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    शस्त्र और शास्त्र की लड़ाई

    News DeskBy News DeskMay 19, 2025No Comments5 Mins Read
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    शस्त्र और शास्त्र की लड़ाई
    राकेश सिन्हा
    ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता सिर्फ पाकिस्तान के पराजय और आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब तक सीमित नहीं है। इसकी अहमियत का बड़ा फलक है। सैन्य कार्रवाइयों का स्वाभाविक उद्देश्य देश के सम्मान और संप्रभुता की रक्षा होता है। इसलिए उस दौरान आ उससे जुड़े दूसरे आयाम गौण रहते हैं।

    यह एक त्रासदी है कि कुछ बुद्धिजीवी राजनीति के साए से बाहर नहीं निकल पाते हैं। बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच अंतर करना कठिन हो जाता है। बुद्धिजीवी जमीन पर घटी घटनाओं से तात्त्विक बातों का साक्षात्कार तभी कर पाता है, जब वह अपने आप को राजनीतिक पूर्वाग्रह से अलग कर लेता है। ‘आपरेशन सिंदूर’ के संदर्भ में यह साफ दिखाई पड़ा।

    ‘आपरेशन सिंदूर’ के महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक वैचारिक आधार पर विमर्श करने की आवश्यकता है। भारत ने आतंकवादी कार्रवाई को स्थानीयता के आईने से नहीं देखा, बल्कि इसे राष्ट्र पर हमला माना और इसे अंजाम देने वाले देश के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई के स्वरूप में प्रतिकार को नैतिक माना। ऐसे तो 9/11 के बाद अमेरिका ने भी पाकिस्तान में घुसकर सैन्य कार्रवाई की थी, पर अमेरिकी नेतृत्व ने उसे अपनी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। वह ताकत के तर्क पर आधारित था। इससे बिल्कुल अलग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का आधार तर्क की ताकत बनाया। यह एक बड़ा सैद्धांतिक अंतर होता है, जो आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में अधिष्ठान परिवर्तन की तरह है।

    पिछले चार दशकों से भारत सांप्रदायिक फासीवादी सोच से उपजे आतंकवाद का शिकार रहा है। आतंकवाद ने कश्मीर घाटी को ‘हिंदू मुक्त’ करने का सुनियोजित काम किया। पिछले महीने रामनवमी (7 अप्रैल) को कश्मीर के अनंतनाग में पैंतीस साल बाद पहली बार शिव-पार्वती (उमा) मंदिर में पूजा हुई। वहां अस्सी हिंदू परिवार रहते थे। सांप्रदायिक आतंकवाद ने एक को भी रहने नहीं दिया था। हम दशकों तक घुटने टेक कर और मस्तिष्क को स्वरचित लक्ष्मणरेखा के दायरे में रखकर आतंकवादियों से लड़ते थे। जाहिर है, अपने कारणों से लड़ाई में हम कमजोर पड़ जाते थे।

    हर आतंकवादी घटना को भारत के बुद्धिजीवी सांप्रदायिक विमर्श का हिस्सा बनाकर उलझाते रहे। यहां तक कि आतंकवादियों का मानवाधिकार के नाम पर परोक्ष बचाव भी कर दिया जाता था। भारत में मानवाधिकार संगठनों, पीयूसीएल, पीयूडीआर आदि के पतन का यह मुख्य कारण बना। इसी बौद्धिक तमाशे ने कश्मीर में जनसंहार को उसकी कथित स्वायत्तता और स्वतंत्रता से ढकने का काम किया था। मोदी युग में यह सब पूर्वजन्म की कहानी की तरह है। 2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद ‘आतंकवाद की प्रयोगशाला’, ‘पर्यटन के प्रायोजक’ में तब्दील हो गई। 2023-24 में देश विदेश के तीस लाख पर्यटक कश्मीर पहुंचे थे। यह पाकिस्तान को रास नहीं आया। दीये के बुझने से पहले उसकी लौ तेज हो जाती है। यही 22 अप्रैल, 2025 को हुआ। आतंकवादियों ने निर्दोष पर्यटकों की नृशंस हत्या करके भारत की पंथनिरपेक्षता पर सामने से घात किया। धर्म पूछ कर, कलमा पढ़ा कर, कपड़े उतारकर धर्म विशेष की पुष्टि कर उनको चयनित कर गोलियां चलाई गई। उत्तेजना, प्रतिशोध और सड़क छाप हिंसक लड़ाई के लिए यह यथेष्ट था। पाकिस्तान के ‘थिंक टैंक’ को भी यही उम्मीद थी। पर हुआ उसका ठीक उल्टा। भारतीयों का धैर्य और साख अखंडित रूप से बना रहा। भारत की पंथनिरपेक्षता इसकी आत्मा है। देश के ऐतिहासिक समुदाय ने हजारों वर्षों से वज्रपात को झेलते हुए भारत के विचार को मरने नहीं
    दिया। इसी समुदाय ने चेरामन (केरल में) मंदिर को मस्जिद बनाकर भेंट दिया था तो बाबर की असहिष्णुता से अयोध्या में ढाहे गए मंदिर को शताब्दियों बाद अपनी सबल इच्छाशक्ति से फिर मंदिर के रूप में प्राप्त किया। पंथनिरपेक्षता विचार और व्यवहार, दोनों में होने का प्रमाण है। हिंदुओं द्वारा भारत के मुसलमानों को पाकिस्तान के मुसलमानों से अलग देखना ही उत्तेजना और प्रतिशोध को अंकुरित नहीं होने दिया। प्रतिकूलता में ही विवेक की परीक्षा होती है। भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि हिंदू मुसलिम प्रश्न इतिहास के प्रति दृष्टि और अल्पसंख्यकवाद की घड़ियाली प्रवृत्ति के विरोध तक मोटे तौर पर सीमिता है। यह राष्ट्रीयता और भ्रातृत्व खंडित नहीं करता है। ‘हम भारत के लोग’ का यह फौलादी व्याकरण दुनिया के सामने आया।

    एक तीसरा आयाम भी है। पिछले चार युद्धों 1948, 1965, 1971 औरभारत ने आतंकवादी कार्रवाई को स्थानीयता के आईने से नहीं देखा, बल्कि इसे राष्ट्र पर हमला माना और इसे अंजाम देने वाले देश के विरुद्ध युद्ध के स्वरूप में प्रतिकार को नैतिक माना। ऐसे तो 9/11 के बाद अमेरिका ने भी पाकिस्तान में घुसकर सैन्य कार्रवाई की थी, पर अमेरिकी नेतृत्व ने उसे अपनी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। वह ताकत के तर्क पर आधारित था।

    1999 में पाकिस्तान का इस्लामिक कार्ड उपयोग में आता रहा। 1965 और 1971 में तो ‘आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कारपोरेशन’ और अरब लीग का खुला समर्थन पाकिस्तान को प्राप्त था। भारत का विपक्ष और उनके सहचर बुद्धिजीवी भाजपा और विशेषकर मोदी को मुसलिमों के शत्रु के रूप में दुनिया में प्रचारित करते रहे हैं। सेकुलर बुद्धिजीवी नई-नई पटकथा के द्वारा पिछले ग्यारह वर्षों से अल्पसंख्यकों के अस्तित्व के खतरे की काल्पनिक कहानी पुराने अंदाज में सुनाते रहे। पर यह देखने में विफल रहे कि लोक मानस ‘सेकुलरिज्म की परिभाषा के लिए उन पर अब निर्भर नहीं है। इस्लामी देश बुद्धिजीवियों और विपक्ष द्वारा प्रचारित कहानियों से परिचित तो थे, पर प्रभावित नहीं हुए। भारत की स्वीकृति इस्लामी मुल्कों में बढ़ती चली गई।

    यही कारण है कि पाकिस्तान को तुर्किये और अजरबैजान के अतिरिक्त किसी भी दूसरे इस्लामी देश का प्रत्यक्ष समर्थन नहीं मिला। यह उसके इस्लामी कार्ड के अप्रासंगिक होने की सूचना भी है। मोदी युग की विदेश नीति को इसका श्रेय जाता है। इस्लामी मुल्को सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मालदीव, फिलीस्तीन, इजिप्ट और अफगानिस्तान ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सम्मानित किया।

    शस्त्र और शास्त्र की लड़ाई
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