मोहम्मद यूनुस के इस्तीफ़े की अटकलों के बीच बांग्लादेश में लोकतंत्र की नई परीक्षा
देवानंद सिंह
बांग्लादेश एक बार फिर राजनीतिक अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है। अंतरिम सरकार के प्रमुख और नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के संभावित इस्तीफ़े की खबरों ने राजनीतिक गलियारों में हड़कंप मचा दिया है, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने औपचारिक रूप से इस्तीफ़ा दिया है या नहीं, लेकिन उनके इस्तीफ़े की इच्छा जताने भर से ही बांग्लादेश की नाजुक राजनीतिक स्थिति और अधिक अस्थिर हो गई है। यह परिदृश्य न केवल आगामी आम चुनावों पर प्रभाव डाल सकता है, बल्कि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की वैधता और अंतरराष्ट्रीय छवि पर भी गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है।
मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार के रूप में एक सामूहिक नागरिक आंदोलन के बाद चुना गया था। उनकी छवि एक निष्पक्ष, दूरदर्शी और लोकतांत्रिक नेतृत्वकर्ता की रही है, लेकिन अब वही यूनुस मौजूदा हालात में खुद को असहाय और बंधक महसूस कर रहे हैं। एनसीपी संयोजक नाहिद इस्लाम के साथ हुई उनकी बातचीत में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि अगर सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं बनती है, तो वह इस तरह की परिस्थितियों में काम नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि उन्हें इस पद पर लाने वाले आंदोलन की ही भावना अब उन्हें बंधक बना रही है।
इस संकट की गहराई को समझने के लिए अंतरिम सरकार के भीतर के अंतर्विरोधों पर ध्यान देना आवश्यक है। विदेश सचिव जशीमउद्दीन का अचानक इस्तीफ़ा और विदेश मामलों के सलाहकार तौहीद हुसैन और मुख्य सलाहकार यूनुस के साथ मतभेदों ने पूरी व्यवस्था की स्थिरता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस घटनाक्रम ने उन आरोपों को बल दिया है कि अंतरिम सरकार के भीतर समन्वय की कमी है। इसके अतिरिक्त, बीएनपी के नेता इशराक हुसैन और उनके समर्थकों ने स्थानीय सरकार से जुड़े सलाहकारों के इस्तीफ़े की मांग करते हुए सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किए हैं। यही नहीं, बीएनपी ने सूचना सलाहकार महफूज़ आलम, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ख़लीलुर रहमान और कानून सलाहकार प्रोफेसर आसिफ नजरूल जैसे अन्य प्रमुख सलाहकारों को भी हटाने की मांग की है। इन सभी सलाहकारों पर यह आरोप लगाया गया है कि वे या तो किसी विशेष दल के पक्षधर हैं या उनके बयानों ने सरकार की तटस्थ छवि को धूमिल किया है।
बीएनपी की इन मांगों के साथ-साथ इस्लामी आंदोलन बांग्लादेश, गण अधिकार परिषद और नवगठित नेशनल सिटीज़न्स पार्टी (एनसीपी) जैसे अन्य विपक्षी दलों ने भी अपनी-अपनी बैठकों में अंतरिम सरकार की विश्वसनीयता पर चिंता जताई है। एनसीपी के एक शीर्ष नेता ने तो तीन सलाहकारों को बीएनपी प्रवक्ता कहकर सार्वजनिक रूप से चेतावनी दी है कि अगर सुधार नहीं हुए तो वे उन्हें इस्तीफ़ा देने पर विवश कर देंगे। दूसरी ओर, सूचना सलाहकार ने अपने अतीत के विवादास्पद बयानों पर सार्वजनिक रूप से खेद जताया है। उन्होंने सामाजिक एकता और देशहित को सर्वोपरि मानते हुए सामूहिक आंदोलन की ताक़तों के प्रति सम्मान जताया है। वहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की नॉर्थ और दिल्ली गठजोड़ की चेतावनी ने एक बार फिर देश की सेना और बाहरी प्रभावों की भूमिका पर बहस छेड़ दी है। यह बयान उस समय आया है जब सेना प्रमुख वकार-उज़-ज़मान ने दिसंबर तक चुनाव कराने की बात दोहराई है। इस प्रकार सेना, प्रशासन, राजनीतिक दल और नागरिक समाज—सभी के बीच भरोसे की डोर तनावपूर्ण हो चुकी है।
मौजूदा घटनाक्रम में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या यह संकट बांग्लादेश के लोकतंत्र के लिए खतरा है या उसे एक नई दिशा देने का अवसर? मोहम्मद यूनुस का यह कथन कि वे केवल तभी काम कर सकते हैं, जब सभी दल आम सहमति से साथ आएं, इस तथ्य को रेखांकित करता है कि देश को किसी एक पक्ष के नेतृत्व से अधिक सर्वसम्मत लोकतांत्रिक ढांचे की ज़रूरत है, लेकिन जब तक राजनीतिक दल सत्ता के लिए संघर्षरत रहेंगे और अंतरिम सरकार को अस्थिर करने की कोशिशें जारी रहेंगी, तब तक यह सहमति दूर की कौड़ी बनी रहेगी।
बीएनपी जैसे दल डेढ़ दशक से अधिक समय तक विपक्ष में रहकर सत्ता की मांग करते रहे हैं, अब उसी अंतरिम सरकार की आलोचना कर रहे हैं, जिसकी वैधता उन्होंने कभी नकार दी थी। इशराक हुसैन जैसे युवा नेताओं का आंदोलन शुरू में एक स्थानीय प्रशासनिक मुद्दे से जुड़ा था, अब सरकार के बुनियादी ढांचे पर प्रश्न खड़े कर रहा है, इससे यह स्पष्ट है कि बांग्लादेश की राजनीति अभी भी व्यक्तिगत टकराव और पार्टीगत ध्रुवीकरण के दायरे से बाहर नहीं निकल पाई है।
दिसंबर 2025 तक चुनाव कराने की योजना को लेकर संदेह और विवाद का माहौल है। यदि, मोहम्मद यूनुस अपने पद से इस्तीफ़ा देते हैं, तो अंतरिम सरकार की वैधता पर व्यापक प्रश्नचिह्न लग जाएगा। इससे एक न केवल संवैधानिक संकट उत्पन्न होगा, बल्कि चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर भी प्रश्न खड़े होंगे। ऐसे में, तत्काल सभी राजनीतिक दलों की एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाकर आम सहमति का खाका तैयार किया जाए। इसमें चुनावी रोडमैप और सलाहकारों की भूमिका पर स्पष्टता लाई जाए। वहीं, जनता और राजनीतिक दलों की आशंकाओं को देखते हुए सलाहकारों की भूमिका का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाए और यदि आवश्यक हो तो उन्हें हटाया जाए या बदला जाए। सभी निर्णय संविधान के दायरे में रहकर और चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए लिए जाएं, जिससे लोकतंत्र की बुनियादी नींव पर कोई आघात न पहुंचे। संकट की इस घड़ी में संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और क्षेत्रीय सहयोग संगठनों की मध्यस्थता या निगरानी को भी सक्रिय किया जा सकता है ताकि चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता सुनिश्चित हो।
कुल मिलाकर, बांग्लादेश इस समय एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। मोहम्मद यूनुस का इस्तीफ़ा इस संक्रमणकालीन दौर में एक बड़ा झटका हो सकता है, लेकिन यदि इस संकट को संवाद, सहमति और सुधार के माध्यम से हल किया जाए, तो यह बांग्लादेश के लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करने का भी अवसर बन सकता है। इसके लिए ज़रूरी है कि सभी दल अपने-अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर देश और लोकतंत्र के हित में काम करें। तभी बांग्लादेश उस उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ सकेगा जिसकी उसे वर्षों से प्रतीक्षा है।