कुलदीप सिंह सेंगर की सजा निलंबन से एक बार फिर कठघरे में हमारी न्याय व्यवस्था
देवानंद सिंह
भारतीय न्याय व्यवस्था अक्सर यह दावा करती है कि वह देरी से सही, पर न्याय देने में विश्वास रखती है, लेकिन उन्नाव बलात्कार मामला उस दावे की सबसे कठोर परीक्षा है। यह केवल एक अपराध नहीं था, बल्कि सत्ता, पुलिस, राजनीति और न्याय, ये चारों संस्थाओं की सामूहिक नैतिक विफलता का आईना था। अब, लगभग नौ वर्षों बाद, जब इस मामले में आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दिल्ली हाई कोर्ट से सज़ा निलंबन मिल जाता है, तो सवाल फिर वही खड़ा होता है कि क्या न्याय केवल फ़ैसला सुनाने का नाम है, या पीड़ित की सुरक्षा और भरोसे का भी?
दिल्ली हाई कोर्ट की जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन की बेंच ने सेंगर की उम्रक़ैद की सज़ा को निलंबित करते हुए उन्हें ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया। इसमें, 15 लाख रुपये का निजी मुचलका, तीन ज़मानतदार, दिल्ली में निवास, हर सोमवार पुलिस में हाज़िरी और पीड़िता से पांच किलोमीटर की दूरी जैसी शर्तें लगाईं हैं। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी भी शर्त के उल्लंघन पर ज़मानत रद्द की जाएगी। क़ानूनी दृष्टि से यह आदेश अपील लंबित रहने के दौरान सज़ा निलंबन की स्थापित प्रक्रिया के अंतर्गत आता है, लेकिन सवाल यह नहीं है कि अदालत को यह अधिकार है या नहीं। असली सवाल यह है कि क्या ऐसे मामलों में न्याय का पैमाना केवल क़ानूनी तकनीकीताओं तक सीमित रह सकता है?
सज़ा निलंबन के कुछ ही घंटों बाद, उन्नाव बलात्कार मामले की सर्वाइवर अपनी मां और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ इंडिया गेट पर बैठी नज़र आईं, यह दृश्य अपने आप में बहुत कुछ कहता है। एक तरफ़ अदालत का आदेश, दूसरी तरफ़ पीड़िता का डर।
सर्वाइवर का आरोप है कि 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को देखते हुए सेंगर को ज़मानत दी गई ताकि राजनीतिक रूप से उनकी पत्नी को आगे किया जा सके। भले ही यह आरोप अदालत के आदेश का आधिकारिक आधार न हो, लेकिन यह आशंका यूं ही नहीं जन्म लेती। यह उस सामूहिक स्मृति से आती है, जिसमें इस पूरे मामले में सत्ता की छाया लगातार दिखाई देती रही है।
सर्वाइवर का सबसे अहम सवाल यह है कि अगर ऐसे अपराध का दोषी व्यक्ति बाहर रहेगा, तो मेरी सुरक्षा कौन सुनिश्चित करेगा? यह सवाल केवल व्यक्तिगत नहीं है, यह पूरे न्याय तंत्र से पूछा गया प्रश्न है। दिसंबर 2019 में ट्रायल कोर्ट ने कुलदीप सिंह सेंगर को अधिकतम सज़ा देते हुए साफ़ कहा था कि इस मामले में कोई भी कम करने वाली परिस्थिति नहीं है। अदालत ने यह भी रेखांकित किया था कि एक जनप्रतिनिधि होने के नाते सेंगर के पास जनता का विश्वास था, जिसे उन्होंने न केवल तोड़ा, बल्कि कुचला भी है। ट्रायल कोर्ट का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से नैतिक और संवैधानिक था। लोकतंत्र में सत्ता में बैठे व्यक्ति द्वारा किया गया अपराध साधारण अपराध नहीं होता। ऐसे में, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब ट्रायल कोर्ट ने कोई रियायत न देने का आधार स्पष्ट कर दिया था, तो सज़ा निलंबन के समय उस नैतिक तर्क का क्या हुआ?
उन्नाव मामला इसलिए असाधारण है, क्योंकि इसमें अपराध से अधिक भयावह था अपराध के बाद का राज्य व्यवहार। पीड़िता को रिपोर्ट दर्ज कराने में महीनों लगे।
विधायक का नाम चार्जशीट से हटाया गया। पीड़िता के पिता पर हमला हुआ, फिर उन्हें जेल भेजा गया।
पुलिस हिरासत में उनकी रहस्यमय मौत हुई। पीड़िता ने मुख्यमंत्री आवास के बाहर आत्महत्या का प्रयास किया,
गवाहों की मौतें हुईं। और अंततः वह कार दुर्घटना, जिसमें पीड़िता की दो मौसियों की जान चली गई। यह सब किसी फ़िल्म की पटकथा नहीं, बल्कि भारत के सबसे बड़े राज्य की वास्तविकता थी। यह मानना कठिन है कि इतने सारे संयोग एक ही मामले में स्वतः घटित हो सकते हैं। जब पीड़िता के पिता की मौत होती है, एक गवाह मारा जाता है, और फिर पीड़िता की कार को बिना नंबर प्लेट वाला ट्रक टक्कर मार देता है, तो शक केवल अपराधी पर नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था पर जाता है। यही कारण है कि जब 2021 में दुर्घटना साज़िश मामले में सेंगर को आरोपमुक्त किया गया, तब भी सामाजिक स्तर पर यह मामला कभी सामान्य नहीं हो सका।
भारतीय दंड व्यवस्था अब भी मुख्यतः आरोपी-केंद्रित है। अपील लंबित है या नहीं, सज़ा निलंबन का आधार क्या है, इन सब पर विस्तार से बहस होती है। लेकिन पीड़िता की मानसिक स्थिति, उसका डर, उसकी सामाजिक असुरक्षा, ये सब अक्सर फ़ाइल के हाशिये पर चले जाते हैं। यह सवाल अब गंभीर हो चुका है कि क्या बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में सज़ा निलंबन के लिए अलग मानक नहीं होने चाहिए? क्या ऐसे मामलों में पीड़िता की सहमति या आपत्ति को औपचारिक रूप से सुना जाना चाहिए? क्या न्याय केवल अभियुक्त के अधिकारों तक सीमित रह सकता है? सर्वाइवर ने यह स्पष्ट किया है कि उन्हें न्यायपालिका पर भरोसा है और वे सुप्रीम कोर्ट का रुख़ करेंगी। यह भरोसा महत्वपूर्ण है, लेकिन उसके साथ जुड़ा डर भी उतना ही वास्तविक है।
यह वही सर्वाइवर हैं, जिन्होंने नौ साल पहले व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े होने की हिम्मत की थी, जब उनके पास न सत्ता थी, न संसाधन, न सुरक्षा। आज भी वह लड़ाई जारी है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि अब यह लड़ाई सज़ा के बाद के न्याय की है। जब एक प्रभावशाली दोषी को सज़ा निलंबन मिलता है, तो उसका असर केवल एक मामले तक सीमित नहीं रहता। यह संदेश दूर तक जाता है। पीड़ितों को कि, उनकी सुरक्षा अस्थायी है, अपराधियों को कि, सत्ता और धैर्य अंततः राहत दिला सकता है। समाज को कि, न्याय अंतिम नहीं, सशर्त है, यही सबसे खतरनाक पहलू है।
उन्नाव बलात्कार मामला भारतीय न्याय प्रणाली के लिए एक स्थायी परीक्षा है। यह केवल यह तय नहीं करता कि कुलदीप सिंह सेंगर दोषी हैं या नहीं, यह तो ट्रायल कोर्ट पहले ही तय कर चुका है। असली प्रश्न यह है कि क्या भारत में सत्ता के अपराधों के लिए न्याय का पैमाना अलग होगा या नहीं। दिल्ली हाई कोर्ट का आदेश क़ानूनन सही हो सकता है, लेकिन नैतिक, सामाजिक और पीड़ित-केंद्रित दृष्टि से यह असहज सवाल छोड़ जाता है। अब निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर हैं, लेकिन उससे भी ज़्यादा, उस सामूहिक चेतना पर, जो तय करेगी कि उन्नाव केवल एक केस था या एक चेतावनी। न्याय तभी पूर्ण होगा, जब फ़ैसले के बाद भी पीड़िता सुरक्षित महसूस करे। अन्यथा, हर सज़ा निलंबन न्याय की किताब में एक नया सवाल जोड़ता रहेगा कि क्या अपराध खत्म हुआ, या सिर्फ़ फ़ैसला?


