(पत्रकार सौम्य मिश्रा के एफबी वाल से )
राजनीति में अब संघर्ष नहीं, सजावट चलती है। और जो चेहरे ‘बोर्ड’ पर फिट नहीं बैठते, उन्हें ‘फ्रेम’ से हटा दिया जाता है।
अशोक चौधरी—कभी जमशेदपुर के ही नहीं पुरे झारखण्ड के कांग्रेस के सबसे जमीनी और संघर्षशील चेहरों में से एक।
वह नेता जिसने बिना मीडिया, बिना मंच, बिना मायाजाल—केवल विचार और संगठन की प्रेरणा से काम किया।
लेकिन आज पार्टी के भीतर उनकी स्थिति ऐसी है जैसे पुराने पोस्टर पर चिपका हुआ एक फटा कोना—जिसे हटाया तो नहीं गया है, लेकिन पढ़ा भी नहीं जाता।
बैठकों में नाम होता है, स्थान नहीं। निर्णयों में जिक्र होता है, पर भूमिका नहीं।
आज के संगठन में उनकी सबसे बड़ी योग्यता यह रह गई है कि वे चुप हैं, नाराज नहीं हैं।
पार्टी जिन कंधों पर खड़ी होती है, अक्सर उन्हें ही सबसे पहले भुला देती है।
और जब संगठन में “सच्ची निष्ठा” की जगह “संपर्क सूत्र” बैठ जाए, तो पुराने योद्धा केवल दीवारों पर तस्वीर बनकर रह जाते हैं।
आज जब कांग्रेस संगठनात्मक पुनर्रचना की बात कर रही है, तो यह सवाल भी जरूरी है—
क्या पुनर्रचना केवल कुर्सियों की अदला-बदली का नाम है, या संघर्षशील चेहरों को सम्मान लौटाने का साहस?
एक तस्वीर, एक नाम, एक अपमानित चुप्पी…
पर इतिहास यही कहता है—जिसने पार्टी के लिए अपना समय दिया, वो वक्त आने पर पार्टी से समय मांगता नहीं।
“जिसने झंडा उठाया था, उसे आज पहचानने वाला कोई नहीं।”