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    Home » भर्ती में समानता की वापसी: सामाजिक-आर्थिक बोनस अंकों पर हाईकोर्ट की सख्ती
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    भर्ती में समानता की वापसी: सामाजिक-आर्थिक बोनस अंकों पर हाईकोर्ट की सख्ती

    News DeskBy News DeskMay 25, 2025No Comments6 Mins Read
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    भारतीय लोकतंत्र का मूल मंत्र है – समान अवसर। लेकिन जब अवसरों की तुलना में विशेष सुविधाएं या बोनस अंक बांटे जाएं, तो यह उस मूल भावना को ही चोट पहुंचाता है। हाल ही में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में भर्ती प्रक्रियाओं में सामाजिक-आर्थिक आधार पर दिए जा रहे अतिरिक्त अंकों (बोनस मार्क्स) को अवैध ठहराया और उन्हें रद्द करने का आदेश दिया। यह फैसला केवल एक कानूनी निर्देश नहीं, बल्कि उन हजारों युवाओं की उम्मीदों का न्यायिक जवाब है जो केवल मेरिट के आधार पर अपना हक मांग रहे थे।

    —प्रियंका सौरभ

    भारतीय प्रशासनिक ढांचे में सामाजिक न्याय को एक महत्वपूर्ण स्थान मिला है, लेकिन इसके नाम पर समय-समय पर ऐसे कदम उठाए जाते हैं जो समानता की भावना से टकराते हैं। हरियाणा सरकार द्वारा 2019 में सामाजिक-आर्थिक आधार पर 10 अतिरिक्त अंक देने की नीति इसी प्रकार का निर्णय था। यह नीति उन अभ्यर्थियों को लाभ देती थी जो या तो अनाथ हैं, विधवा मां के पुत्र हैं, परिवार में सरकारी नौकरी नहीं है आदि। यद्यपि यह नीति सहानुभूति के आधार पर प्रेरित थी, लेकिन इससे मेरिट के सिद्धांत को गहरी चोट पहुंची। कई योग्य अभ्यर्थी जिन्होंने परीक्षा में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था, वे इस “बोनस सिस्टम” के कारण बाहर हो गए।

    संघर्ष की आवाज़: जो गला फाड़कर भी सुना नहीं गया

    जब कोई छात्र 90 में से 90 अंक लाकर भी चयन से वंचित रह जाए, तो यह सिर्फ परीक्षा की असफलता नहीं, सिस्टम की विफलता होती है। और जब यह गड़बड़ी साफ दिखती हो लेकिन सब चुप हों – तो यह चुप्पी भी अपराध की साझेदार होती है। उस समय बहुतों ने सवाल नहीं उठाए, लेकिन कुछ लोगों ने आवाज़ बुलंद की। मैंने बोल-बोलकर अपना गला फाड़ लिया था कि यह सामाजिक-आर्थिक बोनस अंक प्रणाली असंवैधानिक है, और यह फैसला एक दिन पलटेगा – और उस दिन हजारों ज़िंदगियाँ प्रभावित होंगी। लेकिन उस समय वोट बैंक की राजनीति ने सबकी आंखों पर पर्दा डाल दिया।
    “जो चयनित हुए, वे भी प्रताड़ित हुए, और जो नहीं हुए वे भी – सबको सज़ा मिली!”

    मैंने सबसे पहले इस नीति पर संपादकीय लिखे। विरोध सहा, लेकिन बोलती रही। क्योंकि जानती थी – यह फैसला सबको ले डूबेगा। आज जब कोर्ट ने इस पर रोक लगाई है, तो वे बच्चे जीत गए हैं – जिन्होंने सालों तक नौकरी के अधिकार से वंचित होकर लड़ाई लड़ी। लेकिन जो चयनित होकर सेवा दे रहे थे – उनका क्या दोष? वे भी बलि चढ़ा दिए गए।
    इस पूरी त्रासदी की जड़ है – वोट बैंक की घटिया राजनीति। पहले सहानुभूति के नाम पर नीतियां बनाईं, अब उनका खामियाज़ा भुगतने के लिए निर्दोष युवा छोड़ दिए।
    “बागड़ बिल्लों” का तो आज भी कुछ नहीं बिगड़ा – जो भी भुगते, सिर्फ आम छात्र। जो आज अधिकार लेकर खड़े हैं – उन्होंने वो अधिकार लड़कर लिया है, भीख में नहीं।
    अब सवाल यह है कि उन कर्मचारियों का क्या होगा जो कोर्ट के फैसले के कारण बाहर होंगे? क्या उन्हें कोई पुनर्वास मिलेगा? क्या यह सिस्टम उनसे माफी मांगेगा?

    गलत का परिणाम गलत ही होता है – और सही का सही। देर-सवेर ही सही। धिक्कार है ऐसी नीतियों पर, जिन्होंने हजारों को प्रताड़ित किया – और जिन्हें हक मिला, वह भी सिर्फ संघर्ष से मिला।

    अदालत का हस्तक्षेप और स्पष्ट रुख

    पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने इस नीति को संविधान की भावना के विपरीत बताया। अदालत ने आदेश दिया कि: भविष्य में इस प्रकार के बोनस अंक नहीं दिए जाएंगे।
    जिन अभ्यर्थियों को इन अंकों के चलते नियुक्ति मिली, उन्हें वरिष्ठता सूची में नीचे किया जाएगा। तीन माह के भीतर नई मेरिट सूची बनाकर फिर से परिणाम घोषित किए जाएं।
    यह निर्णय केवल तकनीकी सुधार नहीं, बल्कि न्याय की दिशा में एक नैतिक सुधार भी है।

    बोनस अंकों के पीछे का आंकड़ा:

    लगभग 25 से 30 हजार अभ्यर्थियों को इस नीति से लाभ हुआ। अनेक ऐसे मामले सामने आए जहाँ 90 में से 90 अंक लाने वाले अभ्यर्थी भी चयन से बाहर हो गए, जबकि दूसरों को बोनस के कारण लाभ मिला। यह स्थिति न केवल अयोग्यता को बढ़ावा दे रही थी, बल्कि व्यवस्था में असंतोष भी भर रही थी।

    सरकार की भूमिका और विरोधाभास

    हैरानी की बात यह है कि हरियाणा सरकार ने पिछले वर्ष ही यह बोनस अंक देना बंद कर दिया था। परंतु पहले से हुई नियुक्तियों में इसे लागू नहीं किया गया। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे मामले में “फैसला भविष्य में लागू होगा” जैसे बहाने स्वीकार्य नहीं होंगे, और जो नुकसान मेरिट पर आधारित अभ्यर्थियों को हुआ है, उसकी भरपाई होनी चाहिए।

    वास्तविकता और व्यावहारिकता के बीच टकराव

    सवाल यह है कि क्या ऐसे निर्णय व्यावहारिक हैं? जो लोग पिछले 2-3 वर्षों से नौकरी कर रहे हैं, क्या उन्हें नीचे किया जाएगा? क्या इससे प्रशासनिक ढांचे में अव्यवस्था नहीं फैलेगी? जवाब है – यदि शुरुआत ही गलत हो, तो व्यवस्था का टिकना अन्याय पर होगा। न्याय की गाड़ी को अस्थायी हानि सहकर भी सही ट्रैक पर लाना जरूरी है।

    राजनीतिक चुप्पी और नौजवानों का असंतोष

    यह विषय उन हजारों युवाओं के लिए उम्मीद की किरण है जो बिना किसी विशेष लाभ के मेहनत से आगे बढ़ना चाहते हैं। परंतु दुर्भाग्य से अधिकांश राजनीतिक दल इस पर मौन हैं क्योंकि ये नीतियाँ अक्सर वोट बैंक को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। एक अभ्यर्थी की यह टिप्पणी इस स्थिति को बखूबी दर्शाती है:
    “हमने मेहनत की, टॉप किया, फिर भी नौकरी नहीं मिली, क्योंकि हम ‘सामाजिक-आर्थिक रूप से विशेष’ नहीं थे। अब कोर्ट ने हमारी बात सुनी है।”

    भविष्य की दिशा क्या हो?

    नीतियों की समीक्षा होनी चाहिए: किसी भी सरकारी नीति को लागू करने से पहले यह देखा जाना चाहिए कि क्या वह समानता के सिद्धांत से मेल खाती है। बोनस अंक की बजाय विशेष प्रशिक्षण, छात्रवृत्ति, और परामर्श सुविधाएं दी जा सकती हैं ताकि पिछड़े वर्गों को सशक्त किया जा सके। भर्ती प्रक्रिया में पारदर्शिता और मेरिट को सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए।

    हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली की एक बड़ी जीत है। यह उस वर्ग के लिए आशा की किरण है जिसे राजनीतिक नीतियों ने हाशिये पर ला दिया था। समानता का मतलब यह नहीं कि सभी को एक ही रेखा से दौड़ने दिया जाए, बल्कि यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी के पैर में कोई बेड़ी न हो। सामाजिक-आर्थिक आधार पर अंक देना, एक तरह से कुछ के पांव में चप्पल और कुछ को नंगे पांव दौड़ाने जैसा था। अब न्याय की अदालत ने सबके लिए समतल मैदान तय कर दिया है।

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