नेशनल हेराल्ड मामला: आरोप, राजनीति और लोकतंत्र की परख
राष्ट्र संवाद संवाददाता
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा कांग्रेस की शीर्ष नेतृत्व—सोनिया गांधी और राहुल गांधी के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाख़िल किए जाने से भारतीय राजनीति में एक बार फिर उथल-पुथल मच गई है। यह मामला केवल वित्तीय अनियमितताओं या मनी लॉन्ड्रिंग तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका दायरा कहीं व्यापक है। इसमें सत्ता, विपक्ष, लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका और कानून के इस्तेमाल को लेकर कई जटिल प्रश्न उठते हैं।
नेशनल हेराल्ड अख़बार की स्थापना 1938 में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। यह केवल एक समाचार पत्र नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की आवाज़ था। आज़ादी के बाद इसे संचालित करने के लिए ‘एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड’ (एजेएल) नामक कंपनी को धारा 25 के तहत गैर-लाभकारी घोषित किया गया और टैक्स में छूट मिली। एजेएल नेशनल हेराल्ड (अंग्रेज़ी), नवजीवन (हिंदी) और कौमी आवाज़ (उर्दू) नाम से तीन अख़बार छापती थी।
वर्ष 2008 में एजेएल के सभी प्रकाशन बंद हो गए। साथ ही, उस पर लगभग 90 करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ गया। इसके बाद कांग्रेस नेतृत्व ने ‘यंग इंडियन प्राइवेट लिमिटेड’ नामक एक नई गैर-लाभकारी कंपनी का गठन किया, जिसमें सोनिया गांधी और राहुल गांधी के पास 76% शेयर थे। यह कंपनी एजेएल के कर्ज को चुकता करने का दावा करते हुए उसे मात्र 50 लाख रुपये में अधिग्रहित कर लेती है। यहीं से विवाद की शुरुआत होती है।
बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने 2012 में इस सौदे को लेकर आपराधिक शिकायत दायर की, जिसमें धोखाधड़ी और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप लगाए गए। उन्होंने दावा किया कि 50 लाख में 90 करोड़ की देनदारी खरीद कर 2000 करोड़ रुपये की संपत्तियों पर मालिकाना हक हासिल करना अवैध है। इसके बाद प्रवर्तन निदेशालय ने मनी लॉन्ड्रिंग के तहत जांच शुरू की।
2022 में सोनिया और राहुल गांधी से पूछताछ हुई और अब अप्रैल 2025 में ईडी ने इनके खिलाफ चार्जशीट दाख़िल की है, इसमें वरिष्ठ कांग्रेस नेता सैम पित्रोदा और सुमन दुबे का भी नाम शामिल है। साथ ही, ईडी ने दिल्ली, मुंबई और लखनऊ में स्थित एजेएल की संपत्तियों को पीएमएलए कानून की धारा 8 के तहत जब्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। कांग्रेस ने इस पूरे घटनाक्रम को ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ करार दिया है। पार्टी ने इस कार्रवाई को ‘राज्य प्रायोजित अपराध’ बताते हुए कहा कि यह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री द्वारा विपक्ष को धमकाने की रणनीति का हिस्सा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि कांग्रेस का नेतृत्व इससे डरने वाला नहीं है और वह इस लड़ाई को राजनीतिक एवं कानूनी दोनों स्तरों पर लड़ेगी।
यह बयान केवल एक पार्टी के बचाव का नहीं, बल्कि विपक्षी राजनीति के सामने खड़े उस संकट का भी प्रतीक है, जिसमें केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल सत्ताधारी दल के हित में होता दिख रहा है। कांग्रेस का यह भी कहना है कि अगर, यह वास्तव में वित्तीय अनियमितता का मामला है, तो फिर इतने वर्षों तक इसकी निष्क्रिय जांच क्यों चलती रही? क्या अब जब चुनावी माहौल बन रहा है, तभी इसकी सक्रियता का उद्देश्य कुछ और नहीं है? यह मामला एक बड़ी बहस को जन्म देता है। क्या केंद्रीय जांच एजेंसियां वास्तव में स्वतंत्र रूप से कार्य कर रही हैं, या फिर वे सत्ता का औजार बन गई हैं? यह केवल कांग्रेस बनाम बीजेपी की लड़ाई नहीं, बल्कि लोकतंत्र में ‘जवाबदेही’ और ‘संवैधानिक संतुलन’ की बुनियादी अवधारणाओं की कसौटी भी है। अगर, विपक्ष के प्रमुख नेताओं को कानूनी प्रक्रिया के नाम पर चुनावी या राजनीतिक रूप से निशाना बनाया जाता है, तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
साथ ही, यह भी आवश्यक है कि कानून का पालन हो, चाहे आरोपी कोई भी हो। अगर, वास्तव में वित्तीय गड़बड़ियां हुई हैं, तो न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से सज़ा होनी चाहिए। परंतु, यदि यह केवल राजनीतिक दबाव बनाने और सार्वजनिक छवि धूमिल करने का प्रयास है, तो इससे कानून और संस्थाओं की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगते हैं। नेशनल हेराल्ड केस अब केवल एक कानूनी मामला नहीं रह गया है। यह एक बड़ा राजनीतिक और नैतिक विमर्श बन चुका है। इसमें जहां एक ओर वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग है, वहीं दूसरी ओर सत्ता के दुरुपयोग का आरोप भी है। आने वाले दिनों में अदालत की सुनवाई से काफ़ी कुछ स्पष्ट होगा, परंतु तब तक यह मुद्दा भारतीय राजनीति का एक अहम मोर्चा बना रहेगा।
यह मामला हमें याद दिलाता है कि भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में केवल चुनाव ही नहीं, बल्कि संस्थाओं की निष्पक्षता, विपक्ष की स्वतंत्रता और कानून के शासन का पालन ही सच्चे लोकतंत्र की पहचान है। यदि, सत्ता और जांच एजेंसियों के बीच की दूरी धुंधली होती जाएगी, तो लोकतांत्रिक ताने-बाने को बचाए रखना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा।