‘राष्ट्र संवाद’ की स्थापना के 19 वर्ष पूर्ण हो गए हैं। दशकों से जमे ‘प्रिंट मीडिया’ के दिग्गजों के लिए यह बहुत मामूली और सामान्य-सी बात हो सकती है, लेकिन हमारे लिए यह बेहद गर्व का अवसर होने के साथ ही आत्मचिंतन और मीडिया की दशा-दिशा की पड़ताल करने का भी अवसर है। हमारे लिए ‘राष्ट्र संवाद’ का 19 साल का सफर पड़ाव-दर-पड़ाव आगे बढ़ते रहने की जद्दोजहद भरा कठिन सफर रहा है। सच में, ये 19 साल दुश्मन हवाओं के तेज थपेड़ों के बीच एक मशाल जलाए रखने का जुझारू संघर्ष रहा है।
पत्रकारिता वास्तव में मशाल जलाए रखने जैसा मुश्किल काम है। मशाल का काम अंधेरे में रास्ता दिखाना होता है। यर्थाथ के आलोक में सही रास्ता दिखना ही मीडिया का मूल उद्देश्य भी है। परन्तु कॉरपोरेट कल्चर एवं बाजार के अति प्रभावशाली हो जाने के कारण कलम भी उससे प्रभावित हो गई है। सही ढंग से कहा जाए तो कलम बाजारू हो गई है। सही को सही लिखने का साहस अब बड़े-बड़े कलमवीरों में नहीं बचा है। बड़े-बड़े संपादक सत्ता प्रतिष्ठानों की कृपा प्राप्त करने के लिए कलम से तरह-तरह की तिकड़में भिड़ाते रहते हैं। उनकी लेखनी हमेशा किसी-न-किसी का स्तुति गान ही करती रहती है। बदले में किसी को मोटे वेतन व घोड़ा-गाड़ी के साथ कहीं का सलाहकार बना दिया जाता है तो कोई-न-कोई राज्यसभा की सदस्यता हासिल कर लेता है। इन स्वनामधन्य सेलेब्रिटी पत्रकारों के प्रति विश्वास डगमगाने लगता है, लेकिन फिर इन्हीं लोगों के घटिया आचरण के कारण यह विचार और दृढ़ होता है कि पत्रकारिता को उसके आदर्शों से भटकने नहीं देना है। ‘राष्ट्र संवाद’ इसी दृढ़ संकल्प का परिणाम है। सत्ता के मठााधीशों के दरबार में चरणवंदना करने वालों में दशकों से स्थापित तथा कथित राष्ट्रीय मीडिया से लेकर शहर, जिला मुख्यालयों से निकलने वाले स्थानीय अखबार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक सभी शामिल हैं। अधिकांश बड़े-बड़े पत्रकारों के साथ-साथ मीडिया संस्थान किसी-न-किसी पार्टी के प्रवक्ता के तौर पर काम करने में जुटे हुए हैं। किसी को सामाजिक समस्याओं व मुद्दों को लेकर किसी भी प्रकार का सरोकार नहीं है। कभी आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पत्रकारिता जब नतमस्तक के मोड पर आ गई है तो इन परिस्थितियों में ‘राष्ट्र संवाद’ ने उस पुरानी अलख को जगाए रखने की पूरी कोशिश की है। बड़े-बड़े अखबारों का हाल न केवल खबरों से समझौता करने को लेकर बेहद लचीला हो गया है, वहीं पत्रकारों के शोषण के मामले में भी स्थितियां आज जगजाहिर हैं। मजठिया आयोग द्वारा तय वेतनमान के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी क्या स्थितियां बनी हुई हैं, इसे सभी जानते हैं। कोई भी ऐसा बड़ा संस्थान नहीं है, जहां मजीठिया आयोग द्वारा तय वेतनमान लागू किया गया है। बकायदा, तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर या तो कर्मचारियों को निकाला गया है या फिर उन्हें किसी बाहरी एजेंसी के माध्यम से नियुक्त दिखाया गया है। हैरानी की बात यह है कि पत्रकारों को अनुशांसित वेतन न देने के तरह-तरह के हथकंडे अपनाने वाले ये अखबार ही अपने पन्नों पर खुद को सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला नंबर-वन अखबार भी घोषित करते हैं।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का हाल तो और भी बुरा है। कुछ समाचार चैनलों पर तो दिन भर कोई-न-कोई ज्योतिषाचार्य बैठा हुआ शनि से मुक्ति के उपाय बताता नजर आता है। उससे मुक्ति मिलती है तो कॉमेडी शो के फूहड़ फिल्मी मजाक का तरह-तरह के भावों के साथ पुन: प्रसारण चलता रहता है। और जब समाचारों की बारी आती है तो फटाफट 200 खबरें आने लगती हैं, जिसमें छोटी-मोटी चोरी चमारी की मामूली खबरों को भी बड़े ही सनसनीखेज ढंग से राष्ट्रीय समाचार के रूप में पेश किया जाता है। फिर चैनल अपने एजेंडे और दलीय निष्ठा के अनुसार भाषणनुमा खबरें प्रस्तुत करते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाला मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार को तिलांजलि दे चुका है और लोकतंत्र के अन्य स्तंभों पर अकुंश लगाने की अपनी भूमिका को स्वत: ही सीमित करता जा रहा है। ‘राष्ट्र संवाद’ अपने सीमित साधन संसाधन के बावजूद स्वतंत्र, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। इस प्रयास में हमें अपने सुधि पाठकों, विज्ञापनदाताओं व शुभचिंतकों का भरपूर सहयोग मिला है। हम अपने पाठकों, विज्ञापनदाताओं व शुभचिंतकों को विश्वास दिलाते हैं कि ‘राष्ट्र संवाद’ भविष्य में भी अपनी यह भूमिका ईमानदारी के साथ निभाता रहेगा।