घाव को नासूर ना बनने दिया जाए
डाॅ कल्याणी कबीर
” बोली एक अमोल है जो कोई बोले जानि,
हिय तराजू तौल के तब मुख बाहर आनि । “
कबीरदास जी का यह दोहा बस इसी बात पर टिका है कि भाषाई गरिमा का बने रहना बहुत ही जरूरी है।
जब यह भाषायी गरिमा और मर्यादा टूटती है तो फिर सामाजिकता और मानवीयता के कई सारे धागे बिखरने लगते हैं ।
बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी और कुछ दिनों से शहर में इस बात की खासी चर्चा है कि प्राइवेट नर्सिंग होम के एक संचालक ने राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के बारे में असभ्य और अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया है।
दिनकर जी की पंक्तियां शायद आप सभी जानते होंगे कि राजनीति जब लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे संभालता है ,
पर मैं यहां सँभलने – सँभालने की कोई बात करने नहीं आई । यह विवाद राजनीति और चिकित्सा जगत के बीच है और एक साहित्य साधक के तौर पर मेरे मन में भी कुछ बातें हैं जो साझा करने की धृष्टता कर रही हूं ।
ओपी आनंद जी एक जिम्मेदार चिकित्सक हैं और कोविड के प्रकोप वाले इस विषम परिस्थिति में तो मेरी दृष्टि में वह ईश्वर के समकक्ष है ,और जहाँ तक स्वास्थ्य मंत्री जी की बात है तो उन के संघर्ष और संवाद कौशल की कायल जमशेदपुर की एक बड़ी आबादी है और मैं भी उसमें से एक हूं ।
पर दो अच्छे लोगों के बीच जब कुछ बुरा घट जाता है तो फिर लोग पतंग उड़ाने लग जाते हैं।
अमूमन एक हफ्ते पहले घटी इस घटना के पक्ष- विपक्ष में हम आज भी माथापच्ची कर रहे हैं।
यह स्वास्थ्य मंत्री जी का बड़प्पन है कि उन्होंने ओपी आनंद जी के वक्तव्य की प्रतिक्रिया बहुत ही शांत और सधे स्वर में दिया है।
वैसे मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि नेताओं की एक बाध्यता होती है कि वह मीठा मीठा ही बात करें।
पर उसके बाद कुछ लोगों ने घाव को नासूर बनाने का जिम्मा अपने कंधों पर ले लिया है। मुझे लगता है कि अब इस प्रकरण को छोड़ कर आगे हम कोरोना के प्रकोप और उसके उपाय पर ही ध्यान केंद्रित करें। जब ओ पी आनंद जी ने माफी मांग ही ली है तो फिर बाल की खाल न निकाली जाए । इसे दो भाइयों या मित्रों के बीच की नोंक-झोंक समझ कर बिसरा दिया जाए तो बेहतर है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी तो कहा ही है
क्षमा बड़ेन को चाहिए
छोटन को उत्पात!