बस्तर ‘माओवाद मुक्त’ या असमय घोषणा?
देवानंद सिंह
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र को लेकर इन दिनों एक बार फिर चर्चा तेज़ है। राज्य सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री द्वारा बस्तर को ‘माओवाद मुक्त’ घोषित करने के बाद यह बहस छिड़ गई है कि क्या यह घोषणा महज एक राजनीतिक बयान है या ज़मीनी हकीकत में भी कोई बदलाव आया है? इस दावे की सच्चाई तलाशने पर कई स्तरों जैसे आंकड़ों, नीति-निर्धारण, प्रशासनिक दृष्टिकोण और राजनीतिक मंशा आदि पर विरोधाभास नज़र आते हैं। दरअसल, दिसंबर 2023 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में लौटने के बाद छत्तीसगढ़ में माओवाद के ख़िलाफ़ पहले से चल रहे अभियानों में निर्णायक मोड़ देखा गया। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के नेतृत्व में राज्य सरकार ने दोतरफा रणनीति अपनाई। एक तरफ़ गृहमंत्री विजय शर्मा ने माओवादियों से बातचीत की पेशकश की, वहीं दूसरी तरफ़ सुरक्षाबलों की आक्रामक कार्रवाई को भी अप्रत्याशित गति मिली।
2024 में राज्य में 223 माओवादी मारे जाने का दावा किया गया, जो पिछले चार वर्षों (2020-2023) की कुल संख्या 141 से कहीं अधिक है। इसके अलावा बस्तर क्षेत्र में 28 नए सुरक्षा कैंपों की स्थापना, और क्षेत्र में बार-बार की जाने वाली तलाशी व गश्त की कार्रवाई बताती है कि सरकार ने सैन्य दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी है। राज्य के वरिष्ठ मंत्री रामविचार नेताम द्वारा बस्तर को ‘माओवाद मुक्त’ घोषित किया जाना न केवल हैरान करने वाला है, बल्कि केंद्र की आधिकारिक स्थिति से भी अलग है। केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा प्रकाशित नवीनतम आंकड़ों में बस्तर संभाग के कई ज़िलों बीजापुर, सुकमा, नारायणपुर और कांकेर को अब भी ‘सर्वाधिक माओवाद प्रभावित ज़िलों’ में गिना गया है।
यह विरोधाभास और भी स्पष्ट तब हो जाता है, जब बस्तर ज़िले के कलेक्टर स्वयं इस घोषणा का खंडन करते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि बस्तर अब ‘लेगेसी एंड थ्रस्ट’ कैटेगरी में है, न कि ‘नक्सल मुक्त’ क्षेत्र में। यह श्रेणी उन ज़िलों के लिए निर्धारित की गई हैं, जहां माओवादी गतिविधियां अब भी चिंता का विषय हैं, भले ही इनकी तीव्रता कम हो गई हो। केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्टों के अनुसार, छत्तीसगढ़ के 15 ज़िले अब भी किसी न किसी स्तर पर माओवादी प्रभाव में हैं। इसमें तीन ज़िले गरियाबंद, मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी और दंतेवाड़ा ‘अन्य प्रभावित ज़िले’ माने जाते हैं, जबकि बस्तर सहित कुछ जिलों को ‘लेगेसी एंड थ्रस्ट’ श्रेणी में रखा गया है।
इन श्रेणियों का वर्गीकरण केवल सुरक्षा की दृष्टि से नहीं, बल्कि केंद्र सरकार द्वारा दिए जाने वाले फंडिंग और योजनाओं से भी जुड़ा है। ‘सर्वाधिक प्रभावित ज़िलों’ को सालाना 30 करोड़ रुपये, ‘चिंताजनक ज़िलों’ को 10 करोड़ और ‘लेगेसी’ ज़िलों को विशेष विकास योजनाओं के तहत धन मुहैया कराया जाता है। ऐसे में, ज़िलों को ‘माओवादी प्रभावित’ बनाए रखना स्थानीय प्रशासन के लिए भी लाभकारी हो सकता है। यह बात सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों के बयानों से भी झलकती है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों में माओवादी हिंसा में कमी आई है। 2020 से 2023 के बीच 141 माओवादी मारे गए, जबकि 2024 में यह संख्या 223 तक पहुंच गई। यह किसी निर्णायक सैन्य सफलता की ओर इशारा करता है, लेकिन हिंसा में कमी का मतलब यह नहीं कि माओवाद का ख़तरा समाप्त हो गया है। जंगलों में माओवादियों की छिटपुट मौजूदगी, ग्रामीण इलाकों में उनकी समानांतर प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर होने वाले हमले यह दिखाते हैं कि यह संघर्ष अब भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ, बल्कि अब माओवादियों की रणनीति में बदलाव आया है। वे बड़े हमलों की बजाय सटीक और सीमित कार्रवाई को प्राथमिकता दे रहे हैं।
बस्तर एक संवेदनशील आदिवासी क्षेत्र है, जहां दशकों से राज्य और माओवादी दोनों की उपस्थिति रही है। स्थानीय जनता अक्सर इस दोहरे दबाव में जीती है। कांग्रेस के आदिवासी नेता अमरजीत भगत का बयान कि “जब जनता कहेगी कि बस्तर शांत है, तभी मानेंगे कि बस्तर शांत है”। यह ज़मीनी हकीकत को दर्शाने वाला अहम कथन है। असल शांति केवल प्रशासनिक आंकड़ों या मंत्री के दावे से नहीं आती, बल्कि जब स्थानीय जनता बिना भय के जी सके, तभी यह दावा किया जा सकता है।
पिछले वर्षों में कई निर्दोष आदिवासियों के मुठभेड़ में मारे जाने की खबरें आई हैं, जिससे शांति अभियानों की निष्पक्षता पर भी सवाल उठते हैं। सच्चे अर्थों में माओवाद का खात्मा केवल सैन्य सफलता से नहीं, बल्कि विकास, संवाद और विश्वास के समुचित मिश्रण से ही संभव है।
बस्तर के कई इलाकों में सड़कों, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी अब भी देखी जाती है। केंद्र और राज्य सरकार ने पिछले वर्षों में यहां 17,000 किलोमीटर से अधिक सड़कों की योजना बनाई है, लेकिन ज़मीनी कार्यान्वयन में कई बाधाएं बनी हुई हैं। सुरक्षा के नाम पर जो सैन्यीकरण हो रहा है, वह कई बार विकास को पीछे छोड़ देता है।
स्थानीय समुदायों की सहमति के बिना और उनकी ज़रूरतों को दरकिनार कर किए गए सैन्य फैसले, लोगों में असंतोष को जन्म देते हैं, जिससे माओवादी विचारधारा को फिर से पनपने का आधार मिल सकता है। यह एक चक्रव्यूह है, जिसमें बस्तर दशकों से फंसा हुआ है।
राज्य सरकार द्वारा बस्तर को ‘माओवाद मुक्त’ घोषित करना एक राजनीतिक दांव तो हो सकता है, लेकिन इससे क्षेत्र की वास्तविकता नहीं बदलती। केंद्र सरकार की सूची और ज़मीनी प्रशासनिक स्थिति स्पष्ट रूप से बताती है कि अभी भी माओवाद बस्तर और आसपास के जिलों में सक्रिय है, भले ही सीमित रूप में ही क्यों न हो।
बस्तर की असली मुक्ति तब होगी, जब आदिवासी समुदाय बिना भय के, अपनी पहचान और अधिकार के साथ, लोकतंत्र और विकास की मुख्यधारा में आत्मविश्वास से खड़ा हो सकेगा। इसके लिए ज़रूरी है कि माओवादी हिंसा के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो, लेकिन साथ ही जनविश्वास, पारदर्शिता और समावेशी विकास की नीतियां भी ईमानदारी से लागू की जाएं। ‘माओवाद मुक्त’ की घोषणा एक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन उसे वास्तविकता में बदलना एक लंबी, संवेदनशील और सतत प्रक्रिया है, जिसे केवल आंकड़ों और विजुअल मीडिया अभियानों से नहीं, बल्कि धरातल पर काम करके ही हासिल किया जा सकता है। बस्तर की जनता यह जानती है। अब ज़रूरत है, सत्ता के गलियारों में बैठे लोग भी इसे समझें।