नहीं होता एतवार, कि ‘सुशासित’ है बिहार!
समस्तीपुर में दारोगा और अररिया में पत्रकार की हत्या के बाद, सुशासन बाबू की सरकार में कायम ‘सुशासन’ पर जिस तरीके से सवाल उठने लगे हैं, वह लाजिमी है। आखिर, निंदा हो भी क्यों नहीं? आखिर, सरकार का मतलब क्या होता है? क्या सरकार का मतलब यही होता है, कि जनता के पैसे पर खाओ-पियो-मौज करो, और जनता को उसके हाल पर छोड़ दो? किसी भी सरकार को यह बात साफ-साफ शब्दों में समझ लेनी चाहिए कि अगर जनता के पैसे पर मौज कर रहे हो, तो जनता की खैरियत का भी ख्याल करना होगा, रखना होगा!
जरा इनकी बेशर्मी तो देखिये! क्षत-विक्षत होते सुशासन पर सवाल कीजिए, तो सीधा जवाब होता है- ‘मणिपुर में क्या हो रहा है, तीन महीने से जल रहा है, वह नजर नहीं आता, आंय!’ ऐसा जवाब देते वक्त, सत्ताधारी दल के प्रवक्तागण अगर थोड़ा भी शर्म कर लेतें, तो बात कुछ और हो जाती, पर ना..बिल्कुल ना..!! इनके प्रवक्ताओं को बिना कोई बहाना बनाए, बिना इधर- उधर झांके, इस नसीहत को आत्मसात् कर लेनी चाहिए, कि मणिपुर की घटना की भी निंदा-आलोचना हो रही है। इसके लिए प्रदेश की सरकार से लेकर, केंद्र की सरकार तक को कठघरे में हम-आप ही नहीं, देश की सीमा से बाहर के लोग भी खड़े कर रहे हैं, तो आपकी भी निंदा, आलोचना होगी, और आपको सुनना पड़ेगा। इतना ही नहीं, कटघरे में खड़ा होना होगा।
घटना पर सफाई देते वक्त, जरा इनके चेहरे पर उभरे भाव को तो देखिए, साफ नजर आ जाता है-
न अहसास, न अफसोस,
मगर, रट- सुशासन चहुंओर..!!
अगर प्रदेश की जनता ऐसा कहने लगी है, कि नीतीश बाबू को बिहार के बेलगाम अपराधियों से निपटने का मार्ग नहीं मिल रहा है, तो इसमें गलत क्या है, यह बिल्कुल सत्य है! प्रदेश की जनता ने तो इनके काम से गदगद हो, ऐसी नाव उपहार में दी थी, जिसपर केवल एक ही मांझी(नीतीश) ही होते, और निर्णय केवल यही लेते, पर इन्हें तो सवारी करना नहीं आया…! और इसके उलट, जब किसी नाव पर दो मांझी होते हैं, तो उस नाव का क्या होता है, वह जगजाहीर है।