सिदगोड़ा सूर्य मंदिर में सात दिवसीय दिव्य दार्शनिक प्रवचन एवं संकीर्तन में पशुपतिनाथ जी नेपाल से पधारे पूज्य स्वामी श्री रामदास जी ने तीसरे दिन किया प्रवचन, बताया- भगवान से जीव का भेद भी है अभेद भी है
जमशेदपुर। सिदगोड़ा स्थित सूर्य मंदिर में घनश्याम कृपालु धाम वृंदावन एवं जमशेदपुर सूर्य मंदिर समिति के संयुक्त सौजन्य से सात दिवसीय दिव्य दार्शनिक प्रवचन एवं संकीर्तन के तीसरे दिन पशुपतिनाथ जी नेपाल से आए हुए पूज्य स्वामी श्री रामदासजी ने भगवान से जीव का भेद भी है अभेद भी है विषय पर मार्गदर्शन किया। स्वामी श्री रामदासजी ने वेद एवं शास्त्रों से प्रमाण देते हुए यह कहा कि जब भगवान को जानने के लिए गुरु के पास श्रद्धापूर्वक जाएंगे तब अनेक ग्रंथों को न पढ़ें। क्योंकि ग्रंथों को पढ़ने और समझने के लिए अधिकारित्व चाहिए। जैसे कि तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि रामचरितमानस पढ़ने के लिए पहले श्रद्धावान होना चाहिए, कोई वास्तविक गुरु साथ में होना चाहिए और भगवान राम के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होना चाहिए। अगर ये तीन शर्तें पूरी हों तो कोई रामचरितमानस पढ़ सकता है और समझ सकता है। गीता पढ़ने के लिए तो तपस्वी भी होना अनिवार्य है और भक्त भी होना चाहिए, और श्रीकृष्ण भगवान ही हैं यह विश्वास होना चाहिए। तब कोई गीता पढ़ सकता है। अगर बिना अधिकारित्व कोई वेदों को शस्त्रों को पढ़ेगा तो अपने हिसाब से ही अर्थ लगाएगा जिससे साधक को लाभ की बजाए हानि होती है।
भगवान को जानने के लिए हम अनेक लोगों को सुनते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। अगर कोई वास्तविक महापुरुष नहीं है तो उनकी बातों को सुनने से भगवान के बारे में हम नहीं जान सकते। लोग अपना अनुभव भले ही बता दें लेकिन वह अनुभव परम सत्य नहीं होता। जैसे कि अंधे लोग जब हाथी का स्पर्श करके हाथी के बारे में अपना अनुभव बताते हैं तो वो सभी का अनुभव भिन्न भिन्न होता है जो उनके हिसाब से तो ठीक है लेकिन वास्तव में सत्य नहीं है।
अनेक संतों को भी नहीं सुनना चाहिए। क्योंकि सबके अलग अलग मत हैं। अगर हम कभी आदि जगद्गुरु श्री शङ्कराचार्यजी का सिद्धान्त सुनेंगे कभी श्री निम्बार्काचार्यजी का सुनेंगे, कभी श्री माध्वाचार्यजी का सुनेंगे तो सब का सिद्धांत परस्पर विरोधी होने के कारण हम उलझते जाएंगे। इसलिए जब कोई वास्तविक गुरु मिल जायें तो उनको ही सुन करके उनके ही निर्देशन में हमें ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
वेदों में तीन तत्त्व बताए गए हैं- ब्रह्म, जीव, माया। ये तीनों तत्त्व अनादि सनातन हैं। ब्रह्म सर्वोच्च तत्त्व है, नियामक है, शाषक है, प्रेरक है। ब्रह्म ही आनंद है, सृष्टिकर्ता है। ब्रह्म सगुण साकार भी है निर्गुण निराकार भी है। ब्रह्म एक है। भगवान अनेक नहीं हो सकते। एक ही भगवान अनेक स्वरूप धारण करते हैं। सब एक ही हैं इसीलिए उनमें एक स्वरूप छोटा दूसरा बड़ा ऐसा नहीं मानना है। भगवान सर्वव्यापक हैं। उनके अनंत शक्तियां हैं। लेकिन ऐसे ब्रह्म या भगवान हमारी इन्द्रिय-मन-बुद्धि से परे हैं, दिव्य हैं। इसलिए हम उनको नहीं जान सकते हैं। वे जिस पर कृपा करके अपना दिव्य इन्द्रिय-मन-बुद्धि एवं दिव्य ज्ञान प्रदान कर देते हैं वह सौभाग्यशाली जीव ही भगवान को जान सकता है।
माया तत्त्व के बारे में वेदों ने कहा है कि माया भगवान की ही शक्ति है, लेकिन जड़ शक्ति है। माया सत्य है, नित्य है लेकिन माया के द्वारा बना यह जगत अनित्य है। संसार हमारे लिए परम आवश्यक है। बिना संसार के हम रह ही नहीं सकते। लेकिन संसार का उपयोग करना चाहिए, इसमें आसक्त नहीं होना चाहिए। माया के कारण ही जीव ने अपना वास्तविक स्वरुप भुलाया है। क्योंकि भगवान ही माया का संचालन कर रहे हैं इसीलिए माया भी भगवान के सामान ही शक्तिशाली है। अतः माया को कोई भी अपने बल के द्वारा साधना करके जीत नहीं सकता। जीव तत्त्व के बारे में वेद कहते हैं कि जीव भगवान अर्थात आनंद का अंश है, इसलिए निरंतर आनंद चाहता है। अंश और अंशी में भेदाभेद संबन्ध होता है। दोनों अनादि हैं, नित्य हैं, चेतन हैं। इन बातों में हम भगवान से मुकाबला कर सकते हैं। लेकिन भगवान मायाधीश हैं, हम मायाधीन भगवान स्रष्टा हैं हम सृज्य । भगवान् सर्वव्यापक हैं, हम देहव्यापक भगवान सर्वज्ञ हैं हम अल्पज्ञ । 1 भगवान को प्राप्त करके ही जीव आनंदमय हो सकता है। इस प्रकार से भगवान से जीव के अनेक भेद हैं।
तीनों तत्त्व- ब्रह्म, जीव और माया इन्द्रिय-मन-बुद्धि से परे हैं। भगवान कृपा से ही हम अपने बारेमे, माया के बारे मे और भगवान के बारे मे जान सकते हैं। लेकिन भगवान कैसे कृपा करेंगे और उनकी कृपा पाने के लिए हमें क्या करना होगा, यह आगे की कथा में बताया जाएगा।