
देवानंद सिंह


बिहार की राजनीति हमेशा से गठबंधन धर्म और जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। हाल के दिनों तक, जो तस्वीर उभर रही थी, उसमें एनडीए और महागठबंधन दोनों ही खेमों में एकता और तालमेल की झलक दिख रही थी, लेकिन जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, यह तालमेल अब सीट शेयरिंग की रस्साकशी में बदलता नज़र आ रहा है। बड़े दल अपने-अपने राजनीतिक हित साधने में लगे हैं तो छोटे दल सम्मानजनक सीटों की मांग पर अड़े हैं।

एनडीए में भाजपा और जेडीयू के बीच सीट बंटवारे की प्राथमिक सहमति लगभग तय है कि दोनों दल 100-100 सीटों पर मैदान में उतरेंगे, लेकिन असली पेंच उन 43 सीटों का है जो शेष बचती हैं, और जिन पर चिराग पासवान की एलजेपी (रामविलास), जीतनराम मांझी की हम (सेक्युलर) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा पार्टी दावा कर रही हैं। यहां समस्या सिर्फ संख्या की नहीं है, बल्कि दलित और महादलित वोट बैंक की दावेदारी की भी है। चिराग पासवान खुद को मोदी का हनुमान बताते हैं और पिछले लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के 100 फ़ीसदी स्ट्राइक रेट का हवाला देकर ज़्यादा सीटें मांग रहे हैं। दूसरी ओर मांझी लगातार कह रहे हैं कि उनकी पार्टी को कम से कम 20 सीटें मिलनी चाहिए, ताकि वह मान्यता प्राप्त पार्टी बन सके। अगर, उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो उन्होंने संकेत दिया है कि उनकी पार्टी 100 सीटों पर उम्मीदवार उतार सकती है।
राजनीतिक जानकारों के अनुसार, 2023 के जातीय सर्वे ने दलित समाज के वोट बैंक की अहमियत और बढ़ा दी है। बिहार में दलितों की आबादी 19.65 फ़ीसदी है, जिसमें पासवान 5.31 फ़ीसदी, रविदास 5.25 फ़ीसदी और मुसहर 3.08 फ़ीसदी हैं। इन आंकड़ों का मतलब साफ है कि चिराग और मांझी जैसे चेहरे अगर साथ हों तो एनडीए का दलित आधार मज़बूत होता है, लेकिन अगर इनमें से कोई एक भी नाराज़ होकर अलग राह पकड़ ले तो एनडीए के समीकरण बिगड़ सकते हैं। एनडीए की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि उसके पास दलित राजनीति के दो प्रमुख चेहरे मौजूद हैं और दोनों ही अपने-अपने वजन के हिसाब से ज़्यादा सीटों की मांग कर रहे हैं। चिराग पासवान 2020 में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़े थे और 135 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। नतीजा यह हुआ कि वे सिर्फ एक सीट जीत पाए, लेकिन जेडीयू को खासा नुकसान उठाना पड़ा। उस चुनाव में कई सीटों पर चिराग की मौजूदगी ने जेडीयू के उम्मीदवारों की हार सुनिश्चित कर दी। यही वजह है कि इस बार जेडीयू चिराग की दावेदारी को लेकर सावधान है।
दूसरी ओर मांझी का तर्क है कि उनकी पार्टी का वोट बैंक हर जगह मौजूद है, और इसलिए उन्हें सम्मानजनक हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। पार्टी का पिछला प्रदर्शन भले ही सीमित रहा हो, लेकिन मांझी मानते हैं कि उनकी भूमिका किसी भी गठबंधन को जीत दिलाने में निर्णायक हो सकती है। अगर, एनडीए चिराग और मांझी, दोनों को संतुष्ट करने में असफल रहता है, तो यह दलित वोटों के बिखराव का कारण बनेगा। जानकारों के अनुसार, यही स्थिति महागठबंधन के लिए फ़ायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि कांग्रेस और राजद दलित वोटों में अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश पहले से कर रहे हैं। महागठबंधन की स्थिति भी बहुत अलग नहीं है। यहां आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन कांग्रेस, वाम दल और वीआईपी जैसी पार्टियों की सीटों पर दावेदारी गठबंधन की राह आसान नहीं बनने दे रही।
कांग्रेस पिछले चुनाव की तरह इस बार भी 70 सीटों पर चुनाव लड़ने की मांग कर रही है, हालांकि पार्टी का पिछला स्ट्राइक रेट कमजोर रहा है, लेकिन कांग्रेस का तर्क है कि उसे पूरे राज्य में लगभग 10 फ़ीसदी वोट मिले थे और उसके बिना महागठबंधन की सामाजिक गठजोड़ की रणनीति अधूरी रह जाएगी। वहीं, सीपीआई (माले) इस बार 40 सीटों की दावेदार है। पिछली बार पार्टी ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 12 पर जीत दर्ज की थी। माले की ताकत मगध, शाहाबाद और सीमांचल के इलाकों में है और पार्टी मानती है कि उसकी मौजूदगी से महागठबंधन को दलित और अति पिछड़े वर्गों का वोट सुरक्षित मिलेगा। पार्टी का साफ कहना है कि अगर, एनडीए अपने दलित नेताओं को 40 सीटें दे रहा है तो महागठबंधन को भी हमें उतनी ही हिस्सेदारी देनी चाहिए।
इसी बीच वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने भी 60 सीटों की मांग कर दी है। सहनी का दावा है कि उनके पास 11 फ़ीसदी वोट बैंक है और इसलिए उनकी पार्टी को सम्मानजनक सीटें मिलनी चाहिए। उन्होंने संकेत दिया है कि उन्होंने अपने लिए पहले ही छह सीटें चुन रखी हैं, जिनमें से किसी एक पर वे चुनाव लड़ेंगे। सहनी का बीजेपी से मोहभंग हो चुका है और वे कहते हैं कि बीजेपी की विचारधारा आरक्षण विरोधी है, हालांकि उन्होंने यह दरवाज़ा पूरी तरह बंद नहीं किया कि किसी विशेष परिस्थिति में वे एनडीए में वापस नहीं जाएंगे। बिहार की कई सीटें ऐसी हैं, जहां एनडीए और महागठबंधन दोनों ही खेमों के भीतर तीखी खींचतान है। मसलन, बेगूसराय की मटिहानी सीट पर एलजेपी(आर) और जेडीयू के बीच टकराव है। एलजेपी(आर) इसे अपनी जीती हुई सीट मानती है, लेकिन राजकुमार सिंह, जो अब जेडीयू में हैं, अपनी दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं। खगड़िया की अलौली सीट भी इसी तरह विवादों में है। पिछली बार यह सीट राजद ने जीती थी, लेकिन अब एनडीए और महागठबंधन दोनों ही खेमों में इसके लिए खींचतान है।
सिमरी बख्तियारपुर सीट भी बेहद दिलचस्प है, जहां 2020 में आरजेडी के युसूफ सलाउद्दीन ने मुकेश सहनी को बहुत कम अंतर से हराया था। सहनी इस सीट पर दोबारा दावेदारी कर सकते हैं और संकेत दे चुके हैं कि ज़रूरत पड़ी तो उनकी पार्टी के सिंबल पर आरजेडी का उम्मीदवार भी लड़ सकता है। बड़े दलों यानी बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि छोटे दलों की महत्वाकांक्षाओं को संतुलित किया जाए। अगर इन दलों को पर्याप्त सीटें नहीं मिलीं तो ये गठबंधन से अलग होकर स्वतंत्र रूप से मैदान में उतर सकते हैं, जिससे वोटों का बंटवारा होगा और सीधा फायदा प्रतिद्वंद्वी गठबंधन को मिलेगा।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, इस बार का चुनाव सिर्फ विकास या शासन के मुद्दों पर नहीं लड़ा जाएगा, बल्कि जातीय समीकरण, छोटे दलों का योगदान और बड़े दलों का प्रबंधन ही तय करेगा कि किस गठबंधन को सफलता मिलेगी। एनडीए खेमे में एक और कारक है, जो सीट बंटवारे को और जटिल बना रहा है, वह है नीतीश कुमार की सेहत और उत्तराधिकार को लेकर चल रही अटकलें। अगर, नीतीश किसी वजह से सक्रिय राजनीति से पीछे हटते हैं, तो जेडीयू के भीतर नेतृत्व का संकट पैदा होगा। इस स्थिति में भाजपा और छोटे सहयोगी दल अपनी-अपनी स्थिति और मजबूत करने की कोशिश करेंगे।
महागठबंधन में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने अपनी बिहार अधिकार यात्रा शुरू कर दी है। दिलचस्प बात यह है कि इस यात्रा में उनके साथ कोई सहयोगी पार्टी नहीं है। कांग्रेस और वाम दल इस पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर नहीं कर रहे, लेकिन भीतर-ही-भीतर यह सवाल ज़रूर उठ रहा है कि क्या तेजस्वी सहयोगियों को बराबरी का महत्व देने को तैयार हैं। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि वे 70 सीटों की मांग कर रहे हैं, लेकिन तैयारी सभी 243 सीटों पर है। यह बयान साफ संकेत देता है कि कांग्रेस अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रही है और गठबंधन के भीतर दबाव की राजनीति खेल रही है।
कुल मिलाकर, बिहार का आगामी विधानसभा चुनाव सीट बंटवारे की राजनीति से ही तय होगा। एनडीए और महागठबंधन, दोनों खेमों के सामने एक जैसी चुनौती है। छोटे दलों की महत्वाकांक्षाओं को साधना और जातीय समीकरणों को सही ढंग से संतुलित करना। अगर, एनडीए चिराग पासवान और जीतनराम मांझी को संतुष्ट नहीं कर पाया तो दलित वोटों का बिखराव होगा। वहीं, महागठबंधन अगर कांग्रेस, वाम दल और वीआईपी को सम्मानजनक हिस्सेदारी नहीं दे पाया तो उसका समीकरण बिगड़ेगा। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार, इस बार के चुनाव में सीट बंटवारे की राजनीति ही सबसे बड़ा मुद्दा है। बिहार में सत्ता का रास्ता जातीय समीकरणों से होकर जाता है और इस बार ये समीकरण पहले से भी ज़्यादा जटिल हैं। यही वजह है कि दोनों ही खेमे इस महीने के अंत तक उम्मीदवारों को अनौपचारिक संकेत देने की योजना बना रहे हैं, ताकि भगदड़ और नाराज़गी से बचा जा सके, लेकिन एक बात साफ है कि बिहार की राजनीति का अगला अध्याय छोटे दलों की महत्वाकांक्षाओं और बड़े दलों की मजबूरी के बीच लिखा जाएगा।

