देवानंद सिंह
भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र प्राकृतिक सुंदरता, जैव विविधता और सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता है, लेकिन यहां मानसून का जो कहर देखने को मिल रहा है। बीते कुछ दिनों में असम, मिज़ोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय जैसे राज्यों में भारी बारिश के चलते बाढ़ और भूस्खलन की भयावह घटनाएं सामने आई हैं। इन आपदाओं ने न सिर्फ़ जान-माल की भारी क्षति की है, बल्कि यह भी उजागर कर दिया है कि किस प्रकार यह संवेदनशील इलाका जलवायु परिवर्तन, बुनियादी ढांचे की कमजोरी और आपदा प्रबंधन की विफलताओं की त्रिस्तरीय मार झेल रहा है।
बीते 48 घंटों में पूर्वोत्तर भारत में कम से कम 30 लोगों की मौत हो चुकी है। अकेले असम में आठ लोगों की मौत और 60,000 से अधिक लोगों के प्रभावित होने की पुष्टि हुई है। असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, राज्य के 12 ज़िलों में 175 गांव पूरी तरह डूब चुके हैं। सबसे अधिक प्रभावित लखीमपुर ज़िले में प्रशासन ने 10 से अधिक राहत शिविर खोले हैं, जहां दाल, चावल, तेल, नमक, चिवड़ा और गुड़ जैसे खाद्य पदार्थ मुहैया कराए जा रहे हैं।
मिज़ोरम में भूस्खलन के चलते चार लोगों की मौत हुई है, जिनमें तीन म्यांमार से आए शरणार्थी भी शामिल हैं। मणिपुर में इंफाल और आसपास के क्षेत्रों में नदी के तटबंध टूटने से कई इलाक़े जलमग्न हो गए हैं, जबकि सेना और असम राइफल्स ने 800 लोगों को बचाया है। सिक्किम में उत्तर सिक्किम का संपर्क राज्य के अन्य हिस्सों से कट चुका है और 1,500 से अधिक पर्यटक फँसे हुए हैं। तीस्ता नदी खतरे के निशान के करीब बह रही है, और एक वाहन के नदी में गिर जाने के बाद 9 पर्यटक अब तक लापता हैं।
प्राकृतिक आपदाओं का आना एक हद तक टाला नहीं जा सकता, लेकिन उनका प्रभाव कितना विनाशकारी होगा, यह काफी हद तक शासन व्यवस्था और प्रबंधन पर निर्भर करता है। पूर्वोत्तर राज्यों में आपदा की स्थिति हर वर्ष मानसून के दौरान दोहराई जाती है, लेकिन राज्य और केंद्र की तैयारी अक्सर प्रतिक्रियात्मक और अस्थायी दिखती है। असम जैसे राज्य, जहां ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियाँ बार-बार बाढ़ लाती हैं, वहां आज भी नदी प्रबंधन, तटबंधों की मजबूती और शहरी जलनिकासी की प्रणाली में पर्याप्त सुधार नहीं हुआ है। गुवाहाटी जैसे बड़े शहर में भी जलभराव और भूस्खलन आम होते जा रहे हैं, जो नगरीकरण की अराजकता और पर्यावरणीय उपेक्षा को दर्शाते हैं।
जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिण एशिया में मानसून प्रणाली पहले की तुलना में अधिक अनिश्चित और तीव्र हो गई है। पूर्वोत्तर भारत जो कि पर्वतीय और नदीनिर्भर भूगोल पर टिका है, वहां अत्यधिक वर्षा के कारण ज़मीन धंसने और नदियों के उफान में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। सिक्किम और अरुणाचल जैसे राज्यों में ज़मीन धंसने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह न सिर्फ़ जलवायु परिवर्तन की देन है, बल्कि अनियोजित निर्माण, खनन और सड़क विस्तार जैसी मानवीय गतिविधियों का भी परिणाम है। यह क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील है, जहां विकास कार्यों को पर्यावरणीय सतर्कता के साथ करना अनिवार्य है, लेकिन यथार्थ में ऐसा कम ही होता है।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने दावा किया है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उनसे फ़ोन पर बात कर राज्य की स्थिति की जानकारी ली और हरसंभव सहायता का आश्वासन दिया। अमित शाह ने अपने सोशल मीडिया पर असम, सिक्किम, अरुणाचल और मणिपुर के प्रमुखों से संवाद की बात कही। यह सराहनीय है कि केंद्र सरकार ने इस आपदा को गंभीरता से लिया है, लेकिन यह केवल राहत और बचाव तक सीमित नहीं रहना चाहिए। दीर्घकालिक रणनीति, जैसे कि पूर्व चेतावनी प्रणाली, जल प्रवाह प्रबंधन, और पुनर्वास योजनाओं की सुदृढ़ता पर बल देना होगा।
असम राइफल्स, सेना और NDRF की टीमों ने प्रभावित क्षेत्रों में सैकड़ों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया है। इंफाल ईस्ट जैसे इलाक़ों में जलभराव से घिरे घरों से लोगों को निकालना एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। सिक्किम में पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर्यटकों को सुरक्षित रखने के लिए होटल और होमस्टे में ही ठहरने की सलाह दे रहे हैं, हालांकि इंफ्रास्ट्रक्चर की सीमा, संचार व्यवस्था का टूटना और मौसम की अनिश्चितता राहत कार्यों को बाधित कर रहे हैं। उत्तर सिक्किम में कई पर्यटक अब भी फंसे हुए हैं, और लगातार वर्षा व लैंडस्लाइड के कारण उन्हें सुरक्षित निकालना एक जटिल कार्य बन गया है।
बाढ़ और भूस्खलन सिर्फ़ भौगोलिक या पर्यावरणीय संकट नहीं हैं। वे सामाजिक और मानवीय संकट भी बन जाते हैं। राहत शिविरों में भीड़, सीमित संसाधन, बीमारियां और मानसिक तनाव, ये सभी संकटग्रस्त आबादी की हालत को और बदतर बनाते हैं। म्यांमार से आए शरणार्थियों की मौत और राहत संसाधनों तक सीमित पहुंच इस बात को रेखांकित करती है कि आपदा की मार सबसे पहले और सबसे गहराई से हाशिए पर खड़े समुदायों को ही झेलनी पड़ती है।
पूर्वोत्तर भारत दशकों से देश की राष्ट्रीय नीतियों में हाशिए पर रहा है, चाहे वह आर्थिक निवेश हो, कनेक्टिविटी, स्वास्थ्य सेवा, या आपदा प्रबंधन का बुनियादी ढांचा। भले ही ‘एक्ट ईस्ट’ पॉलिसी और नॉर्थईस्ट के विकास पर ज़ोर देने की बात की जाती रही है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि आपदा जैसी स्थिति में ये राज्य सबसे कमजोर कड़ी साबित होते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और संबंधित एजेंसियों को पूर्वोत्तर की विशेष भौगोलिक और पारिस्थितिकीय चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए राज्य-विशेष रणनीतियां बनानी चाहिए। सामान्यीकृत दृष्टिकोण यहाँ सफल नहीं हो सकता।
नदी प्रणाली के आसपास की बस्तियों को चरणबद्ध तरीके से पुनर्वासित किया जाए। जल-धारण और जल-संचयन परियोजनाएं बढ़ाई जाएं। गांव-स्तर पर रेडियो आधारित, मोबाइल नेटवर्क से युक्त प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित की जाए।
वहीं, भूस्खलन और बाढ़ संभावित इलाकों की डिजिटल मैपिंग की जाए, जिससे भविष्य की योजना वैज्ञानिक आधार पर बन सके। राहत कार्यों से आगे बढ़ते हुए पुनर्निर्माण और आजीविका पुनर्स्थापन पर ध्यान दिया जाए। आपदा प्रबंधन में स्थानीय स्वायत्त निकायों, स्वयंसेवी संस्थाओं और ग्राम समितियों को सम्मिलित किया जाए। यह केवल सरकारी प्रयासों पर निर्भर नहीं रह सकता।
कुल मिलाकर, पूर्वोत्तर भारत एक बार फिर प्राकृतिक आपदा के सामने असहाय खड़ा है। इस त्रासदी की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए केवल प्रतिक्रिया देने वाली व्यवस्था पर्याप्त नहीं है, बल्कि पूर्व तैयारी, पर्यावरणीय चेतना, और दीर्घकालिक पुनर्निर्माण की नीति आवश्यक है। मानव जीवन की क्षति और सामाजिक ढांचे के टूटने की कीमत पर विकास की कल्पना एक खोखला विचार है। जब तक भारत का पूर्वोत्तर सिर्फ़ ‘अलग’ भूगोल नहीं बल्कि ‘अहम’ भूगोल के रूप में नहीं देखा जाएगा, तब तक हर मानसून ऐसे ही आंसू बहाता रहेगा और सत्ता के गलियारों में वे केवल आंकड़ों में तब्दील होते रहेंगे।