नेपाल की राजनीति में नई करवट के मायने
देवानंद सिंह
नेपाल एक बार फिर राजनीतिक विवाद की आग में जल रहा है। वहां राजशाही की मांग को लेकर जिस तरह हिंसा हो रही है, उसने नई राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया है। नेपाल को 2008 में राजशाही से मुक्ति मिल चुकी थी, लेकिन लगातार राजनीतिक अस्थिरता की वजह से एक बार राजशाही की मांग किया जाना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। शुक्रवार को काठमांडू में राजशाही समर्थकों और पुलिस के बीच हुई झड़पों ने नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य को और भी जटिल बना दिया है। इस हिंसा में दो लोगों की मौत हो गई और कई लोग घायल हुए। इसके बाद पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह और उनके समर्थकों पर आरोप लगने लगे, जिनके खिलाफ लोकतंत्र समर्थक दलों ने कड़ी कार्रवाई की मांग की है। यह घटना केवल हिंसा तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसने नेपाल की राजनीतिक स्थिति, राजशाही समर्थक और लोकतंत्र समर्थक दलों के बीच की खाई और विदेशी प्रभावों के आरोपों को भी एक बार फिर से जिंदा कर दिया।
उल्लेखनीय है कि नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के बाद से राजनीतिक अस्थिरता का एक लंबा इतिहास रहा है। 2008 में राजशाही को समाप्त कर दिया गया और नेपाल को एक गणराज्य घोषित किया गया, लेकिन इसके बाद से नेपाल में सरकारों का स्थायित्व कभी भी मजबूत नहीं हो सका। 2008 से लेकर अब तक नेपाल में 14 सरकारें आ चुकी हैं, और प्रत्येक सरकार के दौरान राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे हैं। यह अस्थिरता और संघर्ष सत्ता की सटीकता और स्पष्टता की कमी का परिणाम है, जो नेपाल की राजनीति में प्रमुख रूप से देखा जा रहा है।
दूसरी ओर, राजशाही समर्थक दल, जिनमें मुख्य रूप से पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के समर्थक शामिल हैं, लगातार लोकतांत्रिक व्यवस्था से असंतुष्ट नजर आते हैं। इन दलों का मानना है कि राजशाही का खात्मा नेपाल के लिए एक गलती थी, और उन्होंने यह भी दावा किया है कि पूर्व राजा का शासन बेहतर था। इस समय, ज्ञानेंद्र शाह के समर्थक फिर से राजनीति में अपनी सक्रियता बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि लोकतंत्र समर्थक दल उन्हें देश की राजनीति में हस्तक्षेप करने का दोषी मानते हैं।
नेपाल के सत्तारूढ़ दलों, जैसे नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) और नेपाली कांग्रेस ने ज्ञानेंद्र शाह को शुक्रवार की हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया है। इन दलों का आरोप है कि पूर्व राजा के इशारे पर ही यह हिंसा हुई है। इन दलों का कहना है कि ज्ञानेंद्र शाह ने अपनी खोई हुई सत्ता को फिर से प्राप्त करने के लिए लोगों को उकसाया। इस संदर्भ में, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल प्रचंड ने कहा कि यह समय सरकार के लिए कड़ी कार्रवाई करने का है और ज्ञानेंद्र शाह को न्याय के कटघरे में लाया जाना चाहिए।
इसके अलावा, काठमांडू मेट्रोपोलिटन सिटी ने ज्ञानेंद्र शाह पर जुर्माना भी लगाया है और अगर वह इसे अदा नहीं करते हैं, तो कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी है। यह कदम न केवल सरकार के आक्रामक रवैये को दर्शाता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि नेपाल में लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ उठने वाली किसी भी चुनौती को गंभीरता से लिया जा रहा है। नेपाल में राजशाही समर्थकों द्वारा योगी आदित्यनाथ के पोस्टर दिखाने से एक नया विवाद भी खड़ा हुआ है। योगी आदित्यनाथ की तस्वीर के साथ प्रदर्शन से यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या नेपाल में राजशाही समर्थकों का आंदोलन भारत से प्रेरित हो रहा है। हालांकि, नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस प्रदर्शन की आलोचना की है और कहा कि किसी विदेशी नेता की तस्वीर के साथ प्रदर्शन करना देश की गरिमा के खिलाफ है।
नेपाल की राजनीति में भारत का हमेशा एक महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। नेपाल और भारत के बीच संबंधों में अक्सर तनाव और सहयोग दोनों का मिश्रण देखा जाता है। इस बार, योगी आदित्यनाथ की तस्वीर दिखने के बाद, नेपाल में यह सवाल उभरा है कि क्या भारत नेपाल के राजशाही समर्थकों को भड़का रहा है। हालांकि, ज्ञानेंद्र शाह के समर्थकों ने इन आरोपों को खारिज किया है, और कहा है कि यह केवल नेपाल की आंतरिक राजनीति से जुड़ा हुआ मुद्दा है।
भारत और नेपाल के बीच के राजनीतिक संबंधों की जटिलता को देखते हुए, नेपाल के कई राजनीतिक विश्लेषक इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या यह प्रदर्शन किसी तरह से क्षेत्रीय राजनीति का हिस्सा है। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि नेपाल में लोकतांत्रिक संस्थाएं बार-बार अपनी वैधता साबित करने में नाकाम रही हैं, और इसके चलते विदेशी शक्तियों के प्रभाव को लेकर संदेह पैदा होता है।
दूसरी ओर, लोकतंत्र समर्थक दलों का दावा है कि नेपाल में राजशाही के खिलाफ जो आंदोलन हुआ था, वह लोगों की नाराजगी और असंतोष का परिणाम था। इन दलों का कहना है कि राजशाही के तहत, ज्ञानेंद्र शाह ने जो अत्याचार किए, वे लोकतांत्रिक बदलाव के लिए कारण बने। उन्होंने सत्ता का दुरुपयोग किया, और हजारों लोगों को गिरफ्तार और प्रताड़ित किया। लोकतंत्र समर्थक दलों का मानना है कि नेपाल में लोकतांत्रिक बदलाव, ज्ञानेंद्र शाह की गलत नीतियों के कारण ही संभव हो सका था।नेपाल की राजनीति में इस समय सबसे बड़ी चुनौती यही है कि देश को एक स्थिर, सक्षम और प्रभावी सरकार की आवश्यकता है। हालिया घटनाओं ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच गहरी खाई है और ये दल एक-दूसरे पर आरोप लगाकर एकजुटता की कमी को उजागर कर रहे हैं।
नेपाल के लोकतंत्र समर्थक दलों को यह समझने की जरूरत है कि अगर वे लोगों के विश्वास को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें अपने प्रशासनिक कार्यों और नीतियों को सुधारने की आवश्यकता है। दूसरी ओर, राजशाही समर्थक दलों को यह समझना होगा कि राजशाही की वापसी संभव नहीं है, और लोकतंत्र को किसी भी रूप में वापस लाना नेपाल के भविष्य के लिए बेहतर होगा। कुल मिलाकर, नेपाल की राजनीति में एक नई करवट देखने को मिल रही है। लोकतंत्र और राजशाही समर्थक दलों के बीच का संघर्ष और बढ़ता हुआ तनाव, देश की राजनीतिक अस्थिरता को और बढ़ा सकता है। हालांकि, यह समय नेपाल के लिए एक आत्मनिर्भर और स्थिर राजनीतिक ढांचे की ओर कदम बढ़ाने का है, ताकि आने वाले समय में जनता को सशक्त और सुरक्षित लोकतांत्रिक व्यवस्था मिल सके।