दावा और हकीकत
देवानंद सिंह
बीजेपी ने झारखंड में 50 से अधिक सीटें जीतने का दावा किया था, लेकिन उसका इससे भी आधी सीटों पर ही दम निकल गया। वह इंडिया गठबंधन के सामने कहीं टिकती हुई नजर नहीं आई और इंडिया गठबंधन ने अच्छे स्कोर के साथ सत्ता में वापसी करने में सफलता हासिल की। पार्टी के लिए यह हार कई मायनों में गहरा झटका देने वाली है, क्योंकि इसने न केवल बीजेपी की राज्य में स्थिति और कमजोर होगी, बल्कि पार्टी के नेतृत्व और उसकी नीतियों पर भी कई सवाल खड़े हुए हैं। झारखंड की राजनीति में आदिवासी समुदाय का एक महत्वपूर्ण स्थान है। बीजेपी ने शुरुआत में आदिवासी समुदाय को अपनी नीतियों का समर्थन करने का वादा किया था, लेकिन समय के साथ पार्टी का यह संदेश कमजोर होता गया। आदिवासी समुदाय, जो झारखंड के मूल निवासी हैं, बीजेपी की नीतियों से असंतुष्ट दिखाई दिए। राज्य सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण, खनन नीति और अन्य विकास योजनाओं के कारण आदिवासी इलाकों में भारी असंतोष था। पार्टी का यह दावा कि वह आदिवासी हितों की रक्षा करेगी, चुनावी दृष्टि से अब तक साबित नहीं हो सका। झारखंड में आदिवासी पहचान और उनके अधिकारों पर जोर देने वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा ने आदिवासी वोट बैंक को अपने पक्ष में करने में सफलता पाई, जिससे बीजेपी की स्थिति कमजोर हुई।
बीजेपी के लिए झारखंड में एक और बड़ी चुनौती थी स्थानीय नेतृत्व की कमी। आयातित नेताओं को ज्यादा तरजीह मिला जो सिर्फ अपनी सीट पर ही सिमट कर रह गए चंपई सोरेन ने तो लुटिया ही डुबो दी राज्य में बीजेपी का नेतृत्व केंद्रीय नेताओं के हाथों में रहा, जो स्थानीय राजनीति और समस्याओं को पूरी तरह से समझने में विफल रहे। रघुवर दास जैसे नेता के मुख्यमंत्री बनने के बाद पार्टी ने राज्य में अपनी उपस्थिति मजबूत करने की कोशिश की थी, लेकिन उनकी नीतियां और निर्णय पर एक नेगेटिव सेट किया गया और यही से भाजपा का पतन चालू हुआ इसके अलावा, बीजेपी में स्थानीय स्तर पर अच्छे और अनुभवी नेतृत्व की कमी महसूस हुई, जिससे पार्टी के लिए यह चुनावी मुकाबला कठिन हो गया। बीजेपी सरकार के दौरान कई विकास योजनाओं का उद्घाटन किया गया, लेकिन जमीनी स्तर पर इन योजनाओं का कार्यान्वयन के लिए ठोस पहल नहीं होना भी हार का कारण बना सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं में सुधार के मुद्दों को छोड़कर धर्म की राजनीति पर जोर देते रहने से मतदाताओं के बीच नाराजगी रही इसके अलावा, सरकार की नीतियों से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और महंगाई में वृद्धि
के मुद्दे को नजरअंदाज करना भाजपा को महंगा पड़ा
इससे आम जनता में भाजपा के खिलाफ नाराजगी पैदा हुई, विशेष रूप से युवाओं और श्रमिक वर्ग में। बेरोजगारी की समस्या और आर्थिक विकास की रुकावटों ने बीजेपी को चुनावी नुकसान पहुंचाया।
हेमंत सोरेन जब जेल गए थे, तब बीजेपी ने राज्य में भ्रष्टाचार के मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया था। जेल जाने के बाद हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन राजनीति में सक्रिय हुईं और लोकसभा चुनाव में उन्होंने जेएमएम के लिए जमकर प्रचार किया था। विधानसभा चुनाव में कल्पना जहां रैली करने जातीं, वहां खूब भीड़ जुटती थी। बीजेपी ने कल्पना की सक्रियता को परिवारवाद से जोड़ा और भ्रष्टाचार के साथ परिवारवाद को भी अहम मुद्दा बनाया, लेकिन यह मुद्दा भी बेअसर साबित हुआ। कल्पना सोरेन गांडेय विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत चुकी हैं। पहले कल्पना की पहचान सिर्फ़ हेमंत सोरेन की पत्नी की तौर पर थी, लेकिन अब वो पार्टी की एक बड़ी नेता बन चुकी हैं और उन्होंने ख़ुद को एक जननेता के तौर पर स्थापित किया है। इस बार चुनाव में हेमंत और कल्पना ने लगातार जो कैंपेन किया, निश्चित रूप से उसका फ़ायदा जेएमएम को मिला। बीजेपी ने परिवारवाद का मुद्दा उठाया, लेकिन इस जोड़ी की काट नहीं ढूंढ पाई, लेकिन हेमंत सोरेन का कथित भ्रष्टाचार कितना बड़ा मुद्दा था? लेकिन भ्रष्टाचार पर तो वोट पड़ता भी नहीं है। किसी ज़माने में यह मुद्दा रहा करता थ, लेकिन अब जब हर पार्टी के नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो जनता भी इसकी आदी हो चुकी है।
ज़मानत मिलने के बाद हेमंत सोरेन ने इसे एक सहानुभूति के तौर पर भुनाया और उनके वोट बैंक ने हेमंत की इस अपील को स्वीकार कर लिया।
बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों ने मिलकर एक मजबूत मोर्चा बनाया। कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) ने एक प्रभावी चुनावी गठबंधन किया, जिसने राज्य में बीजेपी को प्रभावी चुनौती दी। यह गठबंधन आदिवासी समुदाय और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच अपनी पकड़ बनाने में सफल रहा। इसके अलावा, स्थानीय समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करके गठबंधन ने बीजेपी को उनके वादों की याद दिलाई और जनता को यह संदेश दिया कि बीजेपी अपने चुनावी वादों को पूरा करने में विफल रही है। इस गठबंधन ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में बीजेपी के खिलाफ सकारात्मक माहौल तैयार किया। बीजेपी की चुनावी रणनीति में राज्य के प्रमुख मुद्दों पर फोकस का अभाव था, जबकि विपक्ष ने रोजगार, आदिवासी अधिकार, जल, जंगल, ज़मीन जैसे मुद्दों को उठाया, बीजेपी ने सामान्य तौर पर केंद्रीय योजनाओं और विकास पर जोर दिया। लेकिन इन मुद्दों से जनता का सीधा जुड़ाव नहीं था, और न ही पार्टी ने इन मुद्दों पर ठोस नीति बनाई थी। इससे बीजेपी के लिए चुनावी माहौल अनुकूल नहीं रहा।
विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के पीछे केंद्रीय सरकार के खिलाफ भी असंतोष एक महत्वपूर्ण कारण था। मोदी सरकार की नीतियां, जैसे कि नोटबंदी, जीएसटी, और कृषि कानूनों ने न केवल पूरे देश में बल्कि झारखंड में भी नाराजगी पैदा की। राज्य में बेरोजगारी, महंगाई और अन्य मुद्दों के बीच केंद्रीय सरकार की नीतियां जनता के बीच नकारात्मक रूप से प्रस्तुत हुईं। इस असंतोष का सीधा असर राज्य चुनावों पर पड़ा।
2019 में हेमंत सोरेन के सत्ता पर काबिज होने का एक बड़ा असर आदिवासी राजनीति पर देखने को मिला। इसके बाद लगातार आदिवासियों ने हेमंत के प्रति भरोसा दिखाया है। 2019 के विधानसभा चुनाव, 2024 लोकसभा चुनाव और अब आदिवासियों ने दिखा दिया है कि हेमंत सोरेन ही उनके सर्वमान्य आदिवासी नेता हैं। बीजेपी के पास लोकसभा चुनाव के बाद वापसी का मौक़ा था और उन्होंने भरपूर कोशिश की, लेकिन आदिवासी जेएमएम के साथ रहे, जिससे बीजेपी बाजी पलटने में नाकाम रही।