Close Menu
Rashtra SamvadRashtra Samvad
    Facebook X (Twitter) Instagram
    Rashtra SamvadRashtra Samvad
    • होम
    • राष्ट्रीय
    • अन्तर्राष्ट्रीय
    • राज्यों से
      • झारखंड
      • बिहार
      • उत्तर प्रदेश
      • ओड़िशा
    • संपादकीय
      • मेहमान का पन्ना
      • साहित्य
      • खबरीलाल
    • खेल
    • वीडियो
    • ईपेपर
    Topics:
    • रांची
    • जमशेदपुर
    • चाईबासा
    • सरायकेला-खरसावां
    • धनबाद
    • हजारीबाग
    • जामताड़ा
    Rashtra SamvadRashtra Samvad
    • रांची
    • जमशेदपुर
    • चाईबासा
    • सरायकेला-खरसावां
    • धनबाद
    • हजारीबाग
    • जामताड़ा
    Home » अरावली की चिन्ताः नारे से आगे-अस्तित्व की लड़ाई
    Breaking News Headlines मेहमान का पन्ना राष्ट्रीय

    अरावली की चिन्ताः नारे से आगे-अस्तित्व की लड़ाई

    Sponsored By: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025No Comments7 Mins Read
    Share Facebook Twitter Telegram WhatsApp Copy Link
    Share
    Facebook Twitter Telegram WhatsApp Copy Link

    ललित गर्ग

    अरावली पर्वत शृंखला की नई परिभाषा को लेकर उठा विवाद अब जन-आन्दोलन का रूप ले रहा है। इसी के अन्तर्गत अरावली बचाओ की चिन्ता-यह केवल भावनात्मक आह्वान नहीं, बल्कि भारत के पर्यावरणीय भविष्य की जीवनरेखा है। गुजरात से लेकर दिल्ली तक फैली अरावली पर्वतमाला पृथ्वी की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। यह पर्वत केवल पत्थरों का ढेर नहीं, बल्कि जल, जंगल, जैव-विविधता, जलवायु संतुलन और मानव जीवन के लिए एक प्राकृतिक कवच है। आज जब खनन, शहरीकरण और विकास की आड़ में इस पर्वतमाला को टुकड़ों में बांटने की कोशिशें हो रही हैं, तब यह प्रश्न केवल पर्यावरण का नहीं, बल्कि मनुष्य जाति के अस्तित्व का बन गया है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि अरावली को लेकर सरकारों की चिन्ता व्यर्थ न जाये, कोई सकारात्मक रंग लाए। पहाड़ी इलाकों के खनन, उपेक्षा एवं लोभवृत्ति पर विचार करना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकारों की उपेक्षा की वजह से अरावली के बड़े हिस्से का खनन ही नहीं हुआ, आमजन एवं प्रकृति-पर्यावरण रक्षा का यह कवच ध्वस्त भी हुआ है।

     

    अरावली की आयु भूगर्भीय दृष्टि से करोड़ों वर्षों में आंकी जाती है। यह हिमालय से भी पुरानी है। यही कारण है कि अरावली का स्वरूप अपेक्षाकृत निचला और क्षरित दिखाई देता है, किंतु इसका महत्व कहीं अधिक गहरा है। राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली के बड़े हिस्सों में वर्षा जल का संचयन, भूजल रिचार्ज और मरुस्थलीकरण पर नियंत्रण अरावली के कारण ही संभव है। थार मरुस्थल को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने में अरावली की भूमिका किसी अदृश्य दीवार की तरह है। आज के समय में पर्यावरणीय संकट बहुआयामी हो चुका है-जल संकट, वायु प्रदूषण, जैव-विविधता का क्षय, जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित शहरी विस्तार। इन सभी चुनौतियों का एक साझा समाधान अरावली जैसी प्राकृतिक संरचनाओं का संरक्षण है। दुर्भाग्यवश, खनन और निर्माण गतिविधियों ने इस पर्वतमाला को गहरे घाव दिए हैं। पत्थर, संगमरमर और अन्य खनिजों के लिए की जा रही अंधाधुंध खुदाई ने न केवल पहाड़ों को खोखला किया है, बल्कि आसपास के गांवों, नदियों और जंगलों को भी संकट में डाल दिया है। लगातार संकट से घिर रही अरावली को बचाने के लिये एक याचिका 1985 से न्यायालय में विचाराधीन है। हालांकि इस याचिका का ही नतीजा है कि अरावली का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा संरक्षित श्रेणी में आता है। वैसे अब समय आ गया है कि अरावली को पूरी तरह से खनन-मुक्त रखने का फैसला किया जाये। अब भी खनन जारी रहा तो उससे होने वाले लाभ से कई गुणा ज्यादा कीमत हमें पर्यावरण के मोर्चे पर चुकानी पडे़गी।

     

    सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर अरावली के संरक्षण को लेकर गंभीर टिप्पणियां की हैं। न्यायालय का दृष्टिकोण स्पष्ट रहा है कि पर्यावरणीय संतुलन को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों पर रोक लगनी चाहिए और विकास के नाम पर प्रकृति के विनाश को वैधता नहीं दी जा सकती। इसके बावजूद, विभिन्न स्तरों पर नियमों की व्याख्या और पुनर्व्याख्या के जरिए खनन को अनुमति देने के प्रयास होते रहे हैं। विशेष रूप से “100 मीटर ऊंचाई” जैसे मानदंडों के आधार पर पर्वतों को परिभाषित करना और उससे नीचे की संरचनाओं को खनन योग्य मानना एक खतरनाक प्रवृत्ति है। यह तर्क न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से कमजोर है, बल्कि पर्यावरणीय समझ के भी विपरीत है। खनन की वजह से अरावली की छलनी हो चुकी है।

     

    पर्वत केवल ऊंचाई से नहीं पहचाने जाते, बल्कि उनके भूगर्भीय ढांचे, जलधारण क्षमता और पारिस्थितिकी तंत्र से उनकी पहचान होती है। 100 मीटर से कम ऊंचाई वाले पहाड़ भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने ऊंचे पर्वत। यदि इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए, तो धीरे-धीरे पूरी अरावली को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर समाप्त किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण अल्पकालिक आर्थिक लाभ को दीर्घकालिक पर्यावरणीय सुरक्षा से ऊपर रखता है। राजस्थान सरकार की कुछ पहलें संरक्षण की दिशा में सराहनीय कही जा सकती हैं, जैसे वन क्षेत्रों की अधिसूचना, अवैध खनन पर कार्रवाई और पर्यावरणीय स्वीकृतियों की सख्ती। किंतु इन प्रयासों के समानांतर ऐसी नीतिगत ढील भी दिखाई देती है, जो खनन और रियल एस्टेट गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं। केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर यह तर्क दिया जाता है कि नियंत्रित खनन से विकास संभव है। परंतु अनुभव बताता है कि “नियंत्रित” शब्द व्यवहार में अक्सर अर्थहीन हो जाता है। भले ही वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव स्पष्टीकरण दे रहे हैं कि सिर्फ 277 वर्ग किमी में ही खनन की अनुमति है। उन्होंने आश्वस्त किया है कि नई परिभाषा से खनन बढ़ेगा नहीं, बल्कि अवैध खनन रूकेगा।

     

    विकास और पर्यावरण को आमने-सामने खड़ा करना एक पुरानी भूल है। सच्चा विकास वही है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर हो। अरावली का संरक्षण विकास विरोधी कदम नहीं, बल्कि दीर्घकालिक विकास की शर्त है। जिन क्षेत्रों में अरावली को नुकसान पहुंचा है, वहां जल स्तर गिरा है, तापमान बढ़ा है और जैव-विविधता घट गई है। दिल्ली-एनसीआर की जहरीली हवा और जल संकट में अरावली के क्षरण की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अरावली में वन्यजीव लगभग खत्म होने को है। खनन के विकल्प पर विचार करना होगा। खनन मुख्यत पत्थर के लिये होता है और पत्थरों से सुन्दर घर बनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है, इस परम्परा पर नये सिरे से चिन्तन करने की अपेक्षा है। घर या इमारत बनाने के दूसरे संसाधन पर सोचना होगा। जिनसे मकान तो बहुत बन जायेंगे, पर कटने वाले पहाड़ फिर कभी खड़े नहीं होंगे। पर्यावरण एवं प्रकृति रक्षक ये पहाड़ कहां से लायेंगे? सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली के साथ-ही-साथ उत्तराखण्ड में भी जंगलों में हो रहे अतिक्रमण के खिलाफ चिन्ता का इजहार किया है। लेकिन अदालतों के साथ सरकारों को भी पर्यावरण, प्रकृति, पहाड़, पहाड़ी जंगलों एवं वन्यजीवों पर कड़ा रुख अपनाना होगा और इन्हें सर्वोच्च प्राथमिकता में रखना होगा।
    तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो विश्व के अनेक देशों ने अपनी प्राचीन पर्वतमालाओं और प्राकृतिक संरचनाओं को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित किया है। यूरोप में आल्प्स, अमेरिका में रॉकी पर्वत और चीन में पीली नदी के बेसिन क्षेत्र इसके उदाहरण हैं। इन क्षेत्रों में खनन और निर्माण पर कठोर नियंत्रण है, क्योंकि वहां यह समझ विकसित हो चुकी है कि प्रकृति की कीमत पर आर्थिक समृद्धि टिकाऊ नहीं होती। भारत में भी इस सोच को अपनाने की आवश्यकता है। अरावली केवल जल का स्रोत नहीं है; यह जैव-विविधता का आश्रय है। यहां पाए जाने वाले वनस्पति और जीव-जंतु पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जंगलों की कटाई और पहाड़ों की खुदाई से वन्यजीवों का आवास नष्ट होता है, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ता है। यह समस्या केवल पर्यावरणीय नहीं, सामाजिक भी है।

     

    आज देशभर में अरावली के संरक्षण को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। ये आंदोलन इस बात का संकेत हैं कि समाज अब खामोश नहीं रहना चाहता। नागरिकों, पर्यावरणविदों, न्यायपालिका और नीति-निर्माताओं के बीच संवाद आवश्यक है। यह समय भावनात्मक नारों से आगे बढ़कर ठोस नीतिगत निर्णय लेने का है-खनन पर पूर्ण प्रतिबंध, पुनर्वनीकरण, जल संरक्षण परियोजनाएं और स्थानीय समुदायों की भागीदारी। बीज अगर आज प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के प्यार का बोए जाएंगे, तो कल स्वच्छ हवा, पर्याप्त जल और सुरक्षित भविष्य का फल मिलेगा। अरावली बचेगी तो भारत खुशहाल रहेगा, यह केवल कविता की पंक्ति नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है। धरती मां की रक्षा करना हमारा अधिकार ही नहीं, कर्तव्य भी है। यदि आज हमने लालच को प्राथमिकता दी, तो आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी। अंततः, अरावली का सवाल केवल एक पर्वतमाला का नहीं, बल्कि उस सोच का है जो विकास को विनाश से अलग देखती है। इतिहास उन्हीं समाजों को याद रखता है, जिन्होंने प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर प्रगति की। आइए, हम भी वही इतिहास लिखें, जहां हर आवाज़ शोर बने और अरावली के साथ जीवन भी भरपूर सुनिश्चित हो।

    Share. Facebook Twitter Telegram WhatsApp Copy Link
    Previous Articleफिलिस्तीन के हमदर्द बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार के समय कहां गायब
    Next Article कुलदीप सिंह सेंगर की सजा निलंबन से एक बार फिर कठघरे में हमारी न्याय व्यवस्था

    Related Posts

    बांग्लादेश में हिंदू नागरिक दीपु चंद्र दास की हत्या की जयघोष फाउंडेशन ने की कड़ी निंदा

    Sponsor: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025

    कुलदीप सिंह सेंगर की सजा निलंबन से एक बार फिर कठघरे में हमारी न्याय व्यवस्था

    Sponsor: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025

    फिलिस्तीन के हमदर्द बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार के समय कहां गायब

    Sponsor: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025

    Comments are closed.

    अभी-अभी

    बांग्लादेश में हिंदू नागरिक दीपु चंद्र दास की हत्या की जयघोष फाउंडेशन ने की कड़ी निंदा

    Sponsor: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025

    कुलदीप सिंह सेंगर की सजा निलंबन से एक बार फिर कठघरे में हमारी न्याय व्यवस्था

    Sponsor: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025

    अरावली की चिन्ताः नारे से आगे-अस्तित्व की लड़ाई

    Sponsor: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025

    फिलिस्तीन के हमदर्द बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार के समय कहां गायब

    Sponsor: सोना देवी यूनिवर्सिटीDecember 25, 2025

    पेसा नियमावली पर निर्णय: लंबे संघर्ष के बाद कैबिनेट की मंजूरी, श्रेय को लेकर सियासत तेज

    परमात्मा की कृपा बनी रहे -मरते दम तक सेवक की भूमिका में रहना चाहता हूँ – काले

    यूसीआईएल में तबादला नीति पर उठे गंभीर सवाल, बाहरी प्रभाव और चयनात्मक कार्रवाई की चर्चाएं तेज

    मुर्गा पाड़ा में गोलियों की तड़तड़ाहट, कुख्यात अपराधी विजय तिर्की की हत्या तीन अज्ञात हमलावरों ने सिर और कंधे में मारी गोली, इलाके में दहशत

    क्रिसमस की धूम: दुल्हन की तरह सजे गिरजाघर, सरकार ने महिलाओं को दी बड़ी सौगात

    अटल बिहारी वाजपेयी जयंती की पूर्व संध्या पर भाजपा जमशेदपुर महानगर ने मनाया दीपोत्सव

    Facebook X (Twitter) Telegram WhatsApp
    © 2025 News Samvad. Designed by Cryptonix Labs .

    Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.