ी संख्या में मामलों का लंबित रहना, जिनमें से कुछ तो दशकों से लंबित हैं, यह दर्शाता है कि सांसदों एवं विधायकों का अपने विरुद्ध मामलों की जांच या सुनवाई पर बहुत अधिक प्रभाव है और अपने राजनीतिक वर्चस्व एवं प्रभाव के कारण मुकदमे को पूरा नहीं होने दिया जाता है।
ऐसा लगता है कि उच्च न्यायालय अपने इस दायित्व का निर्वहन सही तरह से नहीं कर पा रहे हैं। समय-समय पर ऐसी खबरें भी आती रही हैं कि एमपी-एमएलए अदालतों को जनप्रतिनिधियों के मामलों के निपटारे में तेजी लाने को कहा है, लेकिन इसके कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ सके। समझना कठिन है कि जिन अदालतों का गठन ही कुछ विशेष मामलों के निस्तारण के लिए हुआ है, वे उनकी सुनवाई में प्राथमिकता का परिचय क्यों नहीं दे रही हैं? उचित यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट इन अदालतों को यह स्पष्ट निर्देश दे कि वे जनप्रतिनिधियों के मामलों की सुनवाई एक निश्चित समय सीमा में करें और ऐसा करने के लिए उच्च न्यायालयों को निर्देशित करे। यदि ऐसा कुछ नहीं किया जाता तो राजनीति के अपराधीकरण को रोकना बहुत कठिन होगा और आपराधिक छवि के नेताओं के मामलें न्यायालयों में बढ़ते ही जायेंगे। यह स्थिति लोकतंत्र का उपहास उड़ाने वाली ही है। यह स्थिति अधिक चिन्ताजनक एवं दुखद इसलिये भी है कि अब तो गंभीर आपराधिक मामलों में जेल में बंद लोगों को चुनाव प्रचार के लिए भी जमानत देने का सिलसिला कायम हो गया है। जनप्रतिनिधि भी रक्षक नहीं, भक्षक हो रहे हैं। ये कानून का भक्षण करने में माहिर होते जा रहे हैं। ये कैसे जनप्रतिनिधि हैं जो पहले वोट मांगते हैं, फिर जीत के बाद लोगों को लात मारते हुए उनके साथ तरह-तरह के अपराध करते हैं। लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्त्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र न होकर अपराध तंत्र हो गया। क्या यही उन शहीदों का स्वप्न था, जो फांसी पर झूल गये थे? राजनीतिक व्यवस्था और सोच में व्यापक परिवर्तन हो ताकि कोई भी अपराधों में लिप्त नेता जन-प्रतिनिधि न बन सके।
दिल्ली नगर निगम चुनावों में जीते पार्षदों के संदर्भ में एडीआर और ‘दिल्ली इलेक्शन वाच’ ने चौंकाने वाली रिपोर्ट जारी कर यह बताया गया है कि दो सौ अड़तालीस विजेताओं में से बयालीस यानी सत्रह प्रतिशत निर्वाचित पार्षद ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसके अलावा, उन्नीस पार्षद गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी हैं। इससे पूर्व दिल्ली में फरवरी, 2020 में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी एडीआर ने अपने विश्लेषण में चुने गए कम से कम आधे विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज पाए थे। इसमें मुख्य रूप से आम आदमी पार्टी के विधायक थे। अब प्रश्न है कि दिल्ली नगर निगम हो या विधानसभा के चुनावों में भी आप पार्टी ने उम्मीदवार बनाने के लिए स्वच्छ छवि के व्यक्ति को तरजीह देने की जरूरत क्यों नहीं समझी? जबकि इस पार्टी का घोष ही रहा अपराध एवं भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति।
चुनावी सुधारों पर होने वाली तमाम चर्चाओं में राजनीति का अपराधीकरण एक अहम मुद्दा रहता है। राजनीति का अपराधीकरण-‘अपराधियों का चुनाव प्रक्रिया में भाग लेना’-हमारी निर्वाचन व्यवस्था का एक नाजुक अंग बन गया है। मौजूदा लोकसभा सदस्यों में सर्वाधिक 29 प्रतिशत सदस्यों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि पिछली लोकसभा में यह आँकड़ा तुलनात्मक रूप से कम था। राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह पक्ष है, जिसके मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग ने कई कदम उठाए हैं, किंतु इस संदर्भ में किये गए सभी नीतिगत प्रयास समस्या को पूर्णतः नियंत्रित करने में असफल रहे हैं। हालांकि एक अच्छी पहल यह हुई है कि अब हाईकोर्ट की इजाजत के बिना सरकार किसी भी सांसद एवं विधायक के खिलाफ दर्ज मामले वापस नहीं ले सकती है। राजनीति के अपराधीकरण के कारण चुनावी प्रक्रिया में काले धन का प्रयोग काफी अधिक बढ़ जाता है। इसका देश की न्यायिक प्रक्रिया पर भी दुष्प्रभाव देखने को मिलता है और अपराधियों के विरुद्ध जाँच प्रक्रिया धीमी हो जाती है। राजनीति में प्रवेश करने वाले अपराधी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और नौकरशाही, कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका सहित अन्य संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। यह स्थिति समाज में हिंसा, भ्रष्टाचार, उत्पीड़न की संस्कृति को प्रोत्साहित करती है और भावी जनप्रतिनिधियों के लिये एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करती है। वैसे तो भारत का लोकतंत्र बड़े-बड़े बाहुबली एवं आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं के शर्मनाक कृत्यों का गवाह रहा है, बार-बार शर्मसार हुआ है। यही कारण है कि राजनीति का चरित्र गिर गया और साख घटती जा रही है।
इन वर्षों में जितने भी चुनाव हुए हैं वे चुनाव अर्हता, योग्यता एवं गुणवत्ता के आधार पर न होकर, व्यक्ति, दल या पार्टी के धनबल, बाहुबल एवं जनबल के आधार पर होते रहे हैं, जिनको आपराधिक छवि वाले राजनेता बल देते रहे हैं। आप ने भ्रष्टाचार एवं अपराधों पर नियंत्रण की बात करते हुए राजनीति का बिगुल बजाया। लेकिन यह दल तो जल्दी ही अपराधी तत्वों से घिर गया। नेताओं की चादर इतनी मैली है कि लोगों ने उसका रंग ही काला मान लिया है। अगर कहीं कोई एक प्रतिशत ईमानदारी दिखती है तो आश्चर्य होता है कि यह कौन है? पर हल्दी की एक गांठ लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता है। यही लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़ा संकट है। आदर्श लोकतंत्र एवं समाज व्यवस्था का निर्मित करने की जिम्मेदारी इन्हीं नेताओं पर है, जिनका चरित्र एवं साख मजबूत होना जरूरी है। दुःखद स्थिति है कि भारत अपनी आजादी के अमृत काल तक पहुंचते हुए भी स्वयं को ईमानदार नहीं बना पाया, चरित्र सम्पन्न राष्ट्र नहीं बन पाया।