टिकट बंटवारे के बाद से ही गिरने लगा था भाजपा का ग्राफ
जय प्रकाश राय
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान विपक्ष का जमावड़ा एक बड़ा संदेश देने का प्रयास माना जा रहा है। साल 2019 के आम चुनाव में विपक्ष को करारी हार का सामना करना पड़ा था। मोदी की लहर के आगे सबकुछ गौण सा प्रतीत हो गया था।लेकिन उसके तुरंत बाद दो प्रदेशों महाराष्ट्र और हरियाणा के विधान सभा चुनावों में विपक्ष की उम्मीदें जगी थीं। कहा जाता है कि हरियाणा में कांग्रेस ने बिनामन के चुनाव लड़ा था। यदि वहां उसने आखिरी दिनों वाली ताकत पहले से झोंकी होती तो शायद वहां परिणाम कुछ और हो सकता था। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी की ओर से कहा गया कि उसने इन चुनावों से सबक लिया है। लेकिन लगता है कि झारखंड विधान सभा चुनाव में भाजपा का प्लान बी पूरी तरह से विफल हो गया और एकजुट विपक्ष ने उसे बुरी तरह मात दे दी। विपक्ष की यही एकजुटता लोक सभा चुनाव में भी थी, बल्कि उस समय तो बाबूलाल मरांडी भी इस महागठबंधन के हिस्सा थे।लेकिन मोदी की लहर के आगे सबकुछ ध्वस्त हो गया। झारखंड विधान सभा चुनाव में महागठबंधन ने जैसा प्रदर्शन किया है, उसी की प्रतिबिम्ब शपथ ग्रहण समारोह में दिखाने का प्रयास किया गया है। विपक्ष के कई बड़े चेहरे शपथ ग्रहण समारोह में आये। इसके जरिये एक संदेश भारतीय जनता पार्टी को देने का प्रयास किया है। भाजपा जहां अपने सहयोगी रहे आजसू का साथ इस विधान सभा चुनाव में जुटाने में कामयाब नहीं हो पाई, उससे यह भी संदेश गया कि भाजपाअपने सहयोगियों को साथ रख पाने में सफल नहीं हो रही है। आजसू ने झारखंड के पिछले कई चुनाव भाजपा के सहयोगी के रुप में लड़ा था। हाल ही पहली बार लोक सभा चुनाव में भाजपा ने आजसू समर्थित उम्मीदवार गिरीडीह से उतारा। वहां के चार बार के सांसद रवींद्र पाण्डेय का टिकट काटकर आजसू उम्मीदवार चंद्र प्रकाश चौधरी को टिकट दिया गया। लेकिन क्या हुआ कि छह माह के भीतर ही इन दोनो दलों में गठबंधन नहीं हो पाया। निवर्तमान मुख्यमंत्री रघुवर दास भी हार के कारणों में विपक्ष का एकजुट होना तथा भाजपा का आजसू से गठबंधन नहीं होना बताने लगे हैें। आम जनमानस यह समझ रहा था कि इस बार चूंकि भाजपा का मुख्यमंत्री गैरआदिवासी चेहरा है और भाजपा उनको ही अगले मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर रही है,इसलिये आजसू जैसी पार्टी की सहयोग जरुरी है। यह बात भाजपा की समझ में क्यों नहीं आई? जो गांठ महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के गठबंधन में चुनाव के बाद दिखी, कुछ वैसी ही गांठ झारखंड में भाजपा और आजसू के बीच चुनाव के पहले ही पड़ गयी। कोई ऐसा नेता नहीं दिखा जो इस गांठ को ठीला कर पाये। आजसू प्रमुख सुदेश महतो अचानक सुर्खियों में आ गये थे। वे लगातार प्रेस कांफ्रेस कर भाजपा को अपना स्पष्ट संदेश दिये चल रहे थे।लेकिन भाजपा उनको मना नहीं सकी। यह माना गया कि पाचं साल के शासन के दौरान भाजपा ने कभी आजसू को तवज्जो नहीं दी थी। कहीं सुदेश महतो ने इसका बदला तो नहीं साधा?अब जबकि चुनावी परिणाम के बाद भाजपा में मंथन जारी है, निराशा भी साफ दिखती है, वहीं यूपीए उत्साह में है। जिस तरह से झारखंड में चुनाव मे ंफतह मिली है,उससे महागठबंधन का उत्साहित होना लाजिमी है। भाजपा को यह तय करना है कि वह हार के लिये किसे जिम्मेदार मानती है। क्या गड़बड़ी हुई कि पांच महीने मेंही जनता ने उसे कहां से कहां पहुंचा दिया।
सभी इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि पार्टी ने महाराष्ट्र और हरियाणा के परिणामों से कोई सबक कैसे नहीं लिया? इतनी व्यवस्थित पार्टी होने का दंभ भरने वाली पार्टी से एक नहीं कई ऐसी चूक होती चली गयी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में कार्यकर्ताओं की ऐसा उपेक्षा इसके पहले कभी नहीं हुई थी। टिकट बंटवारे में जिस तरह की मनमानी की गयी वह कार्यकर्ताओं को कचोटने वाला था। ऐसे ऐसे उम्मीदवारों को पार्टी में शामिल कराकर टिकट दिये गये जो पार्टी की विचारधारा के प्रतिकूल स्वभाव वाले थे। भानु प्रताप शाही जैसे उम्मीदवार भले जीत गये लेकिन उनकी जीत पार्टी को काफी महंगी पड़ी। भानू प्रताप शाही को टिकट मिलना और प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा करना पूरी चुनावी प्रक्रिया में सुर्खियां बनी रही। उसी तरह सरयू राय का टिकट काटा जाना भी लोग उसी से जोड़कर देखते रहे। दागियों को गले लगाना और पार्टी के व्हीसिल ब्लोओर से दूरी यह ऐसा मुद्दा बना कि मुख्यमंत्री रघुवर दास को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। जमशेदपुर पूर्वी विधान सभा ने पिछले कई दशकों से भाजपा को हरचुनाव में बढत ही दिलाई है। यहां तक कि जमशेदपुर संसदीय चुनाव में भी भले कई बार भाजपा को हार का सामना करना पड़ा लेकिन जमशेदपुर पूर्वी विधान सभा सीट पर हमेशा भाजपा बढत में रही। इस बार सारे के सारेगणित फेल हो गये। ऐसा लगा मानों किसी दमदार प्रत्याशी की तलाश इस विधान सभा क्षेत्र के लोगों को थी और सरयू राय का भले भाजपा ने तिरस्कार कर दिया लेकिन मतदाताओं ने गले लगा लिया। देश के इतिहास में यह शायद पहला मौका होगा जब किसी पार्टी का मंत्री अपने ही मुख्यमंत्री के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ा और उसे जीत मिली हो। यही कारण है कि यह शुरु से ही हाट सीट बन गयी थी। भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने कैसे इस सीट को हल्के से लिया यह भी बड़ा सवाल है। साफ नजर आ रहा था कि मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ लोगों में नाराजगी है। इसका लाभ सरयू राय को मिलता प्रतीत हो रहा था। लेकिन भाजपा यह आंक नहीं सकी। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री के लिये चुनाव प्रचार करने आये। जिन लोगों ने छह महीना पहले नरेंद्र मोदी को गले लगाया था वे इस बार उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे तो यह समझ जाना चाहिये। पार्टी के कार्यकर्ताओं की यह कसक थी कि यहां उनकी बात अब सुनी नहीं जाती। निर्णय थोपे जाने लगे हैं।
ऐसा लगने लगा था कि पूरा चुनाव पार्टी नहीं व्यक्ति लड़ रहा है। भाजपा में आम तौर पर ऐसा देखने को नहीं मिलता है। नरेंद्र मोदी जरुर एक ऐसा चेहरा हैं जिनके नाम पर लोगों की भीड़ पार्टी लाइन से परे उमड़ती है। उनके चेहरा को आगे रखना भाजपा को कहां से कहां ले गया। यह प्रयोग प्रदेश के स्तर के नेताओं को आगे रखकर चलना कितनी महंगा पड़ा अब नजर आ रहा है। इस कारण पार्टी में अंतर्रकलह भी साफ तौर पर दिख रहा था। कई लोगों को झारखंड में ऐसा नहीं है कि रघुवर सरकार में काम नहीं हुए, लेकिन काम के नाम परवोट मांगने के बजाय पूरे चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी बातों का प्रयोग किया जाने लगा जो मतदाताओं को नागवार लगा। हेमंत सोरेन और उनके परिवार पर अनगिनत व्यक्तिगत हमले किये गये। मतदाताओं ने परिणाम के जरिये अपना मत दे दिया कि वे किसके बारे में क्या सोचते है। भाजपा में इसी कारण कई तरह के संशय भी देखने को मिले। माना जा रहा था कि टिकट बटवारे के पहले तक भाजपा का ग्राफ पूरे प्रदेश में काफी ऊंचा था। लेकिन टिकट बंटवारा और आजसू से गठबंझधन नहीं होने के बाद से पार्टी का ग्राफ गिरने लगा और नतीजा सामने हैं।
लेखक चमकता आईना के संपादक हैं