बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों की स्थिति और भारत की चिंताएं
देवानंद सिंह
बांग्लादेश के उत्तर-पश्चिमी जिले दिनाजपुर में हिंदू समुदाय के एक प्रमुख नेता भाबेश चंद्र रॉय की अपहरण के बाद निर्मम हत्या, न केवल स्थानीय बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक और मानवीय विमर्श में एक गहरी चिंता का विषय बन गई है। यह घटना अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों, धार्मिक स्वतंत्रता और भारत-बांग्लादेश संबंधों के संवेदनशील संतुलन को प्रभावित करती है, जो अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाती है। क्या बांग्लादेश की अंतरिम सरकार अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में सक्षम है? और भारत की प्रतिक्रिया क्या केवल कूटनीतिक चिंता तक सीमित रहनी चाहिए या इसे द्विपक्षीय संबंधों की समीक्षा के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए?
बता दें कि 58 वर्षीय भाबेश चंद्र रॉय दिनाजपुर जिले के बसुदेवपुर गांव के निवासी थे। 17 अप्रैल को शाम लगभग साढ़े चार बजे उन्हें एक फोन आया, जिसके कुछ ही देर बाद चार लोगों ने दो मोटरसाइकिलों पर आकर उन्हें जबरन उनके घर से अगवा कर लिया। रिपोर्टों के अनुसार, उन्हें पास के नरबारी गांव में ले जाकर बेरहमी से पीटा गया और बाद में बेहोशी की हालत में घर भेजा गया। अस्पताल पहुंचने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। इस क्रूर हत्या ने बांग्लादेश के हिंदू समुदाय में भय और आक्रोश की लहर फैला दी है। भारत के विदेश मंत्रालय ने इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने बयान में कहा कि यह घटना बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के व्यवस्थित उत्पीड़न के एक बड़े पैटर्न का हिस्सा है। भारत ने स्पष्ट रूप से बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से अपेक्षा जताई है कि वह बिना किसी बहाने और भेदभाव के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे।
यह पहली बार नहीं है, जब भारत ने बांग्लादेश से अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए कदम उठाने को कहा हो। बीते वर्षों में दुर्गा पूजा, रामनवमी और अन्य हिंदू पर्वों के दौरान बार-बार हिंसा की घटनाएं सामने आती रही हैं, जिनमें मंदिरों, मूर्तियों और पूजा स्थलों को नुकसान पहुंचाया गया। जनवरी 2025 में शेख हसीना की सरकार जाने के बाद से बांग्लादेश राजनीतिक अस्थिरता और प्रशासनिक अराजकता के दौर से गुजर रहा है। मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में गठित अंतरिम सरकार से उम्मीद थी कि वह चुनावों की पारदर्शिता और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। परंतु, अब तक जो घटनाएं हुई हैं, वे इस सरकार की असफलताओं को उजागर करती हैं। मानवाधिकार संगठन और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं लगातार चेतावनी दे रही हैं कि देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से हिंदू समुदाय के खिलाफ हमले बढ़ रहे हैं, और कानून व्यवस्था का गिरता स्तर चिंता का कारण है।
बांग्लादेश, भारत का एक प्रमुख रणनीतिक और सांस्कृतिक पड़ोसी रहा है। दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक रूप से गहरे रिश्ते रहे हैं, विशेष रूप से 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान भारत की भूमिका को लेकर। परंतु हाल के वर्षों में बांग्लादेश की आंतरिक राजनीतिक दिशा और भारत विरोधी ध्रुवीकरण ने इस रिश्ते को चुनौतीपूर्ण बना दिया है। हाल ही में बैंकॉक में हुए बिम्सटेक सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मोहम्मद यूनुस की मुलाकात को उम्मीद की किरण के रूप में देखा गया था, लेकिन भाबेश चंद्र रॉय की हत्या और उसके बाद की घटनाओं ने इन उम्मीदों को कमजोर कर दिया है।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री की इस मुलाकात को अप्रभावी बताते हुए हमला बोला है। उन्होंने पिछले दो महीनों में हिंदुओं पर हुए हमलों के सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए भारत सरकार की बांग्लादेश नीति पर सवाल खड़े किए हैं, हालांकि बीजेपी ने कांग्रेस पर पश्चिम बंगाल में हिंसा को लेकर चुप्पी का आरोप लगाकर पलटवार किया है, लेकिन यह बहस अब भारत की आंतरिक राजनीति से निकलकर एक बड़े कूटनीतिक विमर्श में तब्दील हो गई है। बांग्लादेश की बिगड़ती स्थिति को केवल भारत ही नहीं, अमेरिका भी गंभीरता से ले रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने हाल ही में बांग्लादेश को लेकर एक ट्रेवल एडवाइज़री जारी की है, जिसमें नागरिकों को राजनीतिक हिंसा, आतंकवाद और अपहरण की घटनाओं को देखते हुए वहां की यात्रा पर पुनर्विचार करने को कहा गया है। विशेष रूप से चटगांव पहाड़ी क्षेत्र को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतने की सलाह दी गई है।इस चेतावनी में धार्मिक अल्पसंख्यकों को लक्षित किए जाने की घटनाओं को भी उल्लेखित किया गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि भाबेश चंद्र रॉय की हत्या को एक अलग-थलग घटना के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह बांग्लादेश में हो रहे व्यापक सामाजिक-सांप्रदायिक विघटन का संकेतक है। इस घटना के बाद भारत के सामने कुछ अहम प्रश्न खड़े होते हैं।
क्या भारत केवल बयानों तक सीमित रहेगा या कोई ठोस कूटनीतिक दबाव बनाएगा? भारत को इस मुद्दे को द्विपक्षीय वार्ताओं के केंद्र में लाना चाहिए। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय मंचों—जैसे कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद या सार्क—में भी इसे उठाना आवश्यक हो सकता है। व्यापार, सीमा सुरक्षा और ट्रांजिट समझौतों में ‘मानवाधिकार’ को एक अहम तत्व के रूप में जोड़ना एक रणनीतिक उपाय हो सकता है।
यदि, बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बढ़ते हैं, तो भारत की सीमाओं पर नई मानवीय चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। भाबेश चंद्र रॉय की हत्या न केवल एक व्यक्ति की दर्दनाक मृत्यु है, बल्कि यह बांग्लादेश की मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था की विफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह घटना भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में दरार पैदा करने की क्षमता रखती है, यदि इस पर समय रहते सशक्त और संतुलित प्रतिक्रिया नहीं दी गई। भारत को चाहिए कि वह केवल बयानों तक सीमित न रहे, बल्कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार पर निरंतर और निर्णायक दबाव बनाए, ताकि धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा केवल एक संवैधानिक घोषणा न रह जाए, बल्कि ज़मीनी हकीकत बन सके। कूटनीति के साथ-साथ भारत को मानवाधिकारों के वैश्विक रक्षक के रूप में भी अपने दायित्व को निभाना होगा, ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदियां रोकी जा सकें।